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पीड़ा क्या कूकती भी है?

 

इस इलाक़े में कोई जानता नहीं, 
भेड़िया घूमता स्वतंत्र। 
 
उसकी परिचर्चा भेड़ से, 
शिकायत खेत की मेढ़ से। 
वह कहता झूठ भी अगर, 
सबको मानना होगा, 
उसकी पहुँच को
पहचानना होगा। 
वह तुम सब-सा नहीं परतंत्र। 
 
पीड़ा क्या कूकती भी है? 
—प्रश्न निरुत्तर है। 
आपदा व्यापारी के लिए
अवसर है? 
चीखती हैं आँखें, 
सब ज़ुबानें चुप हैं, 
जिसके लिए मरे थे
क्या यह वही है तंत्र? 
 
थोड़े से पैसों के लिए, 
पेट भरने के लिए। 
वह धूप, बरसात में
जूझता रहता है। 
रात कुछ देर को
मर जाता है, 
वैसे दिन में भी मरे बराबर ही हैं, 
वह सामान्य
पर विरोध में असामान्य षड्यंत्र। 

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