मिज़ोरम: यात्रा संस्मरण
संस्मरण | यात्रा-संस्मरण भीकम सिंह1 Sep 2024 (अंक: 260, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
इंदिरा गाँधी इण्टरनेशनल एयरपोर्ट में कंधे पर टैग लगा कैरी बैग मेेरे भीतर बेकूत उफान भर रहा है, टैग को बार-बार दिखाने की जैसे मेरे अन्दर प्रतियोगिता चल निकली हो हम दोनों उमंग से भरे हैं। हम दोनों मतलब मैं और भारत। भारत आजकल दिल्ली के किसी कॉलेज में राजनीति विज्ञान पढ़ाता है। नब्बे के दशक से मेरा भारत से परिचय है। मैं जानता हूँ ट्रैक की इच्छा ने इसके पैरों में चक्कर बाँध रखे हैं, उसी इच्छा ने कुलाँचे मारने के लिए आज सिर उठाया है, जिसका रुख़ उत्तर-पूर्व की ओर है। इंदिरा गाँधी इण्टरनेशनल एयरपोर्ट से उड़ान भरने का मुहूर्त आ गया और हमने फ़्लाइट नम्बर चार सौ एक से कोलकाता के लिए तीन नवम्बर दो हज़ार सोलह की सुबह छह-पचास पर उड़ान भरी। नवम्बर का महीना भी सर्दी उड़ाने जैसा हो रहा है। मैं और भारत मिज़ोरम की राजधानी आईज़ोल में ट्रैकिंग के लिये जा रहे हैं। खिड़की के बाहर सफ़ेद धुमैले बादल दिख रहे हैं। हवाई जहाज़ के अन्दर बीच-बीच में उद्घोषणा होती रहती है, जैसे आप मोबाइल फोन का प्रयोग केवल ‘एयर प्लेन मोड पर कर सकते हैं’, ‘रक्षा जैकेट सीटों के नीचे उपलब्ध है’। सीट की स्क्रीन बता रही है कि हवाई जहाज़ दिल्ली से दक्षिण-पूर्व की ओर जा रहा है। कोलकाता तक की कुल दूरी सात सौ नौ नॉटिकल मील यानी एक हज़ार तीन सौ पाँच किलोमीटर पार की जा रही है। सतर देहयष्टि वाली एयर हॉस्टेस ब्रेक फ़ास्ट के पैकेट्स थमाकर मुस्कान परोसती आ–जा रही हैं। अब हवाई जहाज़ नीचे उतर रहा है, दूर-दूर तक सफ़ेद बादल हैं। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर यात्री अपना-अपना सामान लेकर उतर रहे हैं। लेंगपुई के लिए यहीं से दूसरी उड़ान लेनी है। बंगलौर के एच. प्रकाश बाबू और नागपुर से किशोर तावड़े यहीं पर मिलने वाले हैं। परन्तु अभी तक मालूम नहीं कि पहुँचना किस टर्मिनल पर है।
मैं चाय पीना चाहता हूँ। बड़ी तलब लगी है। मैं और भारत एयरपोर्ट की उस दुकान की ओर चलने लगे जहाँ हमें एच. प्रकाश बाबू और किशोर तावड़े मिलने वाले हैं। ग्यारह बज गए, एक बजे फ़्लाइट है। भारत ने हिसाब लगाया। दो घंटे और लगेंगे। हम चाय पीने लगे। बकवास चाय, कोई स्वाद नहीं। मैेंने अनमने भाव से एक-दो घूँट और पी ली। तभी भारत चिल्लाया, “वे रहे वहाँ।” उसकी उठी हुई उँगली की दिशा में मैंने देखा, दूसरी दुकान की ओट में खड़े हुए एच. प्रकाश बाबू और किशोर तावड़े सैण्डविच खा रहे हैं। भारत ने हवा में हाथ उठाकर लहरा दिया। लेंगपुई जाने का उत्साह बढ़ गया। एक बजे इंडिगो के विमान ने उड़ान भरी। एक-डेढ़ घंटे बाद ही पायलट कक्ष से यह घोषणा होती है कि हमारा हवाई जहाज़ लेंगपुई हवाई अड्डे पर उतरने वाला है। खिड़की पर साँस रोके मेरे जैसे कई लोगों की उत्कंठा बढ़ती जा रही है और फिर वह अवसर आ ही जाता है कि हम लेंगपुई हवाई अड्डे पर उतरने लगते हैं।
लेंगपुई एयरपोर्ट नवम्बर की बारिश में भीगा है, सूरज का अता-पता नहीं है, संध्या का घेरा बढ़ता हुआ हमारे स्वागत को उत्सुक है एयरपोर्ट पर कोहरे का धुँधलका है और सामने पहाड़ियों पर बादल घुमड़ रहे हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे वे हमारी अगवानी में हाथ जोड़कर खड़े हो रहे हैं। हम बादलों की वह मुद्रा साफ़-साफ़ पहचान सकते हैं। बेस कैम्प एयरपोर्ट से तीस किलोमीटर दूर है। यहाँ बुलेरो टैक्सी में चल रही है, जो हमने बारह सौ रुपये में हायर की, ड्राइवर के साथ वाली सीट पर मैं हूँ और पीछे की सीटों पर दूसरे साथी। टैक्सी त्लौंग नदी के सहारे बढ़ी जा रही है कभी हल्का-सा दायें, कभी बाँये मुड़ते हुए त्लौंग नदी को पुल से पार कर रही है। लगातार बारिश से सर्दी का सा मौसम हो गया है। बेस कैम्प ‘लोंगोमाल’ तक जाने वाली सड़क के साथ पेड़ों के झुरमुट और दुकानों पर लड़कियों की मौजूदगी है जो तम्बाकू पे सफ़ेद काग़ज़ लपेट कर सिगरेट का लुक दे रही हैं। सिगरेट के ढिलेपन को रोकने के लिए वे एक छोर पर धागा बाँधती हैं ताकि पीने से पहले उसका छोर मोड़ना न पड़े। बारिश में ऐसा लग रहा है कि हम काफ़ी दूर चल चुके हैं, थोड़ा ओर दूर जाते हैं तो यूथ हॉस्टल (चौ॰ छुंगा हाईस्कूल के पास, लोंगोमाल, आइज़ोल) ख़ूबसूरत भवन से सिर उठाकर जैसे हमें ही देख रहा है, जान में जान आई। पाँच बजे हमने बेस कैम्प में रिपोर्ट किया। इस दस दिवसीय ट्रैक का कार्यक्रम वाई.एच.आई. छपे रुकसैक के साथ हमारे कैम्प लीडर फ्रैडी रोशगंकिमा ने किया, जिसे हम बाद में केवल फ्रैडी कहने लगे।
चार नवम्बर दो हज़ार सोलह के सात बजे हैं, हम निवृत्त होकर यूथ हॉस्टल से बाहर आते हैं। आइज़ोल के आंतरिक भागों में सफ़र के लिए लाल रंग की सिटी बस सस्ता और सुरक्षित माध्यम है। हम गपशप करते कुछ दूर चले, किशोर तावड़े अपनी व्यथा कह रहा है, कई बार मराठी शब्दों के चक्कर में बातचीत बाधित हुई और हम सोलोमन टेम्पल आ गए। जो मूलतः किडरन घाटी के सुरम्य परिवेश में स्थित है, सोलोमन टेम्पल वास्तव में एक गिरजाघर है जो आइज़ोल की संस्कृति का केन्द्र है। सोलोमन का बाहरी हिस्सा निर्माणाधीन है। आसमान में धूप की हल्की किरणों को घेरकर बादल फिर से अँधेरा कर रहे हैं, बे-आवाज़ कुछ बूँदे टपकना शुरू हो गई हैं। हम सभी ने बेस कैम्प लौटने का मन बना लिया है। एच. प्रकाश बाबू का मन किसी ढाबे पर चाय पीने का है, तभी भारत ने पाठ्यक्रम की तरह हमें पढ़ाना शुरू कर दिया कि—तेईसवें राज्य के रूप में मिज़ोरम को बीस फरवरी उन्नीस सौ सतासी को मान्यता मिली, पहले यह असम का एक ज़िला था। “तो फिर चाय रहने दें” किशोर तावड़े के इस प्रश्न के जवाब में भारत चुप हो गया, तो एच. प्रकाश बाबू ने कहा, “ओह . . .! चाय पीने की तलब भाषण पीना नहीं चाह रही।” हम सड़क के किनारे-किनारे चलते हुए एक ढाबे पर रुकते हैं। चाय पीने के बाद किशोर तावड़े ने भारत से कहा, “अब पढ़ाओ? मिज़ो नेशनल फ्रंट की राजनीति।” किशोर तावड़े के प्रश्न को अनसुना करते हुए भारत ने कहा, “कुछ और देखें-दाखें, घूमे-फिरें? या चलें बेस कैम्प।”
“चलो!” मैं और एच. प्रकाश बाबू तपाक से बोले। लाल रंग की सीटी बस में चढ़कर हम बेस कैम्प आ गए, ‘आह, जान बची (राजनीति पढ़ने से)’। हमारे ऐसे मनोभाव को लेकर अक्सर भारत बिदक जाता है। किशोर तावड़े भारत की अनुनय-विनय करते हुए उसे कोट पिठा (मिठाई) खाने को देता है।
“वाह! वाह!” कहते भारत ने खा लिया, और पूछा, “क्या था ये?”
किशोर तावड़े बोला, “कोटपिठा।”
“क्या? . . . क्या? ठोंक-पीटा?” आश्चर्य से हँसते हुए कहा और इस तरह चार नवम्बर दो हज़ार सोलह का दिन यादगार गुज़रा। ट्रैक का एक लाभ यह भी है कि हमें अपने अवचेतन को चेतन करने के लिए मस्तियों के अवसर हैं।
पाँच नवम्बर यानी बेस कैम्प से मूव करने का दिन आ गया, पहले कैम्प वैयॉनफो (Vaipuanpho) के लिए सिटी बस यूथ हॉस्टल के गेट पर आकर खड़ी हो गयी, बारिश अभी भी हो रही है। उनतीस ट्रैकर्स को लेकर बस ने रफ़्तार पकड़ ली है। लगभग एक घंटे बाद सभी ने ‘रेन शीट’ से रुकसैक और स्वयं को ढककर पैदल चलना शुरू किया, तीनों गाइड आगे, मध्य और पीछे हैं। सबने एक ग्रुप में अलग-अलग ग्रुप बना लिये हैं हमारे ग्रुप में मैं भारत, प्रकाश बाबू, और किशोर तावडे़ हैं, सभी बारिश में रेन शीट ओढ़े हुए आगे बढ़ने लगे। बस के फ्रन्ट ग्लास पर वाईपर की सट-सट घुर्र-घुर्र की आवाज़ में खो गयी। बारिश तेज़ होने लगी, इतनी तेज़ कि हम रेन शीट ओढ़ने के बाद थोड़ा-थोड़ा भीगने लगे हैं। यदि ऐसे ही बारिश होती रही तो अजूली जल प्रपात देखने का क्या ख़ाक आनन्द आयेगा। मैंने भारत को देखा उसके चेहरे पर भी यही शंका चिपकी हुई है। अजूली जलप्रपात की आवाज़ आ रही है, सघन हरा जंगल है ढलावदार पहाड़ी का रास्ता स्लीपरी हो गया है, बम्बू पकड़-पकड़ कर कुछ ट्रैकर जाने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ युवा साथी इस घनघोर बारिश का भी आनन्द ले रहे हैं। हम टोंग नदी के सहारे-सहारे चल रहे हैं, मौसम सर्दीनुमा हो गया है। हम सुनसान जंगल में पाँच-सात किलोमीटर चले आये हैं, दूर कैम्प साइट वैयॉनफो दिखाई दे रही है, पहुँचने पर मैं आश्वस्त हुआ। भारत को अजूली न देखने का दुःख है। “चाय पीलो यार!” किशोर ने कहा। भारत के मुँह से भी निकल पड़ता है, “हाँ-हाँ पीलो! इस रुकसैक को तो टैंट में रख ले आड़ू!” भारत चिल्लाकर बोला तो किशोर तावड़े भादों की संध्या की तरह मुँह फुलाकर खड़ रहा।
