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भृगु लेक: यात्रा संस्मरण

 

पाँच जून दो हज़ार चौबीस की सुबह आठ बजे मनाली से लगभग पंद्रह किलोमीटर पहले छोटे से बस स्टेशन फ़ोरटीन माइल पर ना मालूम कितने ट्रैकर उतरे हैं। उनमें हम छह (संजीव वर्मा, डॉ. ईश्वर सिंह, अशोक भाटी, भूपेन्द्र सिंह, इरशाद और मैं) भी एच.आर.टी.सी. की बस से उतरे, उतरते ही देखा कुछेक ट्रैकर मस्ती में गीत गाते हुए आधार शिविर की ओर चले जा रहे हैं। सामने ही दिख पड़ा वैलकम टू फ़ोरटीन माइल आधार शिविर का बैनर। ब्यास नदी के किनारे पर यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया ने स्थापित किया है। प्रवेश द्वार पर ही ग्रुप लीडर राकेश तिवारी ने आगे बढ़कर प्रसन्न हृदय से हाथ मिलाया। “आप लोगों का स्वागत है,” उसने कहा। “तुम्हारी सूचना मिल गयी थी। अभी टैंट नम्बर बीस में सामान रखकर फ़्रेश-व्रैश हो लो।” तिवारी जी हमें सुसंस्कृत लगे। टैंट नम्बर बीस गद्दों, कम्बलों और स्लिपिंग बैग से सजा है जिसमें हम सोएँगे। बड़े उत्साह से हमने अपने-अपने रुकसैक टैंट नम्बर बीस में जमा दिए हैं टैंट में लाईट भी जल रही है, चार्जिंग मल्टी प्लग भी लगा है। संजीव वर्मा स्विच खोलने लगे तो देखा टैंट की छत पर मक्खियाँ जमीं बैठी हैं, फिर हमने तहायी हुई स्लीपिंग सीट से उन्हें बाहर निकाला और टैंट का दरवाज़ा बन्द कर दिया। थोड़ी देर बाद हम हाथ-मुँह धोकर ब्रेकफ़ास्ट के लिए डाइनिंग एरिया में चले गये। पूड़ी, सब्ज़ी, अंडा, कॉर्नफ़्लेक्स लेकर हम खाने बैठे। खा-पीकर हमने डौक्यूमैंटेशन कराया और दूसरे ट्रैकर्स से परिचय करने लगे। हमारा ग्रुप बी.एल.टी. ज़ीरो फ़ोर है, जिसमें छह महिला और बाईस पुरुष मिलाकर कुल अट्ठाईस ट्रैकर्स हैं। कल हमें भृगु लेक जाना है इसलिए रतन सिंह भाटी का ओरिएंटेशन कार्यक्रम भी होना है जिसकी व्यवस्था ग्रुप लीडर राकेश तिवारी ने की है। हम सभी वहीं बैठ गए हैं रतन सिंह भाटी ने भृगु लेक ट्रैक के बारे में बताना शुरू किया, वे अपने चेहरे पर सुहानी मुस्कान लिये बोर होने की सीमा तक कार्यक्रम में समां बाँधते रहे। बीच-बीच में ट्रैकर्स कभी यहाँ तो कभी वहाँ आते जाते रहे, परन्तु मग्न भाव से रतन सिंह भाटी अपनी आँखों को मिचमिचाते रहे जैसे वह कोई बड़े महत्त्व की जानकारी हमें दे रहे हैं। 

ओरिएंटेशन कार्यक्रम ख़त्म होते-होते लंच का समय हो गया और लंच करते-करते ब्यास में नहाने का कार्यक्रम बन गया। अपना-अपना नहाने का सामान लेकर हम छहों ब्यास रीवर फ्रंट की ओर बढ़ रहे हैं। हमें देखा-देखी दूसरे ट्रैकर भी नहाने आ गये। ब्यास के बड़े-बड़े शिला खंडों पर काई जमी है जो फिसलन भरी है। “ऐसे में कहाँ नहाएँगे?” मैं पूछ बैठा। “यहीं एक-एक डुबकी लगा लेते हैं भाई साहब!” अशोक भाटी ने कहा। 
मैंने इस आशंका के बारे में तो सोचा ही नहीं था। मैंने तो सिर्फ़ नहाने भर का सोचा था। बीच धार में नहाने की हिम्मत जवाब दे गई तभी माईक पर घोषणा हुई कि स्नान के लिए नदी के अन्दर न जायें, दुर्घटना हो सकती है। इसी बीच एक व्यक्ति ने वहाँ पर नहाने के लिए हमें मना भी किया। फिर हम ब्यास किनारे बनी एक दुकान पर पानी पूरी खाने बैठ गए। संजीव वर्मा ने कहा, “आये थे राम भजन को ओटन लगे कपास।” 

