मैं भी तमगे लगा के फिरता हूँ
शायरी | सजल हेमन्त कुमार शर्मा15 Aug 2024 (अंक: 259, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मैं तमगे लगा के फिरता हूँ,
अपनी नज़रों में कितना गिरता हूँ।
सारे जग की बात करने पर,
अपने किरदार से मुकरता हूँ।
पत्ते जब सूख जाते हैं झड़ते हैं,
हरे पत्तों के गिरने से डरता हूँ।
एक मत मेरा भी था अफ़सोस,
यह अफ़सोस कई दफ़ा करता हूँ।
गाँव के मसले शहर में हल होते हैं,
शहर दर शहर वफ़ा करता हूँ।
गैस डीज़ल पैट्रोल के रेट बढ़े चिन्ता क्या,
उस मत के प्रति आँखों में ख़ून भरता हूँ।
रास्ता पूरा पड़ा बैठ जाएँ,
क्या अजीब बात मन से करता हूँ।
जीने के लिए बेईमानी नहीं करता,
यह तो ऐसे जैसे जीता ही मरता हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सजल
कविता
- अगर जीवन फूल होता
- अब इस पेड़ की बारी है
- एक पटाखा फूट गया
- और भी थोड़ा रहेगा
- कहते कहते चुप हो गया
- काग़ज़ की कश्ती
- किसान की गत
- क्या हो सकता है क्या होना चाहिए
- क्षण को नापने के लिए
- खिल गया काँटों के बीच
- गाता हूँ पीड़ा को
- घन का आँचल
- जानता हूँ कितना आज्ञाकारी है
- जीवन की पहेली
- जीवन में
- तुम चाँद हो
- तू कुछ तो बोल
- दरिया है समन्दर नहीं
- दिन उजाला
- देखते। हारे कौन?
- नगर के अरण्य में
- नगर से दूर एकांत में
- नदी के पार जाना है
- पर स्वयं ही समझ न पाया
- पाणि से छुआ
- पानी में मिल जाएँगे
- पीड़ा क्या कूकती भी है?
- प्रभात हुई
- प्रेम की कसौटी पर
- बहुत कम बदलते हैं
- बहुत हुई अब याद
- बूँद
- मन इन्द्रधनुष
- मन की विजय
- मुझे विचार करना पड़ता है
- मेरा किरदार मुझे पता नहीं
- मैं भी बच्चे की तरह रोना चाहता हूँ
- राम का अस्तित्व
- रेत में दुख की
- वर्षा
- वो साइकिल
- शहर चला थक कर कोई
- सब भ्रम है
- साधारण रंग नहीं है यह
- सितम कितने बयाँ
- सुहानी बातें
- हद वालों को बेहद वाला चाहिए
- ख़ुदा इतना तो कर
ग़ज़ल
लघुकथा
कहानी
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
नज़्म
सांस्कृतिक कथा
चिन्तन
ललित निबन्ध
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं