अपनी घास
कथा साहित्य | कहानी हेमन्त कुमार शर्मा1 Apr 2024 (अंक: 250, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
ज़रा-सी बात पर इतने चर्चे हो गए और कहने की हिम्मत नहीं। सारे अपने क़िस्से कह डाले। झोली के सारे छेद उघाड़ दिए। आज क्या, कल क्या। जुगनू किसी किताब का पात्र; नायक से कम नहीं पर नायक भी नहीं। वह अपनी कहानी से बाहर निकल आया। कोई किसी का ध्यान नहीं, कोई शब्द नहीं। कठिन मार्ग बिता दिया तब किसी शख़्स ने कहा, “मुझे एक बार आवाज़ तो दे लेते। मदद को ना आता तो कहते।”
कुएँ में गिरे हुए की तरह आवाज़ किस-किस को नहीं दी और वह शख़्स कहता—उसे एक बार पुकार लिया होता।
जुगनू बड़ा मायूस रहा था, अपने मुश्किल समय में। मुश्किल क्या भरे समूह में अकेला। किसी को ग़रीब बनाना हो उसे ईमानदारी का ‘ऐनेस्थेटिक’ सुँघा दो फिर उसका उभर पाना असम्भव। वह जीवन भर पिछलग्गू रहेगा। अपने आदर्शों के कारण पागल भी हो सकता।
‘फेवरेट’ स्कूल मास्टर ईमानदारी का सबूत था। ट्यूशन से दूर रहता। स्कूल में बच्चों की आर्थिक सहायता भी कर देता। पर अपने स्टूडेंटों को ईमानदारी से जीने पर अगाह भी कर देता। जुगनू को कभी सलाह देते हुए कहा था, “शिष्य बन्धु। ईमानदारी की आशा केवल दूसरों से रखनी चाहिए। स्वयं प्रयोग करोगे तो भूखों मरना पड़ेगा।”
बात भी सही थी। पर गधों के सींग नहीं होते; यह बात उस मास्टर और जुगनू को कौन समझाता! यह कहने वाला मास्टर कुछ दिन पहले ‘टैं’ बोल गया। उसके घर की एक-एक ईंट गिरवी थी। वह मास्टर ‘दूसरों को नसीहत ख़ुद मियाँ फजीहत’ जैसी कहावत का उदाहरण था। जुगनू पर भी उन महोदय का कुछ कुछ प्रभाव पड़ा था। पर अधिक नहीं। कुछ दिन फ़ाक़ा-परस्ती के बाद ईमानदारी का भूत उतर गया।
रिश्तेदार बड़े छदमी थे। हालात बदलते ही प्रकट होने लगे।
तीन को तेरह करने में माहिर हो गया था। झूठ में डिग्री धारी। वह पहले जब सच बोलता था तो उसे ख़ुद पर ही विश्वास नहीं होता था कि वह सच बोल रहा था। और अब झूठ बोलता, उसे क्या सुनने वाले को भी विश्वास हो जाता।
पर जिस बात की चर्चा आम हो गई, वह राशन का मामला था। गाड़ी, कोठी का मालिक होने पर भी राशन का अनाज और अन्य सुविधा बिना डरे प्राप्त करता था। किसी ने शिकायत कर दी। जुगनू को तब पता चला जब वह राशन लेने गया।
डिपू वाले ने राशन देने से इन्कार कर दिया। कहा, “कार्ड कट गया है। ‘पीछे’ से लिस्ट आई थी। पच्चीस कार्ड कटे हैं।”
“आपके हाथ में कुछ नहीं है क्या?”
“आमदनी का चक्कर होगा। दफ़्तर जाकर चैक करवा लो।”
राशन लेने और लोग भी आए थे। डिपू वाले और जुगनू में बहस हो गई। वह कार में राशन लेने आया था। सब लोगों को इस ‘अमीर’ ग़रीब का पता चल गया। क़स्बे में चर्चा थी। एक आधा ख़ैर-ख़्वाह भी बन गया। उस दिन उसे ज्ञात हुआ कि वह ग़रीब नहीं रह गया था।
पुराना कार्ड रद्द हुआ। आमदनी बढ़ने का जुगनू को आज अफ़सोस था।
कल से दुबारा ‘ग़रीब’ बनने के लिए सरकारी दफ़्तर के चक्कर काटने होंगे। असल में ग़रीब था वह जब राशन मिलता नहीं था। अब राशन मिलने लगा था वह आंकड़ों में अमीर हो गया। शायद स्थिति सम्भल भी गई थी। अपनी सच्चाई की घास काटनी थी जुगनू को।
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