हम ख़तरा हैं?
कथा साहित्य | लघुकथा भीकम सिंह1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
एकाएक मैंने देखा तो वह मुस्कुरा रही थी। मैं उसे देखने लगा। उसने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया। जल्द ही ना जाने क्यों मुझे लगा कि शायद वह मुझसे नमस्ते नहीं कर रही है, बल्कि मेरे पीछे आ रहे प्राचार्य संजीव को कर रही है। मैं सिर्फ़ उसके और प्राचार्य के देखने के बीच में आ गया। मैंने पलटकर देखा प्राचार्य धीमे से आभार में मुस्कुराया था और मैं शर्मिंदगी में।
इसके बाद उसने प्राचार्य के कान में कुछ कनाफूसी की, उसके बाद प्राचार्य ने मुझे पुकारा, “अरे मियाँ! तुम्हारा कोई बच्चा पढ़ता है यहाँ?”
“नहीं।”कहकर मैं चल पड़ा, तो कुछ छात्र मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मैंने कोई चोरी की है।
लॉन में खड़े प्रोफ़ेसर की नज़र पे मेरी तरफ़ बस यही कौतुक था कि आख़िर बात क्या है . . .? जबकि मैं तो नमाज़ के बाद इस महाविद्यालय में सुकून और शान्ति के कुछ पल गुज़ारने आता हूँ, जो प्राचार्य संजीव की मेहनत और जानकारी का नतीजा है . . . मैं तो यहाँ लाल, गुलाबी, सफ़ेद, चंपई फूलों के साथ परिंदों (गौरेया, फ़ाख़्ता, कोयल) के कोलाहल और गुंजन-भरी क़वायद के सौंदर्य को समीप से निहारने ही आता हूँ, पता नहीं मेरी गोल टोपी देखकर लोग क्या मतलब निकालते हैं . . . और निकालते भी हैं तो भला उसमें उनका क्या दोष है, क्योंकि हमारे राजनैतिक फ़तवों ने मुझ जैसे मुसलमान को तन्हा कर दिया, और मुझ जैसे हिन्दुओं के दिमाग़ में घृणा की ऐसी भट्टी सुलगा दी कि मेरे जैसा सेवा निवृत्त शिक्षक भी आउट साइडर हो गया।
फिर मैंने हाथ ऊपर उठाए, “अल्लाह हमें (हिन्दु-मुस्लिम) इल्म अता फरमाए . . . आमीन!”
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