जीवन की पहेली
काव्य साहित्य | कविता हेमन्त कुमार शर्मा1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
जीवन की पहेली,
सुलझी अनसुलझी।
सागर सी तृष्णाएँ हैं,
आलस की संग बलाएँ है।
सब अपने थे तीर लिए,
औरों की कमान समझी।
हारे हुए श्रांत हुए,
जीते हुए भ्रांत हुए।
निर्धन के मुख पर देखी है,
एक गहरी चुप्पी सजी।
शासन के बड़बोलेपन,
भूख से चिपटे तन।
चहुँ ओर निराशा बिखरी है,
लूट जंगल में मची।
राशन की लंबी क़तारे हैं,
उस ओर वारे न्यारे हैं।
हवा से उतरता नहीं कोई,
जवानी ज़मीं पर रेंगी।
अपनी खोज करूँ कैसे,
सूखे में नीर भरूँ कैसे।
नित नए सवाल रोटी के हैं,
प्रतिपल दौड़ मची।
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