पाजी नज़्में
कथा साहित्य | लघुकथा भीकम सिंह15 Dec 2023 (अंक: 243, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
पश्चिमी कचहरी रोड की उँगली पकड़कर गली तुम तक ले जाती . . . और तुम मिल जाती। वो हमारे एक दूसरे को पाने-खोने के दिन थे। आज मैं याद करता हूँ जब वो बातें . . . बातें? . . . परन्तु तुम कहाँ बोलती थी . . .? हम घंटों बैठे रहते थे . . . यूँ ही एक दूसरे की उपस्थिति को महसूसते। शायद शब्दों की फ़ुज़ूलख़र्ची से बचने के ख़्याल से तुम ऐसा करती थी।
लेकिन ये सब मैं आज क्यों सोच रहा हूँ। मेरा ऐसा सोचने की वजह? मैं ख़ुद को अकेला तो नहीं समझ रहा हूँ। मेरे शुभचिंतकों को निराशा न हो, पहले ही बता दूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है।
तुम्हें याद करने का कारण गुलज़ार की नज़्में हैं, जो तुम्हारे दिए हुए फ़ोल्डर में मिल गयी हैं। मैंने कल पुरानी अटैची को छान मारा जिसमें ये पड़ी थीं। ये नज़्में तुम्हारे प्राण थीं, तुम्हारा किसी को सौंपने का मन नहीं होता था फिर भी सुनील से झगड़ा करके तुमने मुझे ये नज़्में भेंट की थीं।
उन दिनों सुनील दोपहर को ही तुम्हारे घर आ जाता, मौसी से बात करता, तुम्हारे पिता जी के साथ शतरंज खेलता। तुम्हें सुनना उसे पसन्द था। इश्क़ का भूत उस पर कुछ ज़्यादा ही सवार था। अब भला प्यार किसको नहीं होता? प्यार के बिना संसार सम्भव है? उसे भी हुआ, लेकिन उसके प्यार को एक हल्का-सा थपेड़ा जब पड़ा, जब तुमने ये नज़्में मुझे दीं।
उस दिन सुनील बेमन से उठा . . . तुम्हारी आवाज़ ने भी उसका ध्यान नहीं खींचा। मैं अक़्सर हैरान हो जाता हूँ, कितना लम्बा इंतज़ार? चालीस बरस और ये नज़्में। जिन्हें गुलज़ार ने भी ‘पाजी नज़्में’ नाम से पुस्तक रूप दे दिया है।
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