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जन जाए भाड़ में

 

 

सारी बात पर विचार करने के बाद मियाँ जी ने पादा जी को कहा, “हाँ, हाँ-बस साधना करने का प्रयास भर है। लोग यूँ ही इल्ज़ाम धरते हैं। इबादत करने गए हैं साहब। क्या यह करना कोई जुर्म है?”

“अरे बाबा, मैं मन्दिर से घर दस मिनट भी अगर लेट पहुँचूँ, पत्नी जी फोन करके सिर खा लेती हैं—लड़ पड़ती हैं और यह जश भाई दस दिन विपश्यना करने गए हैं!” पादा जी ज़रा कुछ और मूड में थे आज।

“सवाल का जवाब देना उनको कठिन पड़ रहा था। ख़ुद कितने सवाल करते थे—यह काम, वह काम नहीं हो रहा। और वो . . . हाँ, याद आया . . . भ्रष्टाचार किस चिड़िया का नाम था . . . उन्हें ज़रा आजकल याद नहीं है!” मियाँ जी की टोन कुछ व्यंग्यात्मक थी।

“किसी भले मानस के कहने पर अपनी निस्तेज ऊर्जा को तीव्र करने के लिए श्वास के आने-जाने पर दृष्टि रखने का उत्तम विचार मन में घर कर गया या था साहब के।

“असल में उच्च आसन पर अपनी बीमारियों से नजात पाने के लिए ही महोदय विराजमान हुए हैं,” पादा जी बड़े दिन के बाद खुल कर कह-सुन रहे थे।

सर्दी की ढलती हुई धूप थी। शिवालिक की पहाड़ियों के पीछे सूरज सोने जा रहा था। इस माहौल में चाय बिस्कुट का मेल और राजनैतिक गपशप का नमक-सोने पर सुहागा।

“छोटू को कुछ दिन पहले साइकिल लाकर दी थी। चेन बार-बार उतर जाती है। मैकेनिक को दिखाई उसने दो सौ का बिल थमा दिया। साइकिल अभी तक ठीक तरह से चल नहीं रही है। एक पैसा नहीं देता मैकेनिक को। दो बार फोन कर चुका है, मैं भी ‘आता हूँ आता हूँ’ कह कर फोन रख देता हूँ। जब तक अच्छी तरह से ठीक नहीं कर देता रुपया भी नहीं देने वाला,” पादा जी ने बात बदली।

“वो पैसे तो देने ही पड़ेंगे। काम करवाया है,” मियाँ जी ने छेड़ते हुए कहा।

“हें, हें, हें। ऐसे कैसे जब कोई वस्तु मरम्मत करके भी सही नहीं हुई। वह पैसे का हक़दार कैसे है? तुम्हारे पैसे हैं क्या मियाँ जी।

“तुम मित्र कम, ग़ैरों की तरह बर्ताव करने लगे हो।”

“देखो, बेंगलोर मैं जा नहीं सकता। जेब में इक्कनी भी नहीं है। और फिर अब खाँसी तो ठीक है। ‘ठंडी चाय’ से कुछ ज़्यादा ही आराम आ गया है और तुम्हारी रुक्किया भाभी को वैसे ही घूमने फिरने से एलर्जी है अपने पालतू खच्चर और बूढ़ी गाय की सेवा में मुब्तला रहती है। फ़ालतू बात दिमाग़ में आती नहीं है। उसको भी घूमने का कोई ज़रूरत वाला काम नहीं सो अपन स्वतंत्र हैं।”

“हाँ, तुम्हारे कहने से लगता तो है ही।”

“लगता है ही? मतलब?”

“वो ही आजकल विपश्यना का ज़ोर है। दिल्ली ‘आम’ ख़ास व्यक्तियों को इसका शौक़ चढ़ा है। जन जाएँ भाड़ में, हम खाएँ आड़ में।”

“तुम पादा जी, अपने सुर पल-पल में बदल रहे हो। क्या किसी टोपी-वोपी को तो पहन नहीं आए हो?”

“ना, ना भले मानुष। ऐसी बात मत कहना। मन घबराता है। वह बस एक बात मस्तिष्क में गोते खा रही थी—विपश्यना ध्यान करने की विधि है या बचने की। उत्तर निरुत्तर हो गए हैं।”

“कहने के लिए कुछ बचा ना हो, फिर यही कुछ करना होता है,” कहते ही मियाँ जी उठ पास मुर्गियों को दाने डालने में व्यस्त हो गए।

पादा जी कुर्सी पर टाँगें समेट कर बैठे थे, शून्य में निहारते।

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