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ताते सेईये नारायणा

 

मृत्यु का भय योग की भाषा में ‘अभिनिवेश’ कहलाता है। ‘मैं कभी ना मरूँ, सदा जीवित रहूँ’—यह इच्छा हरेक प्राणी में होती ही है। और आश्चर्य की बात है पास-पड़ोस, समीप के व्यक्ति मरते हैं पर अपनी मृत्यु भी होगी—इसका बोध चित्त को प्रतीत नहीं होता। श्मशान वैराग्य कुछ समय तक ही विद्यमान, फिर वही पुराने ढर्रे पर जीवन। 

मन ‘मृत्यु भय’ को जब पकड़ता है तब कोई दयानंद, कबीर, नानक को स्वयं से ही उत्पन्न करने में सक्षम हो जाता है। स्वयंभू! नया जन्म! विगत से कोई सम्बन्ध नहीं; आगत का कोई ठिकाना नहीं। चित्त का उपयोग समाप्त-प्रायः। बस शरीर से जब तक संपर्क रहेगा; चित्त साथ है। बाद में अपने उपादान कारण प्रकृति में लीन हो जाएगा। वर्तमान ही आत्म की धरती है। चित्त की वृत्तियाँ व्युत्थानकाल में ही उपयोगी होंगी। 

मृत्यु क्या है? इसके जानने का प्रयत्न ही तो इस जीवन में नये जीवन का प्रकाशन है। 

सोने के बाद उठने पर यह कहना आज अच्छी नींद आई है। वह कौन था जो सोते हुए भी जागता रहा और जागने पर हमें अनुभव करवाता है कि नींद सुखद रही या दुखद। कुछ तो सदा जागृत है इस शरीर में। उसकी खोज ही मृत्यु की खोज है। 

नशा उतरने पर यह कहना—कल इतना नशा हो गया था कुछ पता ना चला दीन-दुनिया का।  किसने अनुभव किया? जब सब नशा ही था, सब अप्रकाशित ही था; कोई तो शरीर में नशे से मुक्त था। सारी दुनिया की शराब भी उसको शराबी नहीं कर सकती। उसकी खोज ही मृत्यु की खोज है। 

‘मृत्यु का भय’ ही मृत्यु की खोज करवा सकता है। जो शाश्वत है, जो जीवन है उसका स्मरण इस खोज का परिणाम है। जिसके जानने पर जीवन की सारी समस्याएँ समाधान प्राप्त कर लेती हैं और व्यक्ति मूलशंकर से दयानंद बनने की ओर अग्रसर हो सकता है। 

जो जानने योग्य है—जिसका होना ही मृत्यु के भय को मिटाने वाला है; ‘केवल अपने होने की अनुभूति’ उसकी अनुकंपा से हो सकती है। मृत्यु का भय उस एक अदृश्य को जानने से ही समाप्त हो सकता है। जो केवल आत्म को ही ज्ञात होगा—‘केवल मात्र’ अपने को। जो सदा है। कबीर ने कहा है:

तातैं सेइए नाराइनां।
रसना राम नाम हितू जाकै कहा करै जमना।

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