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भोजन श्राद्ध का

 

शाम के चार बज गए थे। चाय का समय था। मुल्ला जी बरामदे में बेचैनी से चक्कर लगा रहे थे। हाथ घड़ी को बार-बार देखते। उनकी बीवी भी दो एक बार बाहर का चक्कर लगा गई थी। 

मेन गेट पर किसी की दस्तक हुई। मुल्लाजी लगभग दोड़कर ही कुंडी खोलने पहुँचे। सामने पादा जी कराहते हुए खड़े थे। 

“क्या हुआ?” 

“मुल्लाजी, साँस लेने दो ज़रा। सामने से हटो। पाँव फिसल गया। भगवान बचाए तुम्हारे गली के कुत्तों से।”
निवार की चारपाई पर बैठते हुए उन्होंने कहा। 

“तीन बजे का टाइम था। अब सवा चार बज रहे हैं। अपने टाइम का नहीं कम से कम मेरे वक़्त का तो ख़्याल करना था। कब से चाय का पानी खोल रहा है।”

“मियाँ, आधे घंटे से गली के दूसरे छोर पर खड़ा था। यह कुत्ते तुम्हारी गली के पहरेदार; मुझसे पता नहीं किस जन्म की शत्रुता रखते हैं। देखते ही भोंकने लगते हैं। बड़ी कठिनाई से चकमा देकर आया हूँ।”

“अच्छा, अच्छा। लो, चाय लो। चाय आ गई।”

रुकिया भाभी चाय लेकर आ गई थी। चाय और बिस्किट समाप्त कर पादा जी ने कहा, “मुल्ला जी, कल समय पर आऊँगा तब ताश की बाज़ी खेलेंगे। आज वैसे ही व्यस्त था।”

“तेरा सीज़न चल रहा है ना, तभी।”

“अ, हा, हा, हा! सब जानते हो तुम। पर ताश के लिए समय निकाल ही लूँगा। तुम चिंता ना करो। कल एक ही यजमान है। सुबह ही निपटा देना है।”

“वैसे कल किसके घर को निहाल करना है।”

“वह बुधराम नहीं है। उसके पिता का दूसरा श्राद्ध है अच्छा प्रोग्राम रखा है। इक्कीस पंडित बुलाए हैं। सब की अच्छी ख़ासी सेवा करने का व्रत है उसका। देखें क्या करता है! सुना है पिछली दफ़ा सब प्रसन्न कर दिए थे दान देकर। मेरा पहली बार ही वहाँ जाना है।”

“यह वही तो नहीं जिसने अपने पिता को वृद्धाश्रम भेज दिया था। फिर बदनामी होने पर वापस ले आया था। वही है ना?” 

“अरे, काहे का वापस ले आया। लाने पर परेशान ख़ुद हुआ और बूढ़े को भी किया। बिना बाप के रहने की आदत हो गई थी। अपने बाप को खाने को भी नहीं देता। बीमार हो गया। बिस्तर पर ही मलमूत्र। कहीं खाएगा तो निकालेगा भी। बस ग्लूकोज चढ़वा देता। बूढ़ा ठीक हुआ। थक के दोबारा स्वयं ही वृद्ध आश्रम चला गया। भूखों मरना था क्या? वहीं मरा। बाद में बड़ा प्रोग्राम किया था भोग का। बूढ़े की हर पसंद की वस्तु बनवाई। जीते जी तरसता रहा वह। इसीलिए पिछले साल श्राद्ध पर नहीं गया। कहीं उसके अन्न का मुझ पर भी असर ना हो जाए।”

“पर कल तो जाएगा? . . .” 

“क्या करूँ। रामसुख प्रण करवा कर ले जा रहा है। बहुतेरी ना की। पर मानता कहाँ है।”

रामसुख पादा जी का सगा साला था। और उसे मना करना थोड़ा कठिन कार्य था। 

मियाँ जी कुछ देर चुप बैठे रहे। कोई बात उनके मुख से नहीं निकल रही थी। कुछ देर शान्ति के बाद कहा, “मेरे दूर के मामू थे। उनका लड़का पढ़ लिख कर शहर में बस गया। पढ़े-लिखे गाँव में कहीं बस्ते हैं? मामू ने उसकी शादी अच्छे ऊँचे, अमीर घराने में की थी। पर शादी के कुछ साल बाद माँ चल बसी। मामू गाँव से शहर आ गए। अपने बेटे के पास। पर वहाँ उनकी जो फ़ज़ीहत हुई बस पूछो मत। लड़के ने थक-हार के मामू को वृद्धाश्रम भेज दिया। मरते वक़्त मिलने तक ना गया। उसके आख़िरी सब काम संस्था ने किये। ओह ख़ुदा।” आँखों में नमी आ गई। 

पादा जी ने कंधे पर हाथ रख कर दिलासा दिया और कहा, “मियाँ, मुझे यह तो नहीं पता पितरों तक कुछ पहुँचता है या नहीं। इतना पक्का है कि अब बुधराम के बूढ़े के श्राद्ध में नहीं जाने का। चाहे कुछ हो जाए।”

मियाँ की छत की और शून्य में ताक रहे थे। 

“किस उधेड़बुन में है। सुन भी रहा है।”

विचारों से बाहर आकर मियाँ ने कहा, “पादा जी अम्मा की याद आ गई। कहती थी मेरे पास ही रहेगी। यहीं से जाएगी ऊपर। दूसरे बच्चों पर क़तई भरोसा नहीं था। चली गई कुछ और दिन जी लेती। खाट पर बैठी का ही सहारा बहुत था। कहीं आना जाना होता, बेफ़िक्र हो जाता। अब बाहर जाने पर घर बार की सौ चिंता और उसके रहने पर घर में एक रौनक़ थी। अब नहीं है। पर उसकी यादें तो हैं।”

पादा जी गंभीर हुए और कहा, “तेरी बात से मेरे पिताजी स्मरण हो उठे। वह भी मेरे साथ ही रहे। जब तक रहे घर का मुखिया बनकर, हर बात उनके मुताबिक़। उनके जाने पर घर के सिर से साया ही चला गया जैसे। हर समय एक चिंता मन में लगी रहती है। उनका होना ही बहुत था . . . ऊपर दूर तक की बात कहते हैं। और कहते हैं वहाँ उन तक पहुँचता है यहाँ का जिमाया हुआ। पर मियाँ मैं यहाँ आकर चाय पीता हूँ। तू अगर यही जिमा दे क्या मेरे पास मेरे घर पहुँच जाएगी। सब जीवित का व्यवहार है।”

मियाँ आश्चर्य से सुनता रहा। और पादा जी का मुख देखता रहा। 

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