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नाक के लिए

 

इन दिनों कोई काम न होने के कारण लरैनबीर समाजसेवी हो गए। पैसों से निश्चिंत आदमी जब ख़ाली होता है, तो वह समाजसेवी हो जाता है और कार्य-क्षेत्र नाक का सवाल हो जाता है। लरैनबीर भी विद्या सभा के सदस्य हो गए, जिसमें बिरादरी के बड़े-बड़े लंपट भी शामिल हैं, जो नाक के लिए अनुलोम-विलोम करते रहते हैं। लरैनबीर अक़्सर विद्या सभा की ओर से आयोजित सजातीय नेता सम्मान समारोहों में भाग लेते और सबको नैतिक सलाह देते, हालाँकि उन्होंने हमेशा अनैतिक लोगों का ही समर्थन किया। अपने लम्बे जीवन में शिक्षकों से ही नहीं प्रधानाचार्यों से भी ऐसा व्यवहार किया कि अचम्भा भी खड़ा हो जाए। 

आज भी लरैनबीर ने भौंहें सिकोड़कर बस इतना कहा, “मुझे कुछ नहीं सुनना, इसी वक़्त निकल जाओ।”

लम्बा-चौड़ा प्रधानाचार्य धीरे-धीरे कुर्सी से खड़ा हुआ, उसका चेहरा भावशून्य था, अलमारी से बैग उठाकर धीमी चाल से दरवाज़े की ओर बढ़ा, फिर क्षण भर रुका, फिर घूमकर देखा। 

लरैनबीर बोले, “क्यों, टैक्सी बुलाऊँ?” 

प्रधानाचार्य ने चश्मा उतारकर रूमाल से मुँह पोंछा और उसे पैंट की जेब में रखते हुए कहा, “मैं बीस बरस से निर्विकार भाव से आपके हुक्म का पालन करता आया हूँ, और आज?” 

लरैनबीर क्रोधित भंगिमा बनाए बैठे रहे और मन ही मन ख़ुश हुए। छोटी-छोटी दुष्टता भरी आँखें नाचती रहीं। लम्बी होती नाक पर बड़ी देर तक हाथ फिरता रहा। 

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