थकान पलकों पर उतर रही है, गाइड के बोलने की आवाज़ सुनाई पड़ी। एच. प्रकाश बाबू कुछ चबाता हुआ टैंट से निकला। ठंडी हवा ज़ोर पकड़ने लगी। देखते-देखते पहाड़ी से आता कोहरा कैम्प में फैल गया। किशोर तावड़े पुराना स्वेटर पहने, मल्टी परपज को कानों पर लपेटे, पास ही खड़ा चाय पी रहा है। दूर से बादल फटने की आवाज़ सुनाई दी। फिर घाटी से उसकी मद्धिम प्रतिध्वनि। ट्रैकर बेचैन हो उठे।
शाम के छह बजे हैं लेकिन बादलों के घटाटोप से अँधेरा हो गया है, गड़गडाहट और बिजली की कौंध, सामने नदी का वेग, ऐसा लग रहा है कि बारिश ज़ोरदार हो रही है। हम टैंट में उकड़ूँ बैठे चाय सुड़क रहे हैं। बारिश का पानी टैंट को अपने घेरे में लेता जा रहा है। मैं टैंट से देखता हूँ पानी का बहाव मन में भय-सा उत्पन्न कर रहा है। तभी बाबू भाई देसाई गुजराती और संजय हुबली भी हमारे टैंट में आ गये, एक टैंट में छह की व्यवस्था की हुई है। अब किशोर तावड़े की बाबू भाई देसाई से पूछताछ शूरू हुई—ये बारिश कब रुकेगी?
“बाबू भाई आप मौसमी विज्ञानी हैं या ज्योतिषी?” भारत ने जिज्ञासा से पूछा।
प्रकाश बाबू की हँसी के दौरान ही बाबू भाई ने किशोर तावड़े के प्रश्न का उत्तर दिया, “कुछ कहा नहीं जा सकता।”
‘जैसा बाजा वैसा नाच’—भारत ने कहा तो सबने ठहाका लगाया।
“न जाने कब रुकेगी; चलो डिनर कर लें”, कहकर भारत खड़ा हो गया और रुकसैक से प्लेट निकालने लगा, मैंने भी अपनी प्लेट भारत को थमा दी, मेरे लिए भी यहीं ले आना, बारिश की अनिश्चितता से पूरा दिन तो किरकिरा हो ही गया अब रात भी?”
प्रकाश बाबू ने अपना रुकसैक उठाया तो चिल्लाया, “कम्बल और रुकसैक उठाओ, पानी अन्दर आ गया।”
थोड़ी देर बाद ही दूसरे टैंटों से भी चीखने जैसी आवाज़ें आनी लगीं इसी समय बारिश की आवाज़ तेज़ होने लगी, किसी ने कहा बादल फट गया है। हठात् ध्यान उत्तराखण्ड चला गया . . . ज़ेहन में चिंता की एक लकीर-सी खींच गयी।
अब पूरे टैंट में पानी भर गया, नीचे बिछी हुई थर्मोकोल की सीट और उसके ऊपर के कम्बल भीग गये, एक कम्बल ओढ़कर उकड़ूँ बैठने के लिए सभी मजबूर हो गये। तभी गाइड का स्वर कौंधा—हरिअप! लीव दा टैंट!
