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खेद है

 

रेलवे रोड की प्रेस संपादक महोदय के जीवन का अंग है, जहाँ से वह दैनिक समाचारपत्र निकालता है। स्थानीय लोग छपने-छपाने को आते रहते हैं तो कुछ गप-शप करने को।

आज भी वहाँ एक सज्जन आए तो सम्पादक ने मुझसे पूछा, “क्यों डाॅक्टर साहब! इन्हें पहचानते हो?”

“कौन अब्दुल रज्जाक, क्यों नहीं? मेरे ही गाँव के हैं,” मैंने गर्दन उठाकर कहा।

उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी पहचान की ऐसी दुर्गति होगी। उसके सामाजिक अस्तित्व को इतनी आसानी से नकार दिया जाएगा। अच्छी ख़ासी हैसियत का आदमी मामूली दर्ज़ी के रूप में पहचाना जाएगा।

वह झल्लाया हुआ प्रेस से बाहर निकल आया, डॉक्टर के शब्द उसका पीछा करते रहे, जैसे अब्दुल रज्जाक की कैंची उसकी पीठ में चुभ रही हो, परन्तु उसने पलटकर नहीं देखा।

सम्पादक उसे जानता था कि वह रणवीर प्रधान है। उसने भारी मतों से ज़िला पंचायत सदस्य का चुनाव जीता है और आज प्रेस में विज्ञप्ति देने आया है, इसलिए ख़बर छप गई, परन्तु फोटो के नीचे अब्दुल रज्जाक छप गया था ना जाने कैसे, जिसे ‘खेद है’ शीर्षक के साथ अगले दिन रणवीर प्रधान छापा गया।

अगला सवेरा बहुत ख़ामोशी से सरक रहा था। उजली-निखरी धूप प्रेस में पसरी हुई थी, तभी रणवीर प्रधान सम्पादक को चार-छह गालियाँ बकने के बाद बेहद निराश स्वर में बोला, “मिझे पता है अच्छी तरयों इखबारों की करतूतें और पतरकारों के पेंच और खम, पीसे ले-ले छापे हैं सही, वरना खेद है।”

सम्पादक शरारत भरी मुस्कान मुस्काता रहा। रणवीर प्रधान ‘खेद है’ की सहानुभूति का बंडल लिए गाँव लौट गया।

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