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वज़नी ट्रैकर

 

काफ़ी देर तक साइकिल चलाते-चलाते जब संजीव वर्मा थक गए, वे एक चाय की दुकान पर रुके।  युकसुम में किसी घर के बरामदे में बेंत की कुर्सियाँ और मेज़, वहीं चाय की दुकान है। अन्दर से ब्लैक टी के पकने की महक आ रही है। चैन की लम्बी साँस लेकर संजीव वर्मा ने अपनी आँखें बन्द कीं और अपने सर को कुर्सी से टिकाकर अपनी फूलती साँस को सम्भाला, फिर अपने घर फोन मिलाया। युकसुम आ गया हूँ, ट्रैक पूरा होते ही लौट आऊँगा। 

लेकिन घर से लगाव के इस नज़ारे में खोए उनकी पत्नी के शब्द सुनाई नहीं दिए। पत्नी किसी की भी हो, अपना लगाव दर्शाती ही है, ध्यान रखना, दवा समय पर ले लेना, कुछ गिले-शिकवे। 

संजीव वर्मा भी बीच-बीच में रास्तों के आसपास की जगहों, देवी-देवताओं एवं मोनेस्ट्री के बारे में काफ़ी कुछ विस्तार से बता रहे थे। 

इतने में होम स्टे की मालिकिन किचन ड्रैस पहने चाय लेकर आ गयी। संजीव वर्मा के चेहरे को जैसे खींचते हुए उसने कहा, “ट्रैक पर जितना सामान कम होगा उतना ही आनन्द बड़ा होगा, और आपने तो पूरा घर ही लाद रखा है।”

” . . . ” संजीव वर्मा चुप। 

उसी रास्ते पर धूप की लुका-छिपी संजीव वर्मा को जैसे नज़र अंदाज़ करके चले जा रही थी। 

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