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इधर-उधर की

 

“किसान ने नहीं देखा?” 

“देखा था, धुँधला। शायद मोतिये का असर था।”

“फिर . . .?” 

“फिर क्या। अब और वर्ष भुगतो।”

“बारिश का क़हर है। कल ही प्लास्टिक की तिरपाल लेकर आया। छत पर डाल दी है। बरसात तो निकालनी ही है।”

“और वह प्लाट जो सरकार ने आवंटित करने थे?” 

“अरे शुक्र मनाओ। बचे-कुचे पैसे अधिकारियों के भेंट नहीं चढ़े।”

“हाँ तुम्हारी बात भी सही है।”

” पर सामान्य-जन क्या देख नहीं पाए?” 

“उनका ताज़ा-ताज़ा मोतिये का ऑपरेशन हुआ था।”

“भई वाह! एक को मोतिया और एक का ऑपरेशन। देखता कौन है?” 

“जो देखते हैं—वह बलहीन हैं, धनहीन हैं और ज़ुबान दराज़। जिन्हें चुप रहने के लिए सज़ा दी जाती है। पर वह गधे चुप नहीं रहते।”

“और तुम?” 

“किसानी छोड़ दी है। मज़दूरी करते हैं। अब मालिक के ख़िलाफ़ नहीं बोलते। और यह हज़ार हाथों वाले हैं—इनका क्या मुक़ाबला। और . . . और, अपने इष्ट पर भी विश्वास नहीं हमें। उसके चार हाथ हैं। भला हज़ारों हाथों को क्या चुनौती दे पाएँगे। सो उसको भी कल आख़िरी नमस्ते की, हाथ जोड़े, आने-जाने का मार्ग बदल लिया—सामने आने पर विनम्र होना पड़ेगा।”

“देसी बोलते-बोलते लहजा प्रौढ़ और उच्च बन गया है।”

“ऐसे ही समझते हो। हिन्दी में एम.ए. की है। मज़दूरी—आवश्यकता पूरी करने के लिए। बच्चे भी पालने हैं। क्या भूखों मारने हैं?” 

“पढ़ा रहे हो उनको?” 

“वैसे वर्षों के अनुभव से मेरी राय पढ़ाई के पक्ष में नहीं है। सब अमीरों के लिए आरक्षित है—यह आरक्षण आदिकाल से चला आ रहा है।”

 प्रश्न कर्ता मूक हो गया। अपने घर की ओर रवाना हुआ। 

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