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कृतिकार

 

ख़र्च कम करने का ख़्याल उन्हें ही आ सकता है जिनके पास पैसे-धेले हों। जेब ख़ाली वाले अभी इसी सोच में हैं—कैसे आज का खाना प्राप्त हो। कैसे कल फिर चूल्हा जले। 

काग़ज़ हाथ में लेते ही, लेखनी हाथ में आते ही जो अपने को शहंशाह समझते थे—अब यथार्थ के थपेड़े खाकर अपनी स्थिति को समझ कष्टों का बोझ ढो कर, अनियमित मज़दूरी का काम करने लगे। 

घर में चार दिन से रोटी नहीं बनी थी। जब कनस्तर में आटा डाल रहे थे तो उसकी महक प्रिय के बदन से भी आकर्षक लगी। घिया जिसकी सब्ज़ी देखते ही नाक भौं सिकोड़ लेता था—आज राजमा चावल से स्वादिष्ट प्रतीत हुई। किसी ने ठीक ही भूख को स्वाद का उत्पादक कहा। ‘भूख लगेगी ज़मीन को बुड़के मारता फिरेगा’— जब पिता ऐसा कहते तो दो-दो दिन ज़िद में आके खाने से दूर रहते—अपनी पसंद की वस्तु बनवा कर ही खाना खाते। पर जब अपने पर आई . . .

कृतिकार भूखों ही मरते हैं—सौ में न्यानवें। ऐसा कष्ट सहकर साहित्य साधना में लगा रहना बड़े शूरवीरों का काम है। और दयाप्रसाद ऐसा नहीं था। लेबर चौंक में खड़े हो मज़दूरी की तलाश। पहले पहल बड़ी शर्म अनुभव होती थी पर अब नहीं। कभी जाने-पहचाने से मुलाक़ात होती—वह झेंप जाता। पर वह चार दिन भूख के स्मरण हो आते। फिर उसी नून, तेल, लकड़ी के चक्रव्यूह में फँस जाता। 

रविवार का दिन था। कुछ दो चार ही मज़दूर बचे थे। शायद आज फिर ख़ाली हाथ लौटना पड़े। वह कोई चुस्त चलाक व शरीर से गठीला नौजवान नहीं था। काम कर लेता था बस। मजबूरी में ही कोई ले जाता। अधेड़ हो चला था। कोई सिफ़ारिश, कोई मित्रता—किसी का एहसान उसे ना-क़ाबिले-मंज़ूर था। वह किसी प्रकार धक्का लगा ही रहा था अपनी ज़िन्दगी को। माँ ही थी जो उसके सुख-दुख की साथी थी। उसकी प्रश्न चिह्नित आँखें दया प्रसाद को विह्वल कर देती थीं। उसकी तरफ़ देख भी नहीं पाता। काफ़ी दिन से माँ बीमार थी। उसकी दवा का इंतज़ाम करना उसके लिए एक ऊँचे पहाड़ पर चढ़ने के समान था। कई बार अकेले में बैठ माँ के मरने की दुआ भी मन में आ जाती। रोज़-रोज़ के झंझट से छूट जाती वो पर फिर अपने इस विचार को लानतें देने लगता . . .!

किसी की आवाज़ ने उसकी विचार शृंखला को तोड़ दिया। 

“ऐ, ख़ाली हो। घर पर काम है। राजमिस्त्री के साथ लगना है, चलोगे।”

‘हाँ’ में सिर हिलाया और उसकी मोटरसाइकिल के पीछे वाली सीट पर बैठ गया। 

मकान का कुछ हिस्सा बचा था प्लास्टर होने को। जैसे-तैसे काम करता रहा। गर्मी के कारण शरीर जवाब दे रहा था। चाय का समय हो गया था। पहले पानी पीया फिर चाय की चुस्कियाँ लेने में व्यस्त। 

“अच्छा कहो, कहाँ के हो तुम?” मिस्त्री ने पूछा।

“हरिपुर का रहने वाला हूँ। लेबर चौंक में काम की तलाश में आता हूँ। पर कई बार काम मिल नहीं पाता,” दया प्रसाद ने उत्तर दिया। 

“चलो, तुम ही आ जाया करो। दूसरा मज़दूर बीमार है। पैसों की चिंता ना करना। साहब पैसे के मामले में कोरे हैं। एक पैसा अधिक नहीं देते। रखते भी एक नहीं।”

दया प्रसाद प्रसन्न हुआ कम से कम कुछ दिन का ही, रोज़गार तो मिला। 

दवा के लिए पैसे इकट्ठे हो गए थे। माँ को दिए। जिससे वह डॉक्टर से दवा ला सकी। थोड़े दिन में माँ स्वस्थ हो गई। 

सुबह से शाम दो पेट पालने का चक्कर, मकान का किराया दे के हटता,। बिजली का बिल आ जाता। राशन का जवाब देता, रसोई गैस का प्रश्र उठ खड़ा होता। 

लिखने का अभ्यास छूट ही गया था। पास रखे पैन, काग़ज़ सब व्यर्थ हो गए। अच्छा हुआ विवाह ना किया वरना सारा परिवार भूखा मरता। कभी पुरानी अपनी लिखित कविता देख लेता। कुछ क्षण को प्रसन्न होता पर थक कर सो जाता। सुबह जीवन की सच्चाई मुँह बाए जो खड़ी थी। 

समय व्यतीत होता रहा। माँ का देहांत हुआ। रात को सोई ही रह गई। सुबह जगाने पर भी उठी नहीं। एक बार छूकर वह सदमे से लड़खड़ा कर पीछे दीवार का सहारा ले बैठ गया। कटहा (कथित पंडित पुरोहित) लोगों के द्वारा लूटने के बाद कुछ ना बचा। वैसे उसके पास सही में कुछ ना बचा था। बस अपना पैन और ख़ाली काग़ज़़ जिन्हें उसकी कब से प्रतीक्षा थी। ‘माँ का स्मरण’ नामक शीर्षक लिख कर आगे विचार करने लगा। 

यह उसकी प्रथम छपी कविता थी। जिससे कुछ पैसे प्राप्त हुए। 

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