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प्रकृति का सानिध्य

 

परेश उकता गया था। प्रतिदिन की एक दिनचर्या। कोई फेरबदल नहीं था। वही सुबह उठना। काम पर जाने की तैयारी करना और सारा दिन जी-तोड़ मेहनत के बाद थके हारे घर लौट आना। बासी अख़बार पढ़ना। सुबह समय नहीं मिलता। 

खाना खाने के बाद सो जाना। इस चक्रव्यूह से निकलने की कभी सोच नहीं पाता। सोचने के लिए समय तो चाहिए। वह समय अभी नहीं आया था। 

सब किसी न किसी यात्रा पर थे। पड़ोसी भी गर्मियों की छुट्टियाँ बीता कर लौट आए थे। चाहे किसी भी तरह हो। संबंधियों के सहारे चाहे आप पैसे ख़र्च करके। 

गाँव के अधिकतर लोग ट्रेक्टर ट्रॉली में या ट्रक या फिर युटिलिटी गाड़ी से अपने इष्ट देवी देवताओं के दर्शन करने निकल पड़ते। चिंतपुरनी, कांगड़ा देवी, टोनी देवी, नयना देवी, बाबा बालक नाथ आदि आदि और अपने कुल की देवी का दर्शन कर लेते थे इस दौरान। कुछ बस बुक कर लेते अलग-अलग स्थानों की यात्रा के लिए। हिमाचल में अधिकांश स्थल थे। बरसात के पहले से यह टूर चल पड़ता था। खाने-पीने की व्यवस्था के साथ और फिर मार्ग में लंगर की व्यवस्था भी होती थी। वहाँ भी कभी परसादा छक लिया जाता। 

मार्ग मनोहारी छटा से पटा रहता। हरियाली सर्वदिक्। 

हल्की हल्की बारिश। कभी ज़ोर-ज़ोर के। गर्मी भी। बरसाती नदियों में उफान। कहीं-कहीं पुल की व्यवस्था नहीं। पानी उतरने का इन्तज़ार किया जाता आगे बढ़ने के लिए। 

निजी गाड़ी से भी सपरिवार लोग निकल पड़ते। इस समय धर्मशालाओं में भीड़ रहती। 

परेश के मित्र ने उसे भी इसी यात्रा के लिए न्योता दिया। पहले पहल उसने न कर दी। ख़र्च कुछ नहीं होगा। 

‘रास्ते में लंगर लगाना है। ट्रक कर रखा है। कुल देवी के दर्शन हो जाएँगे।’

ख़र्चा सारा आने-जाने, लंगर का उसका मित्र कर रहा था। अमीर था—हो गया था। पर अपने पुराने मित्रों से बना कर रखता था। पैसा सिर पर नहीं चढ़ने दिया था। आश्चर्य की बात थी, कुछ अपवाद भी होते हैं। और लंगर अकेले के वश का नहीं था। बरताने वाले भी तो चाहिएँ। 

मित्र के पीछे पड़ने पर परेश को सपरिवार जाना पड़ा। 

सात दिन का टूर था। फ़ैक्ट्री में बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिल पाई थी। मैनेजर के बहुत तरले करने पड़े तब जाकर कहीं पाँच दिन की छुट्टी मिली। शनिवार को बिना बताए छुट्टी मार ली। शनि, इतवार और सोमवार से पाँच अवकाश। इस तरह सात दिन पूरे किये। 

घर वापसी पर सब थक गए थे। शुक्रवार शाम को पहुँच गए थे। सुबह समय पर उठ कर परेश काम पर जाने के लिए तैयार हो गया था। पत्नी, बच्चों को कोई तंग नहीं किया था। उन्हें आराम करने दिया। एक प्रफुल्लता-सी मन में थी। बाहर ही नाश्ता कर लेगा। यह सोचकर वह कार्य पर निकल गया। वर्ड्सवर्थ की यह बात बार-बार ज़ेहन में आती रही कि प्रकृति में कुछ दिन बीता कर फिर से जीवन के मैदान में उतर जाना चाहिए। नयापन लेकर। 

आज इस बात को अनुभव भी कर रहा था परेश। जीवन संघर्षों से भागना क्या। नई शक्ति प्रदान करती है प्रकृति। 
 

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