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बेतुकी

 

तुंगनाथ चोपता ट्रैक का जो वाक़या बताने जा रहा हूँ उसे हुए एक लम्बा अरसा गुज़र चुका है। अब कोई वजह नहीं है कि उसके बारे में अब तक साधी हुई चुप्पी को ना तोड़ूँ।

हम पाँच तुंगनाथ चोपता के ट्रैक पर थे। रात में ताज़गी भरी थी। अशोक ने जैसे सिगरेट सुलगायी, भारत ने लिहाफ़ में मुँह छिपा लिया। इरशाद ने अन्दर से दबी हुई मुस्कराहट बिखेरी और मुँह पर हाथ फेरकर लिहाफ़ में ही घुसा रहा। मैंने खिड़की दरवाज़े खोल दिए, अब कमरे में ताज़ा हवा थी। भारत को सिगरेट से चिढ़ है, इसलिए उसके मन में तरह-तरह की भावनाएँ आती-जाती रहीं, और सुबह हो गयी। नित्य क्रियाओं से निपटकर हमने दस बजे से बम-बम हर-हर करते हुए तुंगनाथ की चढ़ाई शुरू कर दी। मौसम बहुत अच्छा था। मन भी बहुत ख़ुश था। सहसा मैंने अनुभव किया कि कोई बूँद मेरे बायें कान पर पड़ी। मैंने कहा, “शायद बारिश आते-आते रास्ते में ठहर गयी है। बादल काले-काले हो तो रहे हैं, मूसलाधार हो जाए तो आनन्द आ जाए,” और ठहाका लगा दिया। 

भारत कटकर रह गया, तेल जले तेली का . . . वाली शैली में। और मेरी ऊँट-पटांग बातों पर ‘हूँह’ कहकर मुँह टेढ़ा कर हँसने का उपक्रम किया। 

अशोक मुस्कराने लगा और इरशाद की पीठ पर धौल जमा दी। 

संजीव वर्मा चुपचाप फोटो शूट कर रहा था। 

मैंने संजीव वर्मा से कहा, “भारत की हाँ में हाँ ना मिलाओ तो मुँह कुप्पा हो जाता है।”

यह सुनते ही भारत की हँसी बीच में ही गुम हो गई, उसने पीछे घूमकर देखा, इरशाद के साथ अशोक क़दम से क़दम मिलाकर चला आ रहा है। अशोक ने माचिस और सिगरेट का पैकेट दो-तीन बार बाहर हाथ में निकालकर फिर जेब में रख लिया। 

तुंगनाथ के प्रवेश द्वार से पहले कई दुकानें हैं जहाँ पारम्परिक पूजा की सामग्री मिलती है। मैंने भारत से पूछा, “पूजा की सामग्री लेनी है?” वह उत्तर दिए बिना आगे बढ़ गया। यह बात मुझे चुभ गयी, अजीब आदमी है!! 

मंदिर की सीढ़ियों पर पाँव रखते ही घंटे की टनटनाहक कानों से होती हुई मस्तिष्क में प्रवेश कर गयी। 

संजीव वर्मा को भारत की मासूम नाराज़गी पर हँसी आ गई। संजीव वर्मा की हँसी थमी तो मैंने देखा भारत माथे पर बड़ा-सा तिलक लिए हमारी ओर आ रहा है। हम मंदिर के प्रांगण में जहाँ जूते उतारे थे, वहाँ बैठे थे। उसके हाथों में प्रसाद का पुड़ा भी था जिसे इरशाद को देते हुए वह उसी के पास बैठ गया। 

मुझे मन ही मन हँसी आई। भारत के अन्तर्जगत में मेरे प्रति एक कोलाहल गर्जना कर रहा था। फिर भी उसने कहा, “अभी एक भी नहीं बजा है। समय काफ़ी है और ऊखीमठ कोई दूर नहीं है, वहीं कहीं होम स्टे करते हैं।”

“ऊखीमठ! ऊखीमठ!” मैंने दोहराया। 

अशोक का ठहाका लगा। 

भारत ने टकटकी बाँधे मुझे देखा तो उसकी आँखों की अभिव्यक्ति बदली हुई थी। 

भारत रोषपूर्वक बोला, “ऐसा क्यों है मेरे साथ? मुझे हर ट्रैक पर अपमानित क्यों होना पड़ता है?” 

वह थका हारा लग रहा था। 

पहली बार संजीव वर्मा ने उसे भाई सहाब कहकर सम्बोधित किया, “भाई सहाब! आपके इस प्रश्न का मेरे पास कोई जवाब नहीं है, लेकिन आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि अशोक के हँसने भर से आपका अपमान हो जाता है?” 

दो पल चुप रहने के बाद भारत बोला, “आप शायद सोचते होंगे कि मेरा व्यवहार कुछ अजीब-सा है या यह कि अकेलेपन ने मुझे बौरा दिया है, पर यहाँ बात ऐसी नहीं है। दरअसल ‘डाकडर’ की काली ज़ुबान से मेरा मस्तिष्क उखड़ जाता है।”

मैंने चौंककर भारत की ओर देखा, अशोक मुस्कुराते हुए बोला, “भारत भाई! ग़ुस्सा थूको, फोटो खिंचवाओ?” 

मैंने कहा, “दोनों जणी।” 

अशोक का ठहाका फिर लौटा, और नारे में तब्दील हो गया। 

“ऊखीमठ! ऊखीमठ!” 

थोड़ी दूरी पर खड़े भारत ने अपना माथा पीट लिया। 

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