“मामला क्या है? क्या हुआ?” मैंने पूछा
“बेस कैम्प से बात हुई है कैम्प साइट चेंज करनी है,” भारत ने कहा।
“अब, रात में?” मैंने कँपकँपाते हुए कहा
समस्या छोटी नहीं है, बारिश के कारण रास्ता स्लीपरी हो गया है, पहाड़ी के नीचे टैंट है सामने नदी और ज़ेहन में उत्तराखण्ड, मैंने आशंका भारत से शेयर की, तो भारत ने आश्वस्त किया—अरे नहीं ये तो हल्की-सी बारिश है, वो तो नदी का पानी गिरने से शोर ज़्यादा लग रहा है। इतनी बारिश में भूमि स्खलन? . . . चलो टार्च निकालो और टैंट से बाहर निकलो। फिर कंधों पर रुकसैक . . . उसके ऊपर रेनशीट और हाथ में टार्च लिये सभी ट्रैकर्स सिंगल लाइन में पहाड़ी चढ़ने लगे। ठंडी हवा जैसे हड्डियों तक में घुस जाने के लिए बेताब हो, अँधेरा इतना कि अपने ही हाथ-पाँव दिखाई न दें। अब किसी को डर लगे तो लगे। पुरज़ोर कोशिश के बाद दस बजे, बस तक पहुुँच गये, बस में बैठकर सभी के अन्दर उमंग-उल्लास की पंखुड़ी खुलने लगी, और मेरे अन्दर तो पुष्प खिल उठा। रात के ग्यारह बजे हम अलोंग गाँव के कम्यूनिटी सेंटर पहुँचे, जहाँ वाईएचएआई की समर्पित व्यवस्था देखकर कई साथियों ने कम्बलों का ही अतिक्रमण नहीं किया, बल्कि कुरसी, डेस्क और खिड़कियों पर गीली मोज़े, तौलिये, अण्डरवियर, छेदों वाली बनियानें और फटी लोवर सूखने के लिए डाल दी हैं, जिससे पूरा कम्यूनिटी सेंटर विस्थापितों का सेंटर लगने लगा है।
यह अलोंग (Ailawang) गाँव छोटी-सी पहाड़ी पर है जिसमें रेन हार्वेस्टिंग, आँगन, बाथरूम, टॉयलेट, कपड़े सुखाने के तार, सदाबहार फूलों के पौधे, अमरूद, पपीते, केले आदि फलों के पेड़, सूअर और कुत्तों के बाड़े (मांसहारी भोजन में कुत्ता यहाँ की ख़ासियत है) लेमन ग्रास और बम्बू सब कुछ फ़्रेश है और सबसे बड़ी बात सभी के चेहरे पर ख़ुशियाँ हैं, जो प्रत्येक रविवार को प्रस्फुटित होती हैं। इसी गाँव में एक गुफा है जिसका नाम प्रसिद्ध मिज़ो योद्धा खुआंगचेरा के नाम पर रखा गया है। जो उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक यहाँ रहता था। इस गुफा में अंधविश्वास के कारण हर कोई प्रवेश करने से डरता था। आख़िरकार खुआंगचेरा ने इसकी तह तक जाने का फ़ैसला किया। तब से गुफा ‘खुआंगचेरा गुफा’ के नाम से जानी जाती है।
आज हम मुँह अँधेरे ही उठ गये और पूरे गाँव का चक्कर मार दिया, ना तो हमें भौं-भौं करते कुत्ते मिले और नाही कोई गंदगी का ढेर, हाँ धार मारने के लिए सार्वजनिक पेशाबघर और जगह-जगह डस्टबिन रखे हुए हैं, जो हमने किसी गाँव में पहली बार देखे। सामने चर्च है हम उसकी दो तीन सीढ़ियाँ चढ़ते हैं तो बायीं तरफ़ के बरामदे में घड़ियाल बजने लगता है, मुख्य पादरी ईसा मसीह की प्रतिमा के सामने कुछ पढ़ रहे हैं। गाँव के बीचों बीच बने इस चर्च में हमारा मन श्रद्धा से विभोर है सीढ़ियाँ उतर कर हम मुख्य सड़क पर आ गये हैं। यहाँ संप्रेषण की समस्या से जूझना पड़ रहा है। अधिकांश लोग मिज़ो में बात करते हैं, हिन्दी में सम्प्रेषण काम चलाऊ हो जाता है। चर्च को लेकर भारत का भाषण शुरू हो गया है। वह बोलता जा रहा है कि यहाँ अधिकतर लोग मिज़ो हैं जिनमें अट्ठानवें प्रतिशत लोगों की आस्था ईसाई धर्म में है। चर्च से जुड़े दूसरे प्रश्नों पर वह बोलना चाहता है, लेकिन हमारी उपेक्षा को देखकर चुप लगा जाता है।
