पोर्टर
कथा साहित्य | लघुकथा भीकम सिंह1 Oct 2023 (अंक: 238, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
कसोल छूट गया है। बारिश हो रही है। पहाड़ से सौंधी गंध आ रही है। चीड़, हिमालयन ओक, रोडोडेंड्रोन सब धुल रहें हैं। आधे लकड़ी आधे पत्थर के काॅटेज भी धुल रहें हैं। हमें सार-पास जाना है। रेनशीट से मेरा रूकसैक छितरा गया है।
मैंने ज़ोर से पुकारा, “भारत!”
वह मुस्कराकर बोला, “क्या वज़न लग रहा है?”
“हाँ लग तो रहा है,” सहमते हुए मैंने कहा।
“पोर्टर कर लो,” और कुछ बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया।
ट्रैकर की लंबी लाइन धीमी गति से चढ़ती जा रही है। मैं चाहकर भी सबसे आगे नहीं निकल सका और अपनी धीमी गति के कारण लाइन के पीछे-पीछे चढ़ता गया, मानो उनका अनुयायी बन गया होंऊ। बारिश रुकी तो गाईड ने भी रुकने का इशारा किया। पोर्टर ने भी मेरा रूकसैक पहाड़ की पीठ पर रखकर अपने हाथ खोले ताकि उन्हें विश्राम मिले। तब मेरा ध्यान उसकी काया और अवस्था पर गया। वह कमज़ोर-सा वृद्ध था, परन्तु उसके चेहरे पर संतोष का तेज विद्यमान था। उसकी मांसपेशियों से बहता पसीना मुझ में अपराध बोध-सा भर रहा था। पहाड़ कोहरे का लिहाफ़ ओढ़े कभी-कभी मुँह दिखा रहे थे। मैंने कुछ अटपटा सोचा।
मैं तेज़ क़दम उठाकर पोर्टर तक पहुँचा और अपना रूकसैक उठा लिया। उसके चेहरे पर तनाव के भाव उभर आये। लेकिन मैं हल्का महसूस करने लगा। थोड़ी देर उसने मेरे साथ-साथ चलने का उपक्रम किया। मैंने उसके द्वारा तय पाँच सौ रुपये दिए तो वह अगले ही मोड़ से मुड़ गया, और प्रत्युत्तर में मुस्कुराते हुए उसने हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा दिए। सनसनाते चीड़ों ने भी कोई राग अलाप दिया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
शोध निबन्ध
यात्रा-संस्मरण
कविता
कविता-ताँका
- प्रेम
- भीकम सिंह – ताँका – 001
- भीकम सिंह – ताँका – नदी 001
- भीकम सिंह – ताँका – नदी 002
- भीकम सिंह – ताँका – नव वर्ष
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 001
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 002
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 003
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 004
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 005
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 006
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 007
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 008
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 009
- भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 010
लघुकथा
कहानी
अनूदित लघुकथा
कविता - हाइकु
चोका
कविता - क्षणिका
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं