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मुखौटा 

 

गाईड ने एक-एक करके सभी के चेहरे पर टाॅर्च की सीधी रोशनी डाली। यद्यपि गाईड सभी का चेहरा नहीं देख पा रहा था—झीनी रोशनी के घेरे में शरीर का ढाँचा भर देख पा रहा था। ट्रैकर से जितना बन पड़ रहा था, वो ब्रह्मताल सम्मिट पाॅइन्ट की ओर खिसक रहे थे। आकाश का अधिकांश हिस्सा साफ़ हो चुका था। एक-आध तारा ही चमक रहा था। सभी ने अपनी टाॅर्च बन्द कर ली थी। पीठ पर रूकसैक चिपकाये, 11227 फ़ीट की ऊँचाई पर चढ़ आये थे। पैरों में ताक़त नहीं थी। आली बुग्याल के पीछे पहाड़ पर लालिमा जैसा दिख रहा था। धड़कने थामे हुए सभी ट्रैकर कैमरों का शटर खोल रहे थे। एक जनवरी दो हज़ार तेईस के सूर्योदय की थोड़ी-सी रोशनी ऊपर उठकर पहाड़ों को प्रकाशित कर रही थी। ट्रैकर का फोटो शूट अनवरत चल रहा था। सूर्योदय हो चुका था। अभी वह पेड़ की दो शाखों के बीच टिका था। लेकिन देखते-देखते ऊपर चढ़ गया। झंडी टाॅप पर आते-आते सूर्य देवता सिर पर आ चुके थे। मैंने चारों ओर निगाह दौड़ायी। डॉ. ईश्वर सिंह कहीं नहीं दिखे। ब्रह्मताल नज़रों से ओझल हो रहा था। प्रतीक्षा की परिधि में छटपटाते हुए मेरा धीरज टूट गया, सभी को बड़ी तेज़ भूख लगी थी। सभी परेशान थे। आधा घंटे की भाग दौड़ के बाद गाईड डॉ. ईश्वर सिंह को लेकर झंडी टाॅप पहुँचे। उनके हाथों में अजीब-सी वनस्पति थी। 

उन्हें देखकर अशोक बोला, “सर! यू आर लुकिंग लाइक ए बाॅटनिस्ट, पक्के वनस्पतिज्ञ।”

मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “इन पर हमेशा शोध का भूत सवार रहता है, ट्रैक तो इनकी प्रायोगिकी का धरातल होते हैं और वनस्पति निष्कर्षों की पृष्ठभूमि। इस ट्रैक पर ही देख लो, इनके अन्दर सोया हुआ ट्रैकर जागृत हुआ? नहीं ना? इनके शोध की क्रियान्विति के रूप में इन्हें आज ‘लाइकेन’ प्राप्त हुआ है।”

डॉ. ईश्वर सिंह भी ट्रैकर का मुखौटा लगाए ‘लाइकेन’ में शोध की अनुभूतियों से भरे थे। 

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