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प्रकृति की छटा: ‘घरांट’ शब्द

 

नए शब्दों की उत्पत्ति कैसे होती है। क्या इनकी प्रक्रिया है। यह अदृश्य-सा कठिन प्रश्न है। अदृश्य यों कि इसका अर्थ दिखता नहीं। कठिन कारण—खोज का अभाव। नये शब्द कैसे बनते हैं? इनका उत्तर देना शायद बन ना पड़े। परन्तु कुछ पुराने देशज व्यवहार प्रयुक्त शब्द जो अपने भीतर एक प्रकृति का काव्य लिए बैठे हैं, उनका वर्णन भी कम है। उन शब्दों में एक शब्द ‘घरांट’ शब्द है। भूमि से पानी जो स्वयं उद्भूत होता है। निर्मल, स्वच्छ, बहता। गर्मी के आगमन से पहले छोटी नदी या शिवालिक की तलहटी में बह रहे व्यर्थ के पानी को बाँध के एक नाले से इकट्ठा कर ऊपर से गिराना जिस से पंखे घूमें और पनचक्की चेतनवान हो उठे। 

केवल पनचक्की कहने मात्र से प्रकृति के सुंदरतम भाग को प्रकट करना असंभव है। वह एक गेहूँ या मक्की पीसने का यंत्र भर ही तो है। पर ‘घरांट’ शब्द पूरे क्षेत्र का ख़ाका आँखों के आगे प्रस्तुत कर देता है। छप्पर की छत-दीवारों की ईटें मिट्टी से चिनी हुई। ऊपर चिकनी मिट्टी का लेप। छोटा ढुलमुल दरवाज़ा—जिससे झुक कर भीतर जाया जा सकता है। कच्चा फ़र्श उस पर गोबर की लिपाई। गेहूँ व मक्की, पीसने के लिए थैलों में भरे हुए—उन पर नाम लिखा कि किस-किस का वह पिसान है। धीरे-धीरे अनाज का चक्की के भीतर जाना—मुलायम और बढ़िया पिसाई। चक्की के पाटों का सुस्त और लयबद्ध तरीक़े से घूमना। कबीर की पंक्तियाँ शायद इसी से उत्पन्न हुई हों: ‘दो पाटों के बीच साबुत बचा न कोए’! 

बिजली की चक्की में कहाँ वह बात? ‘घर्र घर्र’ की आवाज़—शायद इसी कारण इसका नाम घरांट पड़ा हो। 

पर ‘घरांट से आटा लाना’—यह वाक्य उस प्राकृतिक दृश्य की तरफ़ खींच लेता, जो बरबस मन को एक ना समाप्त होने वाले आनंद को उत्पन्न कर देता—जिसका असर काफ़ी देर तक बना रहता। प्रकृति के दृश्य चेतना को अलग लोक में ले जाते हैं। इनका स्मरण भी चित्त को तरो-ताज़ा कर देता—जिससे नए सिरे से जीवन की बाधाओं को झेल सकें। 

एक निर्जन स्थान जहाँ वह आटा पीसने वाला और उसकी बूढ़ी पत्नी के अतिरिक्त कोई और निवास ना करता। प्राचीन वानप्रस्थ आश्रम की तरह। भीतर चूल्हे की व्यवस्था मक्की की रोटी आधकच्ची सेक कर चिमटे से तवे के नीचे भभक रही आग में रखना और रोटी का स्वाद दुगना हो जाना। 

बाहर छोटे-छोटे क्यारों में प्याज़, लहसुन की पौध—अभी नन्ही-सी। पास ही जामुन के वृक्ष पर लगा मधुमक्खी का छत्ता जिससे शहद की भीनी-भीनी सुगंध आना। आम का बड़ा वृक्ष—जिसकी बग़ल में नीम का छोटा पेड़। उसके नीचे बाण की बनी चारपाई जिस पर बैठते ही इंद्र का सिंहासन भी बौना लगे। 

शहर के लोग ‘घरांट’ के पिसे आटे को तरसते और ख़ासकर मक्की का आटा—जो बड़ी-बड़ी चक्कियों से बेहतर ही नहीं, सर्वोत्तम पिसता। 

बरसात आने से पहले इन घरांटों को अगले साल तक के लिए बंद कर दिया जाता। पानी की निकासी का झंझट होता था। अब इनकी संख्या ना के बराबर ही है। शहरीकरण की रफ़्तार इनको निगल रही है। आने वाले समय में घरांट जैसे शब्द सुनने को भी ना मिलेंगे—जो अपने भीतर प्रकृति की पूरी पुस्तक सँजोए रखते हैं। 

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