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विजेता 

 

बोतल हाथ से गिरकर टूट गई, लड़खड़ाते हुए चंदी सिंह महाविद्यालय की ओर बढ़ा। एक कक्ष के सामने रुककर अपना परिचय दिया, तो चंदी सिंह को आश्चर्य हुआ कि प्रोफ़ेसर के चेहरे पर न तो चकित का भाव आया और न आँखों में डर। 

चंदी सिंह का आहत-अहं कुनमुनाया, उसे दबाते हुए उसने प्रोफ़ेसर से कहा, “मैं तुम्हारी क्लास का मुआयना करूँगा।”

“क्या?” प्रोफ़ेसर चौंका। प्रोफ़ेसर के लिए यह स्थिति घड़ों पानी पड़ने जैसी थी कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी प्रबंध समिति में चुनकर उसकी क्लास जाँचने आया है। 

अपने छात्रों की प्रतिक्रिया देखे-जाने बग़ैर प्रोफ़ेसर ने शिष्टाचार के लिहाज़ से उसे बड़े आदर से कहा, “आइये प्लीज़ . . .”

चंदी सिंह ने अपनी जगह बनाते हुए प्रोफ़ेसर को ज़रा-सा धकेला तो प्रोफ़ेसर क्लास से बाहर आ गया। 

चंदी सिंह ने छात्रों पर ऑंखें जमाए कहा, “परीक्षा में नक़ल की सुविधा है?” 

छात्रों का समवेत स्वर गूँजा, “हाँ जी!”

सुनकर चंदी सिंह अपने पूरे मामूलीपन में तब्दील होते हुए मुस्कुरा पड़ा, और बाहर आकर प्रोफ़ेसर को कंधे से आश्वस्त किया। प्रोफ़ेसर ने एक पव्वे के पैसे दिए और बाक़ायदा गेट तक आकर विदा किया। 

चंदी सिंह की विदाई एक विजेता की विदाई जैसी थी। 

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टिप्पणियाँ

Pawan Kumar Bhati 2025/06/01 10:44 AM

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर एकदम सटीक कहानी

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