अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पाजी नज़्में

 

पश्चिमी कचहरी रोड की उँगली पकड़कर गली तुम तक ले जाती . . . और तुम मिल जाती। वो हमारे एक दूसरे को पाने-खोने के दिन थे। आज मैं याद करता हूँ जब वो बातें . . .  बातें? . . . परन्तु तुम कहाँ बोलती थी . . .? हम घंटों बैठे रहते थे . . . यूँ ही एक दूसरे की उपस्थिति को महसूसते। शायद शब्दों की फ़ुज़ूलख़र्ची से बचने के ख़्याल से तुम ऐसा करती थी। 

लेकिन ये सब मैं आज क्यों सोच रहा हूँ। मेरा ऐसा सोचने की वजह? मैं ख़ुद को अकेला तो नहीं समझ रहा हूँ। मेरे शुभचिंतकों को निराशा न हो, पहले ही बता दूँ, ऐसा बिल्कुल नहीं है। 

तुम्हें याद करने का कारण गुलज़ार की नज़्में हैं, जो तुम्हारे दिए हुए फ़ोल्डर में मिल गयी हैं। मैंने कल पुरानी अटैची को छान मारा जिसमें ये पड़ी थीं। ये नज़्में तुम्हारे प्राण थीं, तुम्हारा किसी को सौंपने का मन नहीं होता था फिर भी सुनील से झगड़ा करके तुमने मुझे ये नज़्में भेंट की थीं। 

उन दिनों सुनील दोपहर को ही तुम्हारे घर आ जाता, मौसी से बात करता, तुम्हारे पिता जी के साथ शतरंज खेलता। तुम्हें सुनना उसे पसन्द था। इश्क़ का भूत उस पर कुछ ज़्यादा ही सवार था। अब भला प्यार किसको नहीं होता? प्यार के बिना संसार सम्भव है? उसे भी हुआ, लेकिन उसके प्यार को एक हल्का-सा थपेड़ा जब पड़ा, जब तुमने ये नज़्में मुझे दीं। 

उस दिन सुनील बेमन से उठा . . . तुम्हारी आवाज़ ने भी उसका ध्यान नहीं खींचा। मैं अक़्सर हैरान हो जाता हूँ, कितना लम्बा इंतज़ार? चालीस बरस और ये नज़्में। जिन्हें गुलज़ार ने भी ‘पाजी नज़्में’ नाम से पुस्तक रूप दे दिया है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

कविता

कविता-ताँका

लघुकथा

कहानी

अनूदित लघुकथा

कविता - हाइकु

चोका

कविता - क्षणिका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं