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रामलाल चोर 

 

जैसे ही माननीय प्रतिमा अनावरण के लिए मंच पर आये कि कार्यकर्ताओं का हुजूम जो पहले से ही मंच के लिए प्रतीक्षा में खड़ा था, पगलाए घोड़ों की तरह एक दूसरे को पीछे छोड़ते हुए माननीय के बराबर वाली कुरसी पर बैठने की क़वायद में लग गया। रामलाल ने किसी तरह बराबर वाली कुरसी हथिया ली। 

माननीय को शिलापट्ट पर कुछ असंवैधानिक लिखा होने की सूचना मिली तो माननीय का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। मंच से दूर पांडाल में कुछ हलचल हुई। भीड़ से जाति विशेष के नारे एक लय में उछलने लगे, फिर नारों में आक्रोश छटपटाने लगा। 

“रामलाल! असंवैधानिक लिखे पर कालिख लगाओ वरना मैं अनावरण नहीं करूँगा . . . यह सब तुम्हारा खेल है?” माननीय उबल पड़ा।  माननीय को लगा यह लिखकर उनके सवर्ण दर्प और पद की खिल्ली उड़ाई है।

“सर! मैं जानता हूँ आप माननीय हैं, परन्तु मंच पर ऐसे तो ना हड़काओ?” रामलाल विनय भाव से बोला। 

“तो क्या तुम जैसों के पैर चुमूँ?” माननीय आँखों में क्रोध की मिर्ची लिए बोला। 

माननीय अनावरण को रुक गया। 

रामलाल ने हिम्मत नहीं हारी, एक बार उसने फिर मिन्नत की। 

माननीय उठा, तो एक उपहास भरी मुस्कुराहट उसके होंठों पर फैल गई। जैसे सामाजिक समरसता के नाम पर सवर्णों में दिखती है। 

“अनावरण कर रहा हूँ . . . इसलिए कि असंवैधानिक पर कालिख पोत दोगे . . .! चोर कहीं के।”

रामलाल को लगा—तेरी तो . . . कहकर माननीय ने उसका गिरेबान पकड़ा हो। 

कार्यकर्ताओं में हलचल मच गई और अख़बारों में बाई लाइन शीर्षक छपे . . . चोर? . . . चोर कौन? . . . रामलाल चोर? 

अख़बार पढ़ते ही रामलाल के भीतर ईर्ष्या, घृणा, अपमान बोध और पराजय के मिले-जुले भाव धुआँ उठे। 

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