बात इतनी सी थी
कथा साहित्य | कहानी हेमन्त कुमार शर्मा15 Oct 2023 (अंक: 239, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
“अब जाने का मन बना ही लिया है। तुम्हारी माँ है, ज़िद्दी तो तुम्हारी ही तरह होगी। कितना समझाया तुमने पर महारानी अड़ी हैं अपनी बात पर . . .,”आशा ने धोए हुए कपड़े तह लगा कर अलमारी में रखते कहा।
“श . . . श . . . ज़रा धीरे बोलो सुन लेंगी।”
“तुम डरते होगे मैं नहीं,” आँखों में आए आँसू पल्लू से पोंछते हुए वह बोली।
यूँ आशा जब से ब्याह कर रमन के घर आई तब से उसकी माँ से खटपट चलती ही रहती थी। परन्तु दोनों का आपस में एक स्नेह धागा भी बँध गया था। जब ख़ानदानी मकान से अपने नये घर में शिफ़्ट हुए माँ को आशा ज़बरदस्ती अपने साथ ले आई थी। वह भली-भाँति जानती थी कि रमन सबसे छोटा था पर माँ के साथ लगाव सबसे अधिक। दूसरे भाई उसकी ठीक से सेवा-सुश्रुषा करते भी हैं . . . सन्देह था। नये घर में गृहस्थ दो से चार हो गये। बच्चे दादी के प्यार, लाड़ में थोड़े बिगड़ भी गये या कहें दादी के लाड़ले हो गये।
बन्नी, जो छोटी थी, अम्मू उससे दो साल बड़ा। कल की ही बात थी। अम्मू ने होमवर्क नहीं किया। आशा ने कई बार याद दिलाया। पर महाशय टालते रहे। सुबह स्कूल बस आने के समय याद आया। जाने से मना करने लगा मैडम के डर से। होमवर्क नहीं किया डाँट पड़ेगी। मुश्किल से स्कूल भेजा।
आशा ने घर आकर रमन की माँ से ख़ूब झगड़ा किया कि उन्होंने ही बच्चों को सिर पर चढ़ा रखा था। पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते। वह उनका पक्ष लेकर बिगाड़ रही थी।
वह सुनती रही और मौन। वह सारा दिन बेचैनी से बिस्तर पर करवट बदलती रही और बाहर जाकर देखती रमन आया कि नहीं। दोपहर का खाना भी लौटा दिया।
आशा अभी भी ग़ुस्से में थी। उसने कटाक्ष किया, “जब महारानी को भूख लगेगी अपने आप खा लेंगी।” वह फिर भी ना बोली। शायद गहरे मन में चोट लगी थी।
रमन के दफ़्तर से आने पर माँ ज़िद पर अड़ गई उसे रमेश, जो उसका बड़ा बेटा था, के पास रहने को भेज दे।
“माँ क्या कुछ बात है, बताओ। क्या आशा ने कुछ कह दिया?”
“नहीं, बस मैं . . . रमेश जब पिछली दफ़ा आया था अपने पास रहने के लिए बार-बार कह रहा था और काफ़ी दिन हो गए हैं तुम्हारे घर में र . . .”
“तुम्हारे घर में?” बात काटते हुए रमन ने कहा, “यह घर तुम्हारा नहीं है क्या? मुझसे कोई भूल हो गई क्या? माँ बन्नी और अम्मू तुम्हारे बिना कैसे रहेंगे? तुम्हारे ही तो लंगूर हैं,” माँ के गले लग रोने लगा।
माँ अनुनय विनय, बच्चों के मनाने, किसी भी प्रकार से ना मानी। आशा यह सब देखती रही पर एक संकोच उसे बाँधे हुए था। वह माँ से एक भी शब्द ना बोली। शायद क्रोध अहंकार में तब्दील हो गया था। कौन झुके का मसला बन गया।
आज जाने का समय भी आ गया। रमन ने कैब बुक की हुई थी। वह पहुँच गई। वह ख़ुद ही माँ को रमेश के पास छोड़ने वाला था। आशा ने आगे बढ़ के माँ के पैर छुए।
“बच्चों का ख़्याल रखना,” इतना ही कहा और बच्चों को देखकर भावुक हो रोने लगी।
आशा ने जैसे ही देखा वह माँ के गले लगकर फूट कर रो पड़ी और बार-बार ‘माँ मुझे माफ़ कर दो’, ‘माँ मुझे माफ़ कर दो' दोहराती रही।
रमन एकटक देखता रहा। बच्चे भी माँ और दादी के साथ लिपट गए। तुरन्त कैब वाले से सामान वापस रखवाया।
“ले अपना पूरा किराया और ऊपर से सौ रुपए, जाना कैंसिल।”
रमन प्रसन्न हो उठा। आशा और बच्चे माँ को खींच कर घर के भीतर ले गए।
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