जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है
काव्य साहित्य | कविता हेमन्त कुमार शर्मा15 Aug 2024 (अंक: 259, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है,
यह मन है कितना लिखारी है।
कहता है भले की सब में,
सब की,
बात करता सब से रब्ब की।
अकेले में वहशी छुरी दोधारी है।
कहने से पहले गुनता है,
निंदा शान्त हो सुनता है।
फिर घात लगा,
सिद्धांत का आहारी है।
सत गुण की बात करे,
रज, तम से काम करे।
किसी को कुछ समझता नहीं,
सामने झुकता यों आभारी है।
जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है,
यह मन कितना लिखारी है।
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