अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

शाम ग़म से भरी

 

फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212    212
 
साफ़ दिखते नहीं, 
साफ़ छुपते नहीं। 
 
याद आने लगे, 
याद करते नहीं। 
 
शाम ग़म से भरी, 
नैन बहते कहीं। 
 
रो गया कुछ यहाँ, 
हाथ मलते नहीं। 
 
साफ़ मन को लिये, 
आह भरते नहीं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 कहने लगे बच्चे कि
|

हम सोचते ही रह गये और दिन गुज़र गए। जो भी…

 तू न अमृत का पियाला दे हमें
|

तू न अमृत का पियाला दे हमें सिर्फ़ रोटी का…

 मिलने जुलने का इक बहाना हो
|

 मिलने जुलने का इक बहाना हो बरफ़ पिघले…

टिप्पणियाँ

मधु 2025/10/16 12:41 AM

हेमन्त जी, इतने सही तरीक़े से इतनी गहरी बात को आसान कर समझाने के लिए मैं आपकी आभारी तो हूँ ही, और उससे भी ज़्यादा शर्मिंदा भी, इसलिए आपसे माफ़ी भी माँगना चाहूँगी। कविताओं के साथ-साथ आपकी शेर-ओ-शायरी का स्तर बहुत ही ऊँचा है। और कहाँ मैं, जो शायरी के मामले में बिल्कुल अनाड़ी है। इसीलिए रदीफ़ के नियमों के चक्कर में पड़कर 'कहीं' की जगह 'नहीं' पढ़ लिया। हालाँकि एक बार आदरणीय सम्पादक महोदय जी ने भी समझाया था कि ग़ज़ल बिन रदीफ़ के भी हो सकती है। आशा है मेरी ग़ुस्ताख़ी को आप नज़रअंदाज़ कर देंगे।

हेमन्त 2025/10/15 03:08 PM

मधु जी, आपने मेरी रचना को पढ़ा, उस पर टिप्पणी की, इसके लिए हृदय से धन्यवाद। बहुत सी रचनाएँ उपेक्षा का शिकार हो पढ़ने वाले की बाट जोहती रहती हैं। रचनाकार के लिए यही सबसे बड़ा पारितोषक कि कोई उसकी रचना को सही से बांच ले। आपने कुछ शब्दों की ओर संकेत किया है। जैसे 'नहीं' शब्द का। 'कहीं'शब्द से दो हृदयों का वृत्तांत है।एक हृदय विरह से रो उठता है। दूसरा गंभीर भग्न हृदय को ले मूक। हृदय टूक टूक हुआ जाता है। फिर कभी अपने को ढांढसा बंधा कर मन कह उठता है - रोया था पर कुछ ही। अधिक रोने का लाभ भी नहीं था।जो वियोग या कोई घटना घटी उस पर अब मातम ही मनाते रहें क्या?सो हाथ मलते नहीं। पछतावा करना व्यर्थ है। मधु जी रचना को गहराई से पढ़ने पर आपका धन्यवाद। --हेमन्त।

मधु शर्मा 2025/10/14 03:02 PM

वाह बहुत ही उम्दा। इतनी छोटी बह्र वाली ग़ज़ल बहुत कम पढने को मिलती हैं। वैसे 'नैन बहते नहीं' मिसरे में शायद भूल से 'नैन बहते कहीं' टाइप हो गया लगता है, और एक दूसरे मिसरे में शायद 'खो गया कुछ यहाँ' होना चाहिए।

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सजल

कविता

ग़ज़ल

कहानी

लघुकथा

नज़्म

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

सांस्कृतिक कथा

चिन्तन

ललित निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं