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भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 003

 

1.
दबा कुचला
प्यार महक उठे
गूँजे तराना
जब भी कभी खुले
बक्सा कोई पुराना। 
 
2.
बिखर गए
प्रेम की बारिश में
बसन्ती दिन
कटने लगी रातें
तारों को गिन-गिन। 
 
3.
याद करके
गाँव की पगडंडी
हुआ दीदार
तन और मन ज्यों
गाने लगे मल्हार। 
 
4.
वैसे तो प्रेम
हुआ-हवाया नहीं
ना उसे मिला
फिर भी चला जैसे
उसी का सिलसिला। 
 
5.
एक सफ़र
खिलखिलाहट से
शुरू करें क्या
रो-रोकर जी लिया
हँसी-हँसी मरें क्या। 
 
6.
कुछ ना कहे
काँपता रहे तन
छिपाके बैठे
मचलता बसंत
सूखता जाए तन। 
 
7.
मेरी यादों में
हर पल रहती
तेरी भनक
प्रेम भरी रातों की
बीती हुई खनक। 
 
8.
स्नेह से भरे
उड़े ख्व़ाब नींदों के, 
मेरे भीतर 
ढह गए हो जैसे
महल उम्मीदों के। 
 
9.
पोरों से छुआ
सतर्कता के साथ
कई हीरों को
राँझे ने नहीं जाना
हाथ की लकीरों को। 
 
10.
आने जाने के
दिनों में, कहा मैंने
लेके दिनों को
आख़िर कब खोलें? 
इन बँधे दिनों को। 

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