बारिश थम चुकी है, पहाड़ी का नैसर्गिक सौन्दर्य देखकर हम चकित हैं, सच पूछें तो अद्भुत, अकल्पनीय वाला सौन्दर्य। शायद यहाँ का वातावरण ही ऐसी प्रकृति से संपृक्त हो गया है कि देवलोक की कल्पना हम ऐसी जगह देखकर करते हैं। वास्तव में वाईएचएआई पूरे देश में ट्रैक के माध्यम से राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने के साथ-साथ पर्यावरण की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने की सार्थकता सिद्ध करता है। कुछ देर खड़े रहकर गर्दन हिलाते हुए, कमर पर उल्टी हथेलियाँ टिकाकर, सीना बाहर करते हुए भारत ज़ोर से चिल्लाया . . . हुताच! और हम कैम्प की ओर बढ़ गये। अब हम ‘रीक’ के घने हरे-भरे शीतोषण पेड़ों और झाड़ियों से गुज़र रहे हैं। रीक पहाड़ी मिज़ोरम का प्रमुख पर्यटन स्थल है। रास्ते में बाँस के घने जंगल हैं, कभी-कभी मनमोहक महक नथुनों में घुस जाती है जिसे हम खोजते रहे, परन्तु नहीं खोज पाये। हम सभी सँकरी पगडंडी के सहारे नीचे नदी ओर बढ़ रहे हैं जहाँ लकड़ी का पुल है जो पहाड़ी के एक भाग से सुरक्षित है और ढलान के सहारे पत्थरों में होता हुआ जोंक प्रभावित जंगल में पहुँचता है। हर एक ट्रैकर को बेस कैम्प में नमक साथ रखने की सलाह दी गयी थी। जंगल के बीच पगडंडी में बड़े तीव्र मोड़ हैं, मैं पैर ज़मीन पर पीट-पीट कर चल रहा हूँ। कोशिश है कि कोई जोंक पैर पर चढ़ न पाये, पगडंडी समतल होने पर मैंने मोज़े नीचे किये। “नहीं है?” भारत ने कहा।
मैं भी आश्वस्त हुआ और मोज़े पूर्ववत् कर लिए।
“साल्ट प्लीज़,” किशोर तावड़े चिल्लाया।
किशोर के पैर पर जोंक चिपकी देखकर, मैं कँपकँपा गया, किशोर एक पत्थर पर बैठ गया, भारत ने जोंक के मुँह पर नमक लगाया तो तुरन्त हट गयी, “और चैक कर लो मोज़े उतार कर, मुझे देखने दो,” भारत अलग हट गया किशोर ने पैंट नीचे खिसका दी—देखना?
“हाँ, एक है।”
“कौन सी तरफ़ है?”
“यहाँ,” भारत ने पीछे हाथ लगाकर बताया।
किशोर तावड़े फिर चिल्लाया—अबै नमक लगा? हटाओ तो?
“अबै आड़ू! ये जोंक तेरे पिछवाड़े ख़ून चूसने के लिए थोड़ै ही चढ़ी है,” भारत ने मज़ाक़ किया।
“श्योर,” प्रकाश बाबू मुस्कराया।
किशोर तावड़े की चीख सुनकर फ्रैडी किशोर तावड़े के पास आकर बोला, “आर यू ओके।”
“अरे यार! ये बिल्कुल ठीक है,” भारत ने जवाब दिया।
शायद किशोर जोंक के प्रति इतना सेंसटिव हो गया था कि दो मिनट तक चुप खड़ा रहा और तब आगे बढ़ा तब फ्रैडी ने कंधे पर हाथ रखकर दोबारा आर यू ओके कहा।
भारत ने सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, और हम पहाड़ी के बीच ऊपर चढ़े, बाँस के पेड़ दोनों किनारों पर हैं, पेड़ों के बीच से नदी दीख रही है जिसका पानी साफ़ और उथला है, नदी नीची है और संकीर्ण पानी की धार के साथ पत्थरों का विस्तार है। रास्ते में मतीरा और संतरे के पेड़ हैं। पेड़ों के बीच से गुज़रती पगडंडी में आगे पीछे तीव्र चढ़ाई और ढलान हैं। पगडंडी अन्ततः एक स्लीपरी चट्टान के सहारे आकर समतल हो गयी है, जहाँ शाम के धुँधलके में कैम्प का वेलकम वाला बैनर दिखायी दे रहा है। जिसके पूरब में सड़क है जहाँ वाईएचएआई का कैंटर ज़रूरी सामान लेकर बेस कैम्प से आ रहा है। सड़क के विपरीत दिशा में एक नदी है, मुख्य सड़क से कैम्प लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर है।
भारत हाथ ऊपर करके चिल्लाया . . . “हुताच!” ये नघलचवम (Nghalchawm) है जिसे यूथ हॉस्टल एसोसिएशन की मिज़ोरम शाखा ने कैम्प साइट के रूप में चुना है। आठ नवम्बर दो हज़ार सोलह और शाम के चार बजे हैं। देश में विमुद्रीकरण का समाचार हमें इसी गाँव में मिला जिस पर संजय हुबली की आलोचनात्मक टिप्पणी जायज़ ही लगी कि मोदी सरकार कुछ अधिक ही तिमिलाहट में ऐसे निर्णय ले रही है। थोड़ी देर बाद संजय हुबली ने अपने पर्स से एक हज़ार का नोट निकालकर चूमा और कहा अलविदा प्यारे नोट . . . अब तू स्मृतियों में उभरना। हम सब चुप खड़े संजय हुबली के नाटक को देखते रहे। संजय हुबली भी थोड़ा-सा शरमाकर हल्के से मुस्कुराया। सभी प्रसन्न दीख रहे हैं। सभी का मन आनन्द से भरा है। तभी फ्रैडी ने कहा, “सर! कैम्प लोकेशन पसन्द आया?” अद्भुत! वाई.ऐन.ए.आई. की मिज़ोरम शाखा ने कैम्प के लिए ख़ूबसूरत जगहों का चुनाव कर उन्हें क़रीने से सजाया है। बाँस को काटकर उनके अन्दर तेलयुक्त कपड़ा डालकर मशालें जलाई गयी है जो एक लाईन में हैं शायद दस ग्यारह। अंतूर का सूप हम लोग पी रहे हैं, एच. प्रकाश बाबू के साथ किशोर तावड़े परेशान-सा खड़ा हुआ है, वह बहुत थका हुआ दीख रहा है और भारत को थकने की जैसे आदत नहीं।
“टेकचन्द लाया हूँ,” . . . भारत ने कहा। “यह ऑफ़िसर्स चॉयस की बोतल है, जो किशोर तावड़े को पसन्द है।”
“तूझे कहाँ से मिली?” एकदम चौकन्ने अंदाज़ में टहलता हुआ किशोर तावड़े भारत के आगे आकर रुका और भारत के चारों तरफ़ ऐसे घूमा जैसे परिक्रमा कर रहा हो। फिर एक जगह इत्मीनान से खड़ा हो गया। उसने दाहिने हाथ में पकड़ी बोतल को अपने सिर के ऊपर उठाया। अब ये दोनों उस काम को अंजाम देने वाले हैं जो मुझे और एच. प्रकाश बाबू को क़तई पसन्द नहीं है। वाई.एच.ए.आई. भी इसकी अनुमति नहीं देता।
“अरे नहीं, नहीं, यहाँ नहीं? अपना टैंट देख लीजिए,” भारत ने भौंहे सिकोड़कर कहा। यह बात किशोर तावड़े को पसन्द आयी और बोतल को सम्भालता हुआ तावड़े टैंट की ओर चला गया। एच. प्रकाश बाबू ने एक उसास भरी।
“कहाँ जा रहे हो सर?” फ्रैडी ने किशोर तावड़े से पूछा।
“टैंट में, पानी पीने, प्यास लगी है,” भारत भी उसके साथ चल दिया।
“देखो सर! डिनर के समय आ जाना,” फ्रैडी ने पीछे से चिल्लाकर चेताया।
डिनर के समय दोनों धचकोले-से खाते आ गए, हमारे साथ डिनर किया और सो गए।
मैंने अपनी आँखें खोलीं ऐसा लगा बाँस से निकलकर ताज़ी हवा का एक झोंका टैंट से सरसराता हुआ निकल गया। शायद सवेरा शुरू हो रहा है। पूरब में उजाला बढ़ रहा है। टैंट में सभी उठ गए हैं। भारत और किशोर तावड़े अभी सो रहे हैं। सिर झुकाकर फ्रैडी विदा ले रहा है और बेस कैम्प की ओर चल दिया है। ओके फ्रैडी! फिर किसी ट्रैक पर मिलेंगे।
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Bhoopendra Maycha 2024/09/11 01:41 PM
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