सब ठट्ठाकर हँस पड़े। 

अशोक भाटी ने कहा, “अच्छा होगा कि हम कैम्प में जाकर ताश खेलें-क्यों भाई साहब!” मैंने भी हामी भर दी। भूपेन्द्र सिंह ने कुछ ऐसा ही जवाब दिया, जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में दिया जा सकता है, और हम जल्दी ही आधार शिविर में आ गए। जहाँ हमारी मुलाक़ात एक लड़की से हुई जिसका चेहरा बहुत ही भला था और कला में पगा भाव उस पर छाया हुआ था। भूपेन्द्र सिंह ने उसे भी ताश खेलने का न्यौता दे दिया, जिसे उसने मुस्कुराते हुए स्वीकार भी कर लिया। 

उसने पूछा, “कौन-सा खेल खेलते हो?” 

मैंने कहा, “जजमेंट।” 

और हम जजमेंट खेलने बैठ गये। 

राकेश तिवारी की व्हिसल बजी, डिनर तैयार है, हमने कप प्लेटें निकाली। निश्चय ही कुछ बढ़िया बना होगा वरना वाई.एच.ए.आई. का ट्रैक कोई क्यूँ करेगा। ऊपर से पेट भी बज रहा था भूख के मारे। मैंने जल्दी-जल्दी कुछेक उबले अंडे, दाल-चावल, सब्ज़ी, चार रोटी, अचार और काफ़ी सारा कस्टर्ड प्लेट में भर लिया और साथ में एक मग गरम पानी भरकर सामने पड़ी प्लास्टिक की टेबल पर रख लिया। निश्चय ही इतना डिनर स्वास्थ्यकर नहीं होगा, परन्तु मैंने कर लिया। रात भर भूपेन्द्र सिंह ज़ोरों के साथ खर्राटे भरता रहा। संजीव वर्मा पूरी रात ऑनलाइन रहे। मुझे भी झपकी-सी आती रही। आँख तब खुली जब चाय की टोह में इरशाद किचन के चक्कर लगा रहा था। 

दो हज़ार चौबीस का छह जून है। आधार शिविर की चहारदीवारी में सेबों के वृक्ष अपने कच्चे सेब लिये पूरी गरिमा के साथ खड़े हैं। बन्ने और शकूरे की बेरहम कुल्हाड़ी से वे बच निकले हैं, अभी भी छोटे-छोटे पत्तों से युक्त उनकी डालियाँ आधार शिविर को छाया प्रदान कर रही हैं। वाई.एच.ए.आई. की ट्रैवलर बस आ चुकी है। आज हमें पहले कैम्प ‘गुलाबा मीडो’ के लिए निकलना है। फ़ोरटीन माइल से लगभग साठ किलोमीटर ट्रैवलर बस से चलना है फिर दो किलोमीटर की चढ़ाई करके गुलाबा मीडो पहुँचना है जिसे जोंखर और चौदह मोड़ के नाम से भी जाना जाता है। 

