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रंग भिन्न अर्थ में

 

रंगने वाला रँग ही देगा। क्या किसी का इन्तज़ार है? नहीं, बस हमारी तैयारी मुकम्मल नहीं है। रंग को झेलने का माद्दा भी तो होना चाहिए। सोख लेना भीतर तक। रंग अन्दर–बाहर दोनों पर्दों पर जी-भर कर प्रदर्शित होगा। आतुरता अधिक ही नहीं अत्यधिक, अत्यंत गंभीर होनी चाहिए। यों नहीं कि मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो कोई गिला नहीं। अनुकूलता प्राप्त होने तक का इन्तज़ार; और जीवन में अनुकूलता? प्रश्नचिह्नित और आश्चर्यान्वित करने वाला विचार है। प्रतिकूलता ही रंग को उद्वेलित करती है और करेगी—करना भी चाहिए। कर्त्तव्य विहीन जीवन अधिकार का प्राप्तकर्ता नहीं है। हक़ का दिवाला पिट गया है। कर्त्तव्य गौण हो गया है। शासन के पास हक़ है और कर्त्तव्य . . . जन का विचार। हक़ मिलेगा नहीं—कर्त्तव्य करने का बोध नहीं। सो रंग फीका ही रहेगा या चढ़ेगा ही नहीं। एक दूसरे पर दोषारोपण होता रहेगा।

रंग के लिए रँगना ज़रूरी है पर रंग चढ़ने लायक़ चित्त तो हो। भरे विचार इतने भ्रामक हैं टिकने ही नहीं देंगे। पहले कुछ ख़ाली होगा तभी भीतर समाएगा। 

‘अधिक जानता हूँ’ का भ्रम ही आगे बढ़ने में रोड़ा है। जानने पर ही बोध होगा; अभी बहुत शेष है जिसे जाना नहीं गया। 

सिर ही सब गर्वित विचारों का पिटारा है। पीने को आतुर। पर कलाली उसे ही प्याला देगी जो बदले में सिर डाल देगा। गुरु रविदास का यही अभिमत है और अन्य बात कहने को शब्द नहीं हैं। रंग कोरे पर ही चढ़ता है। यही जानने की चेष्टा करनेवाले का परमकर्त्तव्य है। जो अधिकार की जननी है। आगे फिर। 

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