पैसे का ज्ञान
कथा साहित्य | कहानी हेमन्त कुमार शर्मा15 Sep 2023 (अंक: 237, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
डॉक्टर ने शुगर घोषित कर दी। मियाँ अब अधिकतर आसपास पैदल ही आने जाने लगे। काम की व्यवस्तता और अन्य कारणों से, पादा जी से काफ़ी दिन हुए मेल-मिलाप नहीं के बराबर था। आगे तो वह मियाँ जी के घर असमय ही आ जाते थे। पर कुछ दिनों से वह भी अपनी तशरीफ़ ना लाए। शाम के चार बज रहे थे। पास ही दो गलियाँ छोड़कर पादा जी का घर था। वह लंबी डींगे भर कर चले। जल्द ही पादा जी के घर के सामने थे।
मियाँ ने दरवाज़े पर दस्तक दी। सामने पादा जी की छोटी बेटी आई और भीतर चिल्ला कर कहा, “माँ बाबा को कह दो उनसे मिलने कोई आए हैं।”
“कोई होगा भी तो, पूछ ज़रा,” माँ ने भी और काम दे दिया।
“वही बाबा के दोस्त हैं। चाचा, . . . ख़ुदा बख़्श . . .।”
“अरे बड़ों का नाम इस तरह लेते हैं . . .” रसोई से बाहर आते हुए कहा, ”इसकी बात पर ध्यान ना दें।”
चारपाई खिसका कर बैठने के लिए कह पादा जी को बुलाने चली गई। बाण की चारपाई कुछ ढीली हो गई थी। उसमें मियाँ कुछ धँस गए। सामने हैंडपंप था। शायद सूख गया था। कोई बाल्टी, मग व पानी के निशान मौजूद ना थे। और फिर सेप्टिक टैंक के कारण पानी के दूषित होने का भी डर। पिछले वर्ष ही सरकारी नलका लगवाया था। फ़ॉर्म मियाँ ने ही भर कर दिया था। क्या पापड़ बेलने पड़े; पादा जी को पता है या उन्हें।
इतने में पादा जी लँगड़ाते हुए सामने से आते दिखे। मियाँ के मुख से निकल पड़ा, “क्या साइकिल की चैन उतर गई या स्कूटर का एकदम पंचर हो गया? कहीं गिर विर तो नहीं गए।”
“कर लो मज़ाक़। तुम्हारी ही कसर रह गई थी“
“भाई नाराज़ क्यों होता है। क्या हुआ, ऐसे लँगड़ा के क्यों चल रहा है?”
“क्या कहूँ मियाँ जी, हफ़्ते भर से बुख़ार है। अनेक दवाइयाँ ले लीं पर आराम नहीं। लेटे-लेटे कमर भी दर्द करने लगी है। एक टाँग में सूखा दर्द भी हो गया है।”
“तुम भी झोला छाप डॉक्टरों के पीछे लगे हुए होगे। टेस्ट-वेस्ट करवा लेना था। सरकारी अस्पताल में टेस्ट और दवाई फ़्री है।”
“भई टेस्ट का पता नहीं। दवाई जो असर करती है वह बाहर की लिख देते हैं। अस्पताल की दवा असर ही नहीं करती इसलिए मैं जाता ही नहीं।”
“अब तो नई सरकार ने हर स्थान पर क्लीनिक खोल दिए हैं। दवाई, इलाज मुफ़्त। अपने भी तो ठेके वाली गली में सरकारी क्लीनिक खुला था। वहाँ नहीं गया?”
“गया था। डॉक्टर छुट्टी पर है। शराब की गली सुनकर लोग बाग़ कम ही आते थे। वैसे लगता नहीं फिर क्लिनिक खुलेगा, डॉक्टर आएगा।”
“अब . . . फिर कहाँ से दवा ले रहे हो?”
“भागे डॉक्टर से। अपना पुराना यार है।”
“मरना है क्या . . .?” माथा छूते हुए कहा मियाँ ने, “बुख़ार अभी भी है। चल कहीं और दिखाते हैं।”
मियाँ ने पादा जी का स्कूटर स्टार्ट किया और दोनों प्राइवेट अस्पताल में गए। जाते ही पादा जी को भर्ती कर लिया गया। सभी टेस्ट हो गए, डेंगू निकला। पाँच दिन भरती रहे। कुछ फ़र्क़ पड़ा। बिल आया देख कर वह कुछ जल्दी ही ठीक हो गए। पचास हज़ार की पूजा करनी पड़ी।
मियाँ इस दौरान लगातार उनके संपर्क में रहे। घर पर छोड़ते हुए कहा, “चाय बनवा ले। उस दिन की उधार है।”
जमुना भाभी ने सब सुन लिया था। वह भी इतने दिन बिरान ही रही। कभी प्राइवेट हॉस्पिटल, कभी घर, बच्चे। चाय बिस्कुट लेकर थोड़ी देर में ही हाज़िर हो गई।
“अरे, मैं मज़ाक़ कर रहा था। आपने . . .”
“पी ले, पी ले ज़्यादा नख़रे ना कर,” पादा जी बोल पड़े।
कुछ देर ख़ामोशी के बाद मियाँ ने थाली में रखे बिस्किट चाय में डुबोते हुए कहा, “प्रचार और व्यवहार यह अलग चीज़ें हैं। सरकारी क्लीनिक का पता नहीं। पादा जी अगर तुम्हारे पॉकेट में पैसे नहीं होते ना, आप जल्दी ही ख़ुदा को प्यार हो सकते थे।”
पादा जी ने हाँ में सिर हिलाया। जमुना भाभी यह सुनकर एक लंबी श्वास खींचे खड़ी रही।
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