“हाँ तो चलिये, गुलाबा मीडो में चलें,” राकेश तिवारी ने हार्दिकता से कहा और ट्रैवलर बस दो गाइड सहित अट्ठाईस ट्रैकर्स को लेकर चल पड़ी। राह में पुरानी परम्परा की इमारतें, छोटे-छोटे बाज़ार ब्यास नदी को पार करने के लिए धातु का पुल, खेत, एप्पल के बाग़, मेपल ट्री, ओक-पूरा परिदृश्य स्वाभाविक है, फिर धीरे-धीरे हमने रोहतांग दर्रा पार किया तो हमारी ट्रैवलर बस कुल्लू में प्रवेश कर गयी और हमें ओक के जंगल और घास के मैदान नज़र आने लगे। हमने ट्रैवलर बस से उतरकर ग्यारह बजे के आस-पास पैदल चलना शुरू कर दिया है। गुलाबा मीडो कैम्प समुद्रतल से लगभग आठ हज़ार पाँच सौ फ़ुट की ऊँचाई पर है। हम कैम्प से एक किलोमीटर पहले एक कैंटीन पर रुक गए हैं। कैंटीन वाला सिर झुकाकर सभी का अभिवादन कर रहा है। यहाँ से गाँवों के चिह्न कम हुए हैं और घास के मैदान, ओक के जंगल, बर्फ़ की चोटियाँ, जंगली फूल और जल स्रोत दिखाई देने लगे हैं। भूपेन्द्र सिंह लड़कियों के बीच गाने की बानगी दिखा रहे हैं। कोई फ़िल्मी गीत छेड़ते हैं और मुखड़ा गाकर छोड़ देते हैं, फिर दूसरा गीत पकड़ लेते हैं। अंकिता उनका साथ दे रही है, अंकिता ने उन्हें डैडी कहना शुरू कर दिया है। इरशाद और अशोक भाटी के चेहरे के भाव को डॉक्टर ईश्वर सिंह ने ताड़ लिया है कि भूपेन्द्र सिंह के गाने में उन्हें कोई ख़ास रस नहीं मिल रहा है। ट्रैकर अलग-अलग ग्रुप बनाकर कानाफूसी करने लगे हैं तभी गाइड की आवाज़ सुनाई दी—“चलो”, सभी खड़े हो गये, सभी की भावभंगिमा में आत्मानुशासन का भाव है। घास के मैदानों से ताज़गी की सुगंध आ रही है। आधा घंटे में ही हम गुलाबा मीडो कैम्प आ गए। आज रात यहीं विश्राम करना है। कल रोला खोली कैम्प के लिए निकलेगें। कैम्प लीडर आर.के. गुप्ता कैम्प की व्यवस्था के बारे में बात कर रहे हैं। हमें वरुण खटाना की आवाज़ सुनाई दी, “चाय तैयार है।” हम मग लेने टैंट के अन्दर गये और वापस आकर टी कन्टेनर से मगों में चाय लेकर आर.के. गुप्ता के साथ बातचीत में रम गए। कुछ ट्रैकर इधर-उधर मँडराने-डोलने लगे हैं, अशोक भाटी भी उन्हीं में है। कुछ इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार बहुमत हासिल करने के बाद राजग ने नरेन्द्र मोदी को अपना नेता चुन लिया है। फुन्दनों की कैप को सिर पर लगाए भूपेन्द्र सिंह सिकन्दर के अंदाज़ में खड़ा है। गले में बैंगनी रंग का मल्टी परपज पहने डॉ. ईश्वर सिंह वनस्पतियों की खैर-खबर ले रहा है। चारों ओर पर्वत शिखर नज़र आ रहे हैं। किचन से भागचंद गर्म पानी का कंटेनर लिये आ पहुँचा है और सिर को घुमाते हुए आर.के. गुप्ता से कहता है, “डिनर तैयार है।” तभी, मैंने देखा कि आर.के. गुप्ता डिनर के लिए बोलते उससे पहले ही हम डिनर करने के लिए तैयार हो गए और इत्मीनान के साथ प्लेटों के बाद प्लेटें, मग के बाद मग ख़ाली होते रहे। तत्पश्चात् स्लीपिंग बैगों में गुड़मुड़ी बन कर सो गए। 

आज दिल्ली में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एक बार फिर सरकार बनाने के लिए दावा पेश करेगा, स्लीपिंग बैग में पड़े-पड़े वरुण खटाना ने कहा तो आँख खुली। आज यानी सात जून को हमें अगले कैम्प के लिए प्रस्थान करना है। डॉ. ईश्वर सिंह आँखें मूँदे पड़े हैं।” डॉक्टर साहब! उठो, लो चाय पी लो”, इरशाद ने कहा तो उनकी काया में कुछ हलचल हुई। हम सब उठ गए और स्लीपिंग बैगों में ही बैठे रहे। मुझे हिमालयन बुलबुल की आवाज़ आयी, मैंने कहा वकील साहब! ये तो वही है जिसका आपने आधार शिविर में फोटो शूट किया था, काले मुँह और सफ़ेद गालों वाली। इतने में भूपेन्द्र सिंह बोल पड़ा, नहीं भाई साहब! मख़मल गालों वाली। ठहाका लगा तो दूसरे टैंट से भी ट्रैकर बाहर निकले और पूछने लगे, “क्या हुआ! क्या हुआ! मैंने भूपेन्द्र सिंह से कहा, अब राजू बन गया जैंटलमैन का गाना मत सुना देना और इस ख़ुशनुमा वातावरण से आज का दिन शुरू हुआ। घास के मैदानों ने अपना चेहरा दिखाया, इससे ख़ूबसूरत दिन की कल्पना नहीं की जा सकती, आज हम रोला-खोली जाऐंगे। 

अब हम अट्ठाईस ट्रैकर रोला-खोली की ओर चले। सुबह के आठ बजे हैं। धूप खिली है। पर्वत शिखरों से बादल उठ रहे हैं। सूखे पत्ते और तिनके हमारे रास्ते में कालीन बनने को तैयार हैं। ओक का जंगल बिदाई को खड़ा हो गया है। किसी लड़की का पैर फिसल कर मुड़ गया है, वह वहीं बैठ गयी है बाक़ी ट्रैकर आगे निकल गए हैं। एक गाइड उस लड़की के पास रुक गया है। वैसे भी वह रूखे स्वभाव की है, हालाँकि उसके कठोर होने की शिकायत किसी को नहीं है। बस अंकिता उसे उचक-उचक कर देखती रहती है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, घास के मैदानों की हरियाली बढ़ने लगी है। पहाड़ों पर हल्के-हल्के जंगली फूल दिखने लगे हैं। सोलंग घाटी से होती हुई ठंडी हवा शरीर में झुरझुरी पैदा करने लगी है, ऊपर चढ़ती हुई घुमावदार पगडंडी पर एका-एक मोड़ आया और हम बड़े जल स्रोत पर पहुँच गए हैं। यही हमारा लंच प्वाइंट है। गाइड ने रुकने के निर्देश दे दिये हैं। मैंने देखा, पीछे बहुत दूर गाइड के साथ वह लड़की घिसट रही है। पगडंडी के किनारे-किनारे पड़े पत्थरों पर हम बैठ गए हैं। पीर पंजाल और धौलाधार रेंज के अद्भुत दृश्य दिखायी दे रहे हैं। फोन के सिगनल आ-जा रहे हैं। एक भेड़ बकरियों का बड़ा सा झुण्ड हमारे पास से गुज़रा है, उनके ताज़े-ताज़े निशान वहीं पड़े दिख रहे हैं, और हम लंच कर रहे हैं। लंच करते ही शरीर में एनर्जी जगमगा उठी है। सभी के रुकसैक पीठ पर आ गए हैं। आसमान में बादलों की कतरनें उड़ने लगी हैं। पहाड़ गुनगुनाने लगे हैं। हम भी उन्हीं में रमते-रमाते रोला-खोली की ओर बढ़ने लगे हैं। संजीव वर्मा का मोबाइल कैमरा हर वक़्त ऑन रहा है। वह अपने पसंदीदा दृश्य शूट कर रहे हैं। उनके मुँह से निकला, “अद्भुत!” दूर, काफ़ी दूर रोला-खोली के टैंट नज़र आ रहे हैं। हम उत्साह से अधीर हुए जा रहे हैं, और हम पाँच बजे तक उतर ही आए। कैम्प लीडर आनन्द भावे ने गरमागरम आलू बंडे और चाय से हमारा स्वागत किया। हम थककर चूर हैं हमारे चारों ओर ऊँचे-ऊँच पहाड़ हैं, मैदान में बड़े-बड़े शिलाखण्ड भी हमारे साथ जैसे टैंट लगाकर जमे हैं। पेड़-पौधों को गुलाबा मीडो में ज़ंजीर से बाँध दिया है। कुछ ट्रैकर बर्फ़ में भीगे हुए भृगु लेक से आ रहे हैं, जैसे बर्फ़ में तैर कर आये हों, उन्हें देखकर मुझे झुरझुरी-सी आ गयी। कल (आठ जून) हमें भी भृगु लेक जाना है, तभी हमने देखा दूसरा गाइड पगडंडी छोड़कर हमारी ओर उतर रहा है, साथ में विजय तिवारी और वह लड़की है। चले आओ! चले आओ! हमारा समवेत स्वर गूँजा। फिर मैंने कहा, “अशोक भाटी जी! चलें? कुछ खेलें-खालें, घूमे-फिरें? कल भृगु लेक चढ़ना ही है, क्यों? . . . वैसे तो थकान उतरी नहीं है।” इतने में ही इरशाद बोला, छोड़ो भाईसाहब मैं भी कल यहीं रहूँगा, अशोक भाटी बड़बड़ाया “इतना परिश्रम करके आये हैं केवल भृगु लेक के लिए या कैम्प में आराम करने? अब टैंट में चलो, डॉ. ईश्वर सिंह ने जल्दी मचायी और हम छहों टैंट में आकर जैसे ढह गए। 

आठ जून को हम जल्दी जाग गए, भृगु लेक जाना हैं। इसलिए पहले हम खुले में शौच के लिए गए उसके बाद हाथों में दस्ताने, रेन शीट, स्नोबूट और सनग्लास पहनकर पैक लंच लिया-कुछ कार्बोहाइड्रेट और विटामिनयुक्त खाद्य भी रखे। संजीव वर्मा घर से लड्डू लाये हैं उन्होंने वो भी रख लिये। इरशाद ने रोला-खोली कैम्प में ही आराम करने का मन बना लिया है। उनके साथ पाँच लोग रुकने वाले हैं। हम बाईस ट्रैकर आत्मविश्वास से भरे हुए धीरे-धीरे पैर बढ़ाते हुए भृगु लेक की तरफ़ बढ़ने लगे हैं। रोला-खोली कैम्प की बग़ल में स्थित नदी को पार करते हैं। चढ़ाई के ठीक बीस मिनट बाद ज़मीन एक विशाल हिम चादर में खुलती है। यहाँ से हमें देव टिब्बा, हनुमान टिब्बा और सोलंग घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा है। पैर धीरे-धीरे बढ़ाना एक तरह से अनिवार्य सा हो रहा है, क्योंकि बर्फ़ तोड़-तोड़कर चढ़ना दुष्कर सा हो रहा है, साँस फूल रही है, झर-झर स्नोफॉल हो रहा है, धूप नहीं है, भृगु लेक हमें पुकार रही है। रास्ता फिसलन वाला है। बीच-बीच में किसी ना किसी के फिसलने का दृश्य दीख जाता है तो हँसी छूट जाती है। भूपेन्द्र सिंह ने जूतों पे क्रैम्पन (कील लगी चैन) पहनी है, उन्हें फिसलने का डर नहीं है। सीधी खड़ी पर्वत श्रेणियाँ हैं सफ़ेद बर्फ़ जमा हुआ है। स्नोफॉल रुक गया है। अंततः उसी स्थान पर हम पहुँच गए, जहाँ हमें पहुँचना था अर्थात् भृगु लेक के द्वार पर। आह! कैसा अद्भुत, आध्यात्मिक वातावरण है। हम गुग्ध भाव से देखते रहे। यह झील भारत के हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले में चौदह हज़ार एक सौ फ़ुट की ऊँचाई पर है। यह एक पर्वतीय झील है जो रोहतांग दर्रे के पूर्व में है। इसका नाम महर्षि भृगु पर पड़ा है। बाईस के बाईस ट्रैकर पीली काली नीली रेन शीट में नाचते से घूम फिर रहे हैं। कभी-कभी पैर घुटने तक बर्फ़ में धँस जाते हैं फिर पैर खींचकर बर्फ़ से बाहर निकालते हुए हम आनन्दित हो रहे हैं। डॉ. ईश्वर सिंह की नाक लाल हो गयी है। चारों तरफ़ सफ़ेद बर्फ़ का साम्राज्य है। अंकिता के साथ छहों लड़कियाँ ठेलमठेल मचाये हुए हैं, वह बर्फ़ के गोले फेंकने से नज़र आ रहा है। उमर का ख़्याल आते ही चेहरे पर विरक्ति के भाव आ गए हैं। तभी गाइड की आवाज़ आयी। चलो! जल्दी करो! फिर हम ढलवा रास्ते पर चलने लगे, लगभग पाँच सौ मीटर ही चले थे कि गाइड ने कहा यहाँ लंच कर लें फिर स्लाईडिंग (फिसलकर) द्वारा रोला-खोली पहुँचेंगे। 

