अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

खेद है

 

रेलवे रोड की प्रेस संपादक महोदय के जीवन का अंग है, जहाँ से वह दैनिक समाचारपत्र निकालता है। स्थानीय लोग छपने-छपाने को आते रहते हैं तो कुछ गप-शप करने को।

आज भी वहाँ एक सज्जन आए तो सम्पादक ने मुझसे पूछा, “क्यों डाॅक्टर साहब! इन्हें पहचानते हो?”

“कौन अब्दुल रज्जाक, क्यों नहीं? मेरे ही गाँव के हैं,” मैंने गर्दन उठाकर कहा।

उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी पहचान की ऐसी दुर्गति होगी। उसके सामाजिक अस्तित्व को इतनी आसानी से नकार दिया जाएगा। अच्छी ख़ासी हैसियत का आदमी मामूली दर्ज़ी के रूप में पहचाना जाएगा।

वह झल्लाया हुआ प्रेस से बाहर निकल आया, डॉक्टर के शब्द उसका पीछा करते रहे, जैसे अब्दुल रज्जाक की कैंची उसकी पीठ में चुभ रही हो, परन्तु उसने पलटकर नहीं देखा।

सम्पादक उसे जानता था कि वह रणवीर प्रधान है। उसने भारी मतों से ज़िला पंचायत सदस्य का चुनाव जीता है और आज प्रेस में विज्ञप्ति देने आया है, इसलिए ख़बर छप गई, परन्तु फोटो के नीचे अब्दुल रज्जाक छप गया था ना जाने कैसे, जिसे ‘खेद है’ शीर्षक के साथ अगले दिन रणवीर प्रधान छापा गया।

अगला सवेरा बहुत ख़ामोशी से सरक रहा था। उजली-निखरी धूप प्रेस में पसरी हुई थी, तभी रणवीर प्रधान सम्पादक को चार-छह गालियाँ बकने के बाद बेहद निराश स्वर में बोला, “मिझे पता है अच्छी तरयों इखबारों की करतूतें और पतरकारों के पेंच और खम, पीसे ले-ले छापे हैं सही, वरना खेद है।”

सम्पादक शरारत भरी मुस्कान मुस्काता रहा। रणवीर प्रधान ‘खेद है’ की सहानुभूति का बंडल लिए गाँव लौट गया।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

कविता

कविता-ताँका

लघुकथा

कहानी

अनूदित लघुकथा

कविता - हाइकु

चोका

कविता - क्षणिका

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं