अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

जिसने तराजू की बात की है 

 

जिसने तराज़ू की बात की है, 
उसने बियाबान में रात की है। 
 
ख़िलाफ़ हो गए हैं सब लोग, 
सच की जो तूने बात की है। 
 
इस अँधेरे की भी क़ीमत होगी, 
कि रोशनी ने फिर रात की है। 
 
फ़ासले ख़ुद-ब-ख़ुद बढ़ने लगे, 
मुफ़लिसी से जब मुलाक़ात की है। 
 
थक के बैठे हो क्यों दूर मयकदा, 
तंज़ की लोगों ने अभी शुरूआत की है। 
 
सब यहीं जब छोड़ जाना है तुझे, 
इतनी चीज़ें क्यों बता साथ की हैं। 
 
सावन भी हैरानी में है मुब्तला, 
कल आँखों ने ऐसी बरसात की है। 

भीड़ में अकेला देखता रहा ख़ुद को, 
पर आज अपने से अपनी बात की है। 

जब अकेले ही जाना था वहाँ, 
फिर जाने क्यों यहाँ बारात की है। 
 
मुब्तला= कष्ट या विपत्ति में पड़ा हुआ, दुख, संकट आदि से ग्रस्त, व्यस्त
मुफ़लिसी= निर्धनता

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

सजल

नज़्म

कहानी

ग़ज़ल

लघुकथा

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं