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ईंट की व्यथा

 

होश आने पर टूटे मकान की ईंट चिल्ला पड़ी थी। कई वर्षों से एक मकान के रूप में प्लास्टर के भीतर छुपी बैठी आरामपरस्त हो गई थी। पर एक इत्मीनान भी था अपने होने का या उसे घमंड कहें। ‘हूँ’ ही तो अहंकार है। 

आज बाहर का वातावरण देख घबरा गई। कुछ व्यक्ति लाठी हाथ में लिए चमके। बड़ी मशीन, लोहे का पँजा सा। पास खड़ा कोई व्यक्ति बिखरता रोता। ध्यान से देखा यह वही तो है जिसने कुछ वर्ष पहले भट्टे से उसे चुना था, मकान का एक हिस्सा बनने के लिए। 

ईंट थरथरा पड़ी ‘इसकी क्या दशा हो गई है’। वह अपनी गत भी भूल गई। 

बहुत लोग इकट्ठे थे। किसी के हाथ में काग़ज़, आँखों में हेकड़ी थी। परन्तु उसका क्रय करने वाला मायूस एक कोने में खड़ा था। 

शायद काम निबट गया। भीड़ चली गई। वह व्यक्ति रुआँसा उसकी ओर बढ़ा और हाथों में समेट कर अपने मैले-कुचैले परने में उठा लिया। कुछ और इंटें भी साथ ली। 

किसी ने पूछा, “क्या करते हो?” 

उसने कहा, “चूल्हा बनाऊँगा। शाम का भोजन बनाना ही पड़ेगा। मकान नष्ट हुआ है, भूख नहीं।”

ईंट तपने के लिए तैयार थी। कम से कम वह कुछ खा तो पाएगा। 

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