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सब अपनी कही पत्थरों से

 

सब मित्र यहीं खो बैठा हूँ, 
पैसों को जब खो बैठा हूँ। 
 
सब अपनी कही पत्थरों से, 
यह पत्थर मन में ढो बैठा हूँ। 
 
दिन की सुध न रात का पता, 
जो सब का उसका हो बैठा हूँ। 
 
वह उस किनारे पर रहता है, 
मैं इस किनारे पर रो बैठा हूँ। 
 
पाल लिए हैं दो चार ग़म भी, 
यानी प्रेम के बीज बो बैठा हूँ। 
 
रब्ब के पास बही खाता है, 
चाहे अपने हाथ धो बैठा हूँ। 
 
इस निरीह मन को क़त्ल किया, 
अब पीर फकीरों में सौ बैठा हूँ। 

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