अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

इस तरह भी

 

सर्दियाँ दिसम्बर में प्रवेश कर गई थीं। जाड़ा अप्रतिम था। और हवा भी तेज़ चल रही थी। बारिश के आसार थे। बादल आकाश में दस्तक दे रहे थे। कमीज़ पर दो तीन और कमीज़ें चढ़ाने के बाद भी टिल्लू ठंड से काँप रहा था। पर इस ओर वह ध्यान नहीं दे रहा था। उसे तो जल्दी-जल्दी कूड़ा बीनने का काम निपटाना था। आसमान की तरफ़ देखता। ‘बारिश न हो’ यह इच्छा मन ही मन दोहराता। कमीज़ें भी फटी पुरानी थीं। कोई ढंग की थोड़े थीं। तन ढँकना हो जाए। शायद सर्दी को चकमा देने का तरीक़ा सोचा था। 

दोपहर के अन्त होने तक वह काम में जुटा रहा। बड़े कबाड़ी के पास अपना इकट्ठा किया ‘मूल्यवान’ कबाड़ पहुँचा देना चाहता था। उसके लिए वह कबाड़ मूल्यवान ही था। पेट की क्षुधा मिटाने के लिए कुछ पैसे मिलते। वह क्षुधा ठंड से भी भयंकर थी। 

दाम मिले और बादलों के कारण शाम जल्दी आने को व्याकुल थी। टिल्लू अपनी झुग्गी की तरफ़ बढ़ा। वहाँ उसका छोटा भाई प्रतीक्षारत था। वह छोटा भी बड़ा हो गया था। अभाव में शीघ्र सूझ-बूझ लाने की क्षमता है। और टिल्लू भी कहाँ अधिक बड़ा था। वह तेरह के आसपास होगा। क्या पता उससे भी कम। 

साथ लाई खाने की वस्तुओं को टिल्लू और उसका भाई मिल बाँट के खाने लगे। 

छोटे ने खाना खाते हुए कहा, “भाई, मुझे भी एक थैला ला देना मैं भी कबाड़ का सामान इकट्ठा करूँगा। साथ वाला पिंटू मेरी उम्र का ही है। वह भी तो काम पर जाने लगा है।”

टिल्लू आश्चर्य से अपने भाई को देखने लगा। उसने कुछ नहीं कहा। फिर अनवरत खाना खाने लगा। दोनों भाई कुछ देर बाद सो गए। पुराली के ऊपर फटी पुरानी चादर बिछा और ओढ़ कर। 

अब दोनों भाई सुबह ही कबाड़ बीनने झुग्गी से निकल जाते। शाम होने से पहले वापस लौट आते। 

एक दिन शायद छोटा दूर चला गया पिंटू के साथ। शाम को टिल्लू कबाड़ की दुकान पर ही प्रतीक्षा कर रहा था। छोटे के पहुँचने पर उसे चैन पड़ी। 

“कितनी देर से बैठा हूँ। लाला भी आँखें निकालने लगा था। कहाँ रह गया था तू?”

छोटे ने लेट होने का सारा आरोप पिंटू पर मढ़ दिया कि वह ऐसी जगह ले गया जो दूर थी, ज़्यादा कबाड़ मिलने की आशा में। पर मिला कुछ अधिक नहीं। 

“भाई, ठंड बहुत लगती है। कोई कपड़े . . .,” कहते-कहते छोटू चुप हो गया। टिल्लू के ऊपर दो कमीज़ें रह गई थी फटी पुरानी। तीसरी छोटे को पहना दी थी। 

दो झुग्गी छोड़ कर एक बुढ़ी अम्मा रहती थी। वह सारा दिन झुग्गी पर ही रहती। कुछ झुग्गी वाले उसके पास अपने बच्चे छोड़ जाते। पहले छोटू भी वहीं उसके पास दिन गुज़ारता था। वह तरह-तरह की कहानियाँ सुनाती। कई तरह की। अभी बहुत दिन से छोटू उसके पास नहीं आया था। उसे पता चल गया था कि छोटू बड़ा हो गया था। वह कुछ नहीं बोली; उसे पता था ग़रीबी का अर्थ। 

रात भर ठंड से काँपते हुए बिताई। देर तक बाहर रहने के कारण छोटू को बुख़ार चढ़ गया था। टिल्लू को काम पर जाना था। रुकता तो शाम को फ़ाक़े करने पड़ते। और फिर छोटू को दवा भी दिलवानी होगी। 

आज ठंड का पारावार था। उस बूढ़ी अम्मा को छोटू की स्थिति बता कर, टिल्लू कबाड़ इकट्ठा करने चला गया। जाने से पहले वह बिना दूध की चाय बना बन्द खाने को दे गया था। 

शाम को आते हुए। कैमिस्ट की दुकान से बुख़ार की दवा ले आया था। आराम करने से पहले से बेहतर अनुभव कर रहा था छोटू। 

आज क्रिसमस का दिन था और अम्मा ने एक बाबा के बारे में कहानी सुनाई थी जो सबको आज उपहार देता। 
खाने के बाद दवा लेकर छोटू ने अम्मा की कहानी के बारे में टिल्लू को बताया और पूछा, “क्या बाबा हमारे पास नहीं आ सकते?”

टिल्लू इतना बड़ा नहीं था। पर उसने अपने आँसू पलकों पर रोक लिए। छोटू के सोने के बाद वह फूट-फूट के रोने लगा। 

अम्मा भी छोटू का हालचाल पूछने आ गई थी। टिल्लू को रोता सिसकता देख उसका गला भर्राया। बात पता चलने पर वह अपनी कही कहानी पर पछताने लगी। वह स्वयं विवश थी। उसे दो टाइम के खाने के लाले पड़े हुए थे। वह क्या सहायता कर सकती थी। 

बाहर थोड़ी देर में शोर हो हल्ला मचने लगा। पता किया कोई संस्था लोगों से पुराने कपड़े इकट्ठे करके यहाँ बाँटने आई थी। बुढ़ी अम्मा ने देखा और लगभग भागते हुए टिल्लू के पास आई, कहा, “छोटू को उठा। वह बाबा आए हैं।”

बुढ़ी अम्मा बड़ी प्रसन्न थी। उसकी कहानी जैसे यथार्थ हो गई थी। एक अजीब सी प्रसन्नता। इतने वर्षों में कभी ऐसा नहीं हुआ। सान्ता क्लॉज़ की पोशाक में कोई उपहार के रूप में कपड़े बाँट रहा था। छोटू को भी गर्म कपड़े मिल गए। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

......गिलहरी
|

सारे बच्चों से आगे न दौड़ो तो आँखों के सामने…

...और सत्संग चलता रहा
|

"संत सतगुरु इस धरती पर भगवान हैं। वे…

 जिज्ञासा
|

सुबह-सुबह अख़बार खोलते ही निधन वाले कालम…

 बेशर्म
|

थियेटर से बाहर निकलते ही, पूर्णिमा की नज़र…

टिप्पणियाँ

अरूण कुमार प्रसाद 2024/12/22 09:14 AM

त्रासद भरी है जिन्दगी।जानते सब हैं।विद्रोह न होना दुखद है।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सजल

नज़्म

कहानी

ग़ज़ल

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं