जलोरी पास (जलोड़ी जोत): यात्रा संस्मरण
संस्मरण | यात्रा-संस्मरण भीकम सिंह15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
इस बार मैंने और डॉ. ईश्वर सिंह ने सोच लिया कि होली की छुट्टियों में पीठ पर रुकसैक लादकर कहीं भी निकल पड़ेंगे। इसके लिए हमने कुल्लू जनपद की लिझेरी पंचायत के गाँव जटेड़ में प्रिंस होम स्टे बुक किया और वहाँ पहुँचने के लिए लक्ष्मी होलीडेज़ की बस भी बुक कर ली, जिसने हमें चौबीस मार्च दो हज़ार चौबीस की सुबह नौ बजे ओट में उतार दिया। फिर ओट से टैक्सी ली और जलोरी पहुँच गए, यहाँ हमें प्रिंस होम स्टे वाले ऋषि नेगी मिल गए जो बुद्धा कैफ़े के नाम से ट्रैक कराते हैं। उन्हीं के साथ लंच किया और जलोरी पास (दर्रा) का सुन्दर सा ट्रैक किया।
जलोरी पास हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में स्थित है जो समुद्र तल से दस हज़ार आठ सौ फ़ुट की ऊँचाई पर है। यहाँ महाकाली का मंदिर है, 360º व्यू प्वाइंट है यहाँ से ख़ूबसूरत हिमालयन वैली का नज़ारा दिखता है और जीप लाइन एक्टिविटी है। मंदिर के आसपास गर्म कपड़ों का खुला बाज़ार है। ओक के पेड़ हैं। पूरा परिदृश्य मनोहारी है। अभी यहाँ बर्फ़ जमी है, कहीं-कहीं घास दिख जाती है, कहीं-कहीं गड्ढे हैं छोटे से जलोरी में मालूम नहीं कितने पर्यटक हैं, कितने ट्रैकर हैं। फिर भी मौसम शानदार बना हुआ है, बहुत ऊँचे आसमान में सफ़ेद बादल तैर रहे हैं। हम जटेड़ जाने की तैयारी कर रहे हैं। कल फिर हमें यहीं आना है क्योंकि सरेउलसर लेक के लिए रास्ता यहीं से जाता है। प्रिंस होम स्टे यहाँ से लगभग सात किलोमीटर दूर खनाग से थोड़ा आगे हैं। डॉ. ईश्वर सिंह ने अपना रुकसैक गाड़ी में रख दिया है, उसके पीछे मैंने और आख़िर में ऋषि नेगी ने कीचड़ में सने और तर-बतर अपने स्नोबूट रखे। हम गाड़ी में बैठे हैं। डॉ. ईश्वर ने बैठते ही आँखेंं मूँद ली हैं, मानो नींद का आह्वान कर रहे हों। आख़िरकार हम पाँच बजे प्रिंस होम स्टे में आ गए। प्रिंस होम स्टे की सीढ़ियाँ चढ़ते समय मेरे ज़ेहन में उन मज़दूरों की स्मृतियाँ कौंधती हैं जिनके हाथ काटे गए थे शायद उन्हीं के वंशजों ने प्रतिकार स्वरूप ये सीढ़ियाँ बनाई हैं।
“कहो? सर! कैसा है?” ऋषि नेगी ने पूछा
“सीढ़ियाँ छोड़कर ठीक है,” मैंने उत्तर दिया तो डॉ. ईश्वर सिंह मुस्कुरा दिए।
हम सामान रखकर नीचे चाय के लिए आए तो ऋषि नेगी ने अमन ठाकुर से परिचय कराया जो अंधाधुंध बीड़ी फूँक रहा है। हम चारों चाय के लिए बैठ गए हैं। अमन ठाकुर बीड़ी को अन्दर से साफ़ कर रहा है, तम्बाकू में कुछ मिलाकर फिर बीड़ी भर ली है और मैंने देखा उसने डॉ. ईश्वर सिंह से बड़ी जल्दी मित्रता क़ायम कर ली है। डॉ. ईश्वर सिंह भी बीड़ी फूँक रहे हैं और खाँस रहे हैं। खिड़की से आ रहे हवा के झोके धुँए को छितरा रहे हैं। जिससे मैं भी थूक सटकने लगा हूँ और उदासीन लगने की कोशिश कर रहा हूँ। धुएँ के साथ चाय पीकर हम कमरे में आ गए हैं। आठ बजे डिनर के लिए फिर नीचे आऐंगे।
पच्चीस मार्च का शानदार दिन, उत्तर भारत में विशेष महत्त्व का दिन, आकाश एकदम स्वच्छ है, सूर्योदय में लाल दमक है। होली के रंग की चमक जैसी, लेकिन चमक सुहावनी है। सड़क में जगह-जगह लोग खड़े हुए हैं, तो याद आया रंगोत्सव होने वाला है। हमारी आँखें ऋषि नेगी को ढूँढ़ रही हैं तभी व्हाट्सऐप मैसेज आ गया, “चाय आ रही है सर! नौ बजे ब्रेकफ़ास्ट और साढ़े नौ बजे सरेउलसर ट्रैक के लिए निकलना है।” मैं फिर बैड पर एक करवट लेट गया और चाय का इन्तज़ार करने लगा, डॉ. ईश्वर सिंह कोहनी के बल झुके लेटे हुए हैं और सामने घाटी के शून्य को देख रहे हैं। धीरे-धीरे सीढ़ियों पर पदचाप सुनी तो मैं बैठ गया। चाय पीने के बाद फ़्रैश-व्रैश होकर ब्रेकफ़ास्ट करते हैं और हम तीनों सरेउलसर के लिए निकलते हैं। ग्यारह बजे हमारे सामने ओक वृक्षों का घना जंगल है और दूर-दूर तक बर्फ़ नज़र आती है, दाहिने ओर गहरी घाटी और बायीं ओर दीवार की भाँति ओक का जंगल सिर उठाए खड़ा है। ऋषि नेगी हमसे बहुत आगे निकल गया है, हम दोनों के जैसे पैर बँधे हैं, मैंने अपने इर्द-गिर्द देखा कुछ पहाड़ी महिलाएँ मेहँदी (लाइकेन) बीन रही हैं। पगडंडी पर घनी और उजली बर्फ़ जमी है, चलते हुए फिसलने का डर सा मालूम हुआ तो ओक का सहारा ले लिया। फिर हम ओक वृक्षों का सहारा लेकर ही चलने लगे हैं। कुछ पक्षियों ने फड़फड़ाना शुरू किया है आख़िर पगडंडी का छोर आ गया है। आँखों के सामने सरेउलसर लेक, दाहिने बाएँ और दूर तक बर्फ़ से ढकी हुई, ओक वृक्षों ने एक साईड क़ब्ज़ा किया हुआ है। लेक से परे दूर तक बर्फ़ दिखाई दे रही है। बहुत दूर ज़मीन का एक टुकड़ा दिखाई दिया, “अरे, वहाँ तो ऋषि है,” मेरे मुँह से निकला। बर्फ़ के बीच धँसते हुए हम ऋषि के पास पहुँचे। इसी बीच घटा-सी घिर आयी, ऐसा मालूम हो रहा है जैसे मेघ उमड़-घुमड़ रहे हैं और आस-पास ही तैर रहे हैं, हमारे पास रेन शीट नहीं है। हवा अधिकाधिक ठंडी होती जा रही है। एक चाय की दुकान पर हमारी नज़र पड़ी। एक छोटी-सी, उसके इर्द-गिर्द टैंट लगा है, हम वहीं बैठ गए और चाय भी पी। फिर हम ऋषि के साथ सरेउलसर लेक आ गए हैं। यह झील क्या है, एकदम बड़े कड़ाहे-सी चारों ओर से ढलवाँ चली आयी है, नीचे पानी जमा है। किनारों की बर्फ़ ऐसे लग रही है जैसे पानी ठिठककर खड़ा हो गया है और अभी बहने लगेगा। ग़ज़ब का सौंदर्य है सरेउलसर का। ऋषि नेगी बताते हैं कि ऐसी ख़ूबसूरत जगह ही हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का आधार है, इन्हीं के कारण पर्यटन मज़बूत हुआ है। लौटते वक़्त हम फिर झील से निकले, अब हम नाक की सीध में लौटने लगे हैं। इस तरह आधा घंटे तक चलते रहे ऋषि नेगी ने रास्ता बदल लिया है अब वह हमें ढलवाँ पहाड़ी से ले जा रहा है जो सीधा जटेड़ निकलेगा। इस रास्ते में रखाल (टेक्सस) के वृक्षों का अन्तहीन विस्तार फैला है। जिस पहाड़ी पर मैं और डॉ. ईश्वर सिंह अब पहुँच गए हैं वह अचानक ख़त्म होती है। उसके पार्श्व में ऋषि नेगी का गाँव दीख रहा है, सेबों की कटिंग हो गई है, लहसुन, गेहूँ, मटर, अफ़ीम उगा दीख रहा है। गाँव से धुआँ दीख रहा है, आख़िर हम गिरते पड़ते गाँव में आ गए, पाँच बजे हैं प्रिंस होम स्टे पहुँचने में अभी समय लगेगा इसलिए ऋषि नेगी ने यहीं चाय की व्यवस्था की है।
“लिजिए सर! लिजिए,” कहते हुए ऋषि नेगी ने चाय थमा दी है और ख़ाली ट्रे अपने बेटे को दे दी है। मैंने ऋषि नेगी को देखा उसके चेहरे पर मधुर मुस्कान है। फिर हम प्रिंस होम स्टे आ गए डिनर किया और सो गए।
पक्षियों के कलरव से हमारी नींद टूटी, हमारी थकान चरम पर है। दिन निकल आया है। सिर भारी-भारी लग रहा है। आज हमने यहीं आस-पास घूमने का मन बना लिया है। छब्बीस मार्च दो हज़ार चौबीस का ब्रेकफ़ास्ट करने के बाद ही हम लोग टहलते हुए आगे बढ़े। कोट गाँव के छोर पर जैसे हम पहुँचे क़रीब साठ वर्ष की उम्र का एक आदमी हमारे साथ आने लगा। क़द का लम्बा और छरहरा, नशे की हालत में आगे को झुका हुआ। यह है डाबेराम। उसका ख़ुशमिज़ाज गोरा चेहरा पहली नज़र में ही डॉ. ईश्वर सिंह को भला लगा। अपने एक हाथ में चैरी के तने सँभाले वह हमारे साथ सड़क किनारे बैठ गया। डाबेराम बहुत ही ख़ुश और अत्यन्त कोमल मिज़ाज का आदमी है। बीच-बीच में कोई पहाड़ी धुन वह धीमी आवाज़ में गुनगुनाता रहता है और बोलते वक़्त उसकी आँखों में हँसी की चमक रहती है।
मैंने उससे पूछा, “डाबेराम जी! हमें आज तीसरा दिन है हिमाचल में रहते हुए, लेकिन सेब के दर्शन नहीं हुए।”
किन्तु वह डॉ. ईश्वर सिंह की ओर मुख़ातिब हुआ और बोला, “आपके लिए मँगवा दूँ? मेरे घर चलो, मेरे पास हैं।”
“नहीं, आज नहीं फिर कभी!” मैंने कहा।
फिर हम कोट के लिए रवाना हुए और तीन घंटे कोट गाँव में बिताये। शेषनाग मंदिर में हमारा मन रमा रहा। मंदिर के मुख्य द्वार से एक बेडौल टूटी-सी सड़क मुख्य देवता की ओर जाती है जिसके आस-पास की ख़ाली ज़मीन पर दूब जैसी जंगली घास उगी है, हम उसी पर बैठ गए। पास में हरा लहसुन अपनी गंध के साथ खड़ा है। सेब के पेड़ अपने नये पत्तों और शाखाओं पर रंगबिरंगी तितलियों से खेल रहे हैं, चारों ओर सन्नाटा है, इक्का-दुक्का वाहनों के गुज़रने पर ही वह सन्नाटा टूटता है। अचानक एक कुत्ता हमारे पास आ गया यूँ ही किसी राह चलते आवारा की भाँति प्यार में दुम हिलाने लगा। उसकी मौजूदगी ने हमें वहाँ से उठने को मजबूर कर दिया। मुझे फोन की घंटी बजती महसूस हुई। मेरा हाथ अपनी पीठ पर लटके बैग पर पहुँच गया, मैंने बैग से फौन निकाला। फोन की स्क्रीन पर ऋषि नेगी का नाम फ़्लैश हो रहा है, मैंने फोन ऑन किया और लंच के लिए मना कर दिया, कुछ सैंकेड ऋषि नेगी चुप रहा फिर बोला, “ओके सर!” मैंने फोन डिसक्नेक्ट किया और बैग में रख लिया।
पहाड़ियों पर धूप तमतमा रही है, सूरज लुका-छिपी खेल रहा है, कभी बादलों में छिप जाता कभी बाहर आ जाता। हम जटेड़ गाँव की ओर बढ़ चले। हमारी भूख ज़ोर पकड़ती है। लंच के लिए हम मना कर चुके हैं, डॉ. ईश्वर सिंह कहने लगे गाँव के बाहर एक दुकान है वहाँ चलते हैं। दुकान पास में नहीं थी, हम थके हुए से दुकान पर पहुँचे, चेहरे को पानी से धोया और पोंछा। दुकान की कुरसी पर बैठते ही मैंने कहा, “ऑमलेट बनेगा?” “चाय भी” डॉ. ईश्वर सिंह ने भी कुरसी पर बैठते हुए कहा। हमने चाय के कुछ सिप लेकर राहत महसूस की, फिर ऑमलेट ख़त्म किया, मैंने अपने लिए दूसरी चाय मँगाई। तभी मेरे फोन पर व्हाटसऐप मैसेज की घंटियाँ बजीं, मैंने फोन उठाया, ऋषि नेगी का मैसेज था, “कल रघुपुर फ़ोर्ट करें?” मैंने “हाँ” का मैसेज दे दिया और गिलास उठाकर एक बार में पूरी चाय ख़त्म कर दी। अपने बैग की चेन जाँचते और डॉ. ईश्वर सिंह की ओर चलने का इशारा करते हुए मैं खड़ा हो गया। डॉ. ईश्वर सिंह इधर-उधर नज़र डालते हैं, सेब के नवांकुरों की ओर देखकर आँख मिचमिचाते हैं। पाँच मिनट इस तरह गुज़ार देते हैं। साँझ के आकाश की लाल दमक धीरे-धीरे ओक, चीड़ और सेबों के तनों पर रेंगती सरक रही है। डॉ. ईश्वर सिंह देर तक सोचते रहे फिर कहा, “चलो!”
हम दोनों प्रिंस होम स्टे की विरल सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं। अतिविशिष्ट है यह होम स्टे, इसकी बालकनी से जलोरी वैली का ख़ूबसूरत नज़ारा दिखता है जो अब धुँधला होकर काला दिख रहा है। पूरी वैली अंँधेरे की परतों के नीचे ढकती जा रही है। ओक, चीड़ और सेब के पेड़ भीमाकार काले समूहों का रूप धारण कर रहे हैं, सड़क पर पहाड़ी महिलायें मेहँदी बटोर के आने लगी हैं, कुछ हाथ हिलाती आ रही हैं, शायद उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ा है। ठीक इसी समय ऋषि नेगी की आवाज़ सुनाई पड़ती है।
“सर! नीचे आ जाईये, डिनर के लिए।”
“क्या बात है? ख़ुशी के अंदाज़ में डॉ. ईश्वर सिंह ने पूछा।
ऋषि नेगी अपने घर से टिफ़िन लेकर आया है। प्रिंस होम स्टे उसके भतीजे का है। हम प्रिंस होम स्टे की अत्यंत छोटी सीढ़ियों से उतर रहे हैं। हरेक सीढ़ी पर पैर रखते ही जबड़ा भिंच जाता है। अपना संतुलन साधे आख़िर हम दोनों सीढ़ियों से उतर गए हैं। किचन में खाना गर्म हो रहा है। राजमा, चावल, हरे लहसुन की सब्ज़ी के साथ मिर्च का अचार है। ऋषि नेगी ही हमको परोस रहा है। खाने का आनंद लेते हुए ही सत्ताईस मार्च का कार्यक्रम बन गया है। हम ऋषि नेगी को धन्यवाद देते हुए, कमरे में आ गए हैं। नींद की खुमारियाँ हमारी आँखों में झलक उठीं—ख़ासतौर से मेरी।
सत्ताईस मार्च दो हज़ार चौबीस की सुबह हम निकलते हैं। प्रिंस होम स्टे से दो सौ क़दम की दूरी पर बुद्धा हाउस है, जो चारों ओर से खुला है। ऋषि नेगी की पत्नी हमारे लिए पराँठे और छाछ ले आयी, साथ-साथ चाय के लिए पानी भी चढ़ा दिया जो जल्दी खौल गया और हमने चाय पीना शुरू किया। पहाड़ी पर बदली छायी है, हवा बन्द है गाड़ी को सड़क पर खड़ा करके ऋषि नेगी ट्रैक का ज़रूरी सामान रख रहा है। जटेड़ से निकलते ही खनाग के रास्ते पर आशुतोष मिल गया है। उसके पास पानी की बोतल की एक पेटी और मैगी के कुछ पैकेट हैं, उन्हें डिग्गी में रखने के बाद गाड़ी ने ख़राब रास्ते पर चलना शुरू किया। जटेड़ से जलोरी छह किलोमीटर है पूरा रास्ता चीड़ और देवदार के जंगल से घिरा है, बायीं ओर नारकंडा रेंज भी दिखाई दे रही है। धूप खिली है। ऋषि नेगी ने जलौडी में हमें रघुपुर फ़ोर्ट के रास्ते पर उतार दिया है। यहीं से साढ़े तीन किलोमीटर का ट्रैक है। रास्ते के शुरू में ही गर्म कपड़ों की एक-दो दुकानें सजी हैं। हमारी नज़रें ट्रैक पर आते-जाते ट्रैकर पर पड़ती हैं। एक हरियाणवी युवाओं का ग्रुप हमारे पास से दौड़ता हुआ गुज़रा है और बर्फ़ में खच्च-खच्च की आवाज़ सुनाई दी है। मैं और डॉ. ईश्वर सिंह एक ही टीले पर सुस्ताने लगे हैं। ग्यारह बजने को हैं और ट्रैकर बढ़ने लगे हैं। डॉ. ईश्वर सिंह चलना चाहते हैं और मैं कम से कम दो मिनट ओक की छाँव में लेटना, लेकिन मैं अपना मन मारकर चल देता हूँ। जैसे-तैसे हम फ़ोर्ट के प्रवेश द्वार पर पहुँच गए, जहाँ से रघुपुर फ़ोर्ट चमक रहा है। यह घास का विस्तृत टीला है जो मिट्टी और पत्थरों से बना है, कुछ चाय की दुकानें हैं, लोग छितराए हुए बैठे हैं, कहीं से कभी-कभी हँसी-ठट्ठे की आवाज़ें सुनाई दे रही हैं। ट्रैकर की भीड़ देखकर दुकानदारों के भीतर उत्साह दिख रहा है। शुरू में ही दाहिने ओर अमन ठाकुर की दुकान देखकर हम उस तरफ़ बढ़ने लगे। अमन ठाकुर का चेहरा भी हमें देखकर खिल गया है। हम दोनों दुकान के बाहर बैठ गए हैं। हवा में ठंडक और धूप भी सिर पर पड़ रही है।
“ऋषि ने बता दिया था?” अमन ठाकुर ने बीड़ी जलाते हुए कहा कि आज आप रघुपुर फ़ोर्ट आयेंगे।
“लिजिए ये बहुत मस्त है सर!” अमन ठाकुर ने बीड़ी में कुछ मिलाकर डॉ. ईश्वर सिंह को देते हुए कहा।
सुट्टा मारने से डॉ. ईश्वर सिंह का चेहरा लाल हो गया और मुझे झुरझुरी-सी आ गई, नाक पर रुमाल रखना पड़ा। मैंने अमन ठाकुर से पूछा फ़ोर्ट कहाँ है? अमन ठाकुर ने हाथ उठाकर लगभग आधा किलोमीटर दूरी पर उस विशाल खंडहर को दिखाते हुए कहा, “वो देखिए उधर, इसी रास्ते से होकर चले जाइए।”
हम अमन ठाकुर के कहे अनुसार खुली पगडंडी को पकड़कर चलने लगे। मैंने देखा रास्ते में और भी चाय की दुकानें हैं। बहुत ऊँचा अर्थात् ग्यारह हज़ार फ़ुट की ऊँचाई वाला रघुपुर फ़ोर्ट आ गया, जो एक विशाल खंडहर है। उसके एक हिस्से में शृंग ऋषि का मंदिर दिख रहा है उसकी बग़ल से पाण्डुरोपा के लिए रास्ता जाता है। जो झरनों, जंगलों और घास के मैदानों से गुज़रता है। किंवदंतियों के अनुसार पांडव कई वर्षों तक निर्वासन के दौरान यहाँ रहे थे। अभी पूरा रास्ता बर्फ़ से ढका है। आस-पास में ट्रैकर फोटो शूट कर रहे हैं। हमने उतरना शुरू कर दिया है। मस्त हवा आजू-बाज़ू से निकल रही है। दूर, काफ़ी दूर निगाह जाती है तो उत्तर पश्चिम में पीरपंजाल तक की पहाड़ियाँ दिख रही हैं। ओक और देवदार हमारे भीतर स्फूर्ति जगा रहे हैं। चारों ओर 360º दृश्य हैं जिन्हें शूट करने की इच्छा होती है। चलते-चलते ठिठककर खड़े हो जाते हैं, मुड़-मुड़ कर दृश्यों को देखते हैं, पैरों के नीचे मख़मली घास है। अपनी दुकान पर अमन ठाकुर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हम फिर से दुकान के बाहर बैठ गए हैं। हमारे सामने ओक का घना जंगल है, पीछे दुकानों की पंक्तियाँ हैं। अमन ठाकुर की दुकान पर ट्रैकर की भीड़ बढ़ती जा रही है, वातावरण चहल-पहल से भर गया है। महिलाएँ ट्रैकर मैगी खाने की रट लगाए जा रही हैं। अमन ठाकुर गरमा-गरम मैगी प्लेटों में उडे़ल रहा है। कुछ लड़के अपने हलक़ के थूक को निगल कर मैगी की प्लेटें महिलाओं को थमा रहे हैं। पैरों की थकान मिट चुकी है, हमने रुकसैक उठा लिए हैं। काग़ज़ की प्लेटें और गिलास उड़़कर रास्ते के किनारे जम गए हैं। चाय पीते-पीते जिन ट्रैकर से परिचय हुआ था, उन्होंने भी हमारे साथ उतरना शुरू कर दिया है। काली के मंदिर की झलक एक किलोमीटर पहले से ही मिलने लगी है। कई जगह रुक-रुककर हम जलोरी पास (जोत) आ गए हैं।
तीन बज चुके हैं, हमने हाथ मुँह धोया। सात किलोमीटर ट्रैक के बाद भूख तो लगनी ही थी। ठंडी-ठंडी दोपहर में गरमागरम राजमा-चावल खाये। तभी ऋषि नेगी की आवाज़ कान में अलार्म की तरह बजी, “चलें सर!” चेहरा घुमाकर ऋषि नेगी को ढूँढ़ने की नियत से इधर-उधर देखा। “कंगना का हो गया . . . कंगना का हो गया” की आवाज़ बाहर गूँजी। इस अलग तरह की आवाज़ ने हमारा ध्यान खींचा, हमने बाहर की तरफ़ देखा और ऋषि नेगी से पूछा, “क्या हो गया?”
“सरजी! कंगना रनौत का मंडी लोकसभा से टिकट हो गया है।
“अच्छा,” मैंने चौककर कहा।
“सरजी! अब यह बात अलग है कि राजनीति में सर्वथा अनुपयुक्त कलाकारों को भी हमने राजनीति में घसीट लिया है।”
“अलग बात नहीं है, राज़ की बात है,” फिर किसी की आवाज़ गूँजी।
हमने क़दम जलोरी की पार्किंग की ओर बढ़ाए, गाड़ी में बैठे और चार बजे प्रिंस होम स्टे जाटेड़ पहुँच गए। अगले दिन ऋषि नेगी ने जिभी तक छोड़ दिया, वहाँ से टैक्सी ली और दिल्ली आ गए।
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