आठ जून दो हज़ार चौबीस के दो बजे हैं, हम पैर फैलाकर टिफ़िन हाथों में लिए बैठे हैं। हमारी रेन शीट पर स्नोफॉल की कुछ बर्फ़ बिखरी हुई है। सामने अलोकिक भृगु लेक है। लंच करने के बाद हम बाईस के बाईस फिसलनकारी बर्फ़ पर पैर जमा-जमा कर रोला-खोली की ओर बढ़ने लगे। गाइड ने एक ढलवाँ पगडंडी पर रोक दिया, यहाँ से स्लाइडिंग करते हुए जाना है। वाह! . . . बिना स्की, बिना स्केट, सर्र-सर्र हम ढलवाँ पगडंडी पर फिसलने लगे। फिसलकर लगभग एक किलोमीटर नीचे पहुँचे तो जूतों में, पिछवाड़े में बर्फ़ घुस गई। एक लड़की को चोट लगी है शेष इक्कीस अगली स्लाइडिंग के लिए तैयार हैं। भीतर रोमांच होता रहा, बाहर स्नोफॉल। एक-एक करके हमने छह स्लाइडिंग की, थकान का पता ही नहीं चला और हम रोला-खोली आ गए। पाँच बज चुके हैं कैम्प में पहुँचते ही कपड़ों में घुसी बर्फ़ को निकालना शुरू किया। ठण्ड बहुत लग रही है, सामान रखकर, गर्म कपड़े बदलकर हम चाय पीने के लिए आ बैठे हैं। दूर-दूर तक बिछी बर्फ़, उसके बीच से आती ठण्डी हवा, पास में ठंडे चिकने पत्थरों पर उछलती धारा शरीर में खुरखुरी पैदा कर रही है। ठंड की बेचैनी हमें स्लीपिंग बैग में ले गई। कल हमें आधार शिविर निकलना है, यही सोचकर हम देर तक सोते रहे। ठंड की मार के कारण हम स्लीपिंग बैग के भीतर हिल भी नहीं पाए। 

नौ जून दो हज़ार चौबीस को सुबह नौ बजे आधार शिविर फ़ोरटीन माइल के लिए प्रस्थान किया। अब हम पच्चीस हैं, तीन कल ही जा चुके। आज रविवार का दिन है और नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। लगभग घंटेभर चलने के बाद आराम करने की इच्छा हुई, मैंने गाइड से कहा तो उसने मना कर दिया और कहा, गुलाबा मीडो के पास लंच होगा और वहीं ट्रैवलर बस का इंतज़ार करते हुए आराम भी होगा। गाइड ने ये शब्द कुछ ऐसे ठेठ अंदाज़ में कहे कि मानों वह कह रहा हो कि जहाँ मन करे आराम करो। मैं एक जल स्रोत के पास बैठ गया हूँ, धूप निकली है, दिन सूखता सा चल रहा है, मेरे सामने भेड़ बकरियों का झुण्ड है जो लम्बी लाईन लगाकर पानी पी रहा है। सामने सोलन घाटी, सूखी हरी घास से ढकी ढलावदार पगडंडियाँ हमें बारह बजे तक गुलाबा मीडो के पास ले आई हैं। हम धूप में बैठे ताश खेल रहे हैं, गर्मी के मारे बेचैनी हो रही है, हवा के स्पर्श का अनुभव बीच-बीच में हो रहा है। हमारे ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर कुछ ट्रैकर ट्रैवलर बस का इंतज़ार कर रहे हैं और कुछ ओक की छाँह में बैठे हैं। गाइड शोर मचा रहा है। मैंने घूमकर देखा तो वरुण खटाना पर मेरी नज़र पड़ी जो कंधों पर अपना रुकसैक चढ़ा रहा है। शेष ट्रैकर गर्मी से परेशान हुए निश्चल बैठे हैं। 

“चलो!” हमारी ओर ताकते हुए वरुण खटाना ने चिल्लाकर कहा। थोड़ी देर में ही हम ट्रैवलर बस में बैठ गए हैं, आधार शिविर के लिए। बस ड्राइवर ने गाना बजा दिया है, ओ, केटी को, केटी को। 

भृगु लेक: यात्रा संस्मरण

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