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बड़ी बात

 

घुटने-घुटने पड़ी बर्फ़ देखकर एक बार तो हम घबरा गए कि कैसे केदार कांठा सम्मिट पोंइट तक पहुँचेंगे। हम कुछ पल खड़े होकर पेड़ों के ऊपर गिरते बर्फ़ के फोहों को देखते रहे, चलें ना चलें? के असमंजस में पड़े। 

“यूँ देखने से कुछ नहीं होगा, सूरज के जागने का समय होने वाला है, फिर रास्ता भी स्लिपरी हो जाएगा,” हमें दुविधा में पड़े देख गाइड ने कहा। 

संजीव वर्मा ने हैरानी के साथ गाइड को देखा। 

गाइड ने फिर कहा, “चलो जल्दी करो, वो आँख उठा रहा है, ट्रैकर का लिहाज़ करता है, इसलिए . . .”

गाइड के शब्द सुनकर हमेंं ऐसा लगा जैसे सूरज का प्लानर उसके हाथ में है, और वह उसे पढ़ रहा है। 

हमने पहाड़ी के पार झाँका, सच में सूरज निकलने की राह बना रहा था, पहले उसने किरणें निकालनी शुरू की हैं। बर्फ़ से फिसलकर हमारी दृष्टि सूर्य किरणों पर चली गई और हम सभी की स्मृतियों में सूरज का सुर्ख़ चेहरा खिल पड़ा। हम कुछ पल तक सूरज को देखते रहे और फिर अपनी दृष्टि सूरज से हटाकर लगातार पड़ रही बर्फ़ की ओर कर ली, फिर से सूरज की ओर नज़र घुमा ली और टस से मस नहीं हुए।

‘अच्छा! मरो यहीं!’ गाइड के मन में आया, पर उसने ये शब्द कहे नहीं। 

उसने कहा, “रबीन्द्रनाथ टैगोर मानते हैं कि जीवन की गुणवत्ता नापने का बेहतरीन तरीक़ा यह है कि आप यह आकलन करें कि आपने कितने पहाड़ देखे और उनमें कितनों पर उगता सूरज देखा, . . . तो समझ लीजिए आज आपने गुणवत्तापूर्ण दिन जिया।”

हम सभी गाइड की ओर देखकर कहने लगे, “वाह! अद्भुत, फिलासफी . . .“

संजीव वर्मा बीच में ही बोल उठा, “वो कहते हैं ना, छोटा मुँह और बड़ी बात।”

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