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भभूल्या

 

खेत की मेड़ों से चढ़ता-उतरता स्वछन्द भभूल्या खलिहान से सब उड़ाकर ले गया। खेत मेड़ों से उचक-उचक कर देखता रहा। किसान के प्रलापों के बाद हवा थमने लगी। मंद-मंद बयार बहने लगी। खेत काफ़ी देर तक अनमना-सा पड़ा रहा, एक उदासी-सी वह महसूस करने लगा। बार-बार वह प्रकृति के इस क़हर को कोसे जा रहा है। उसकी पीठ पर फटी हुई कमीज़ें, सलवार और पॉलीथिन की थैलियाँ रेंग रही हैं। खलिहान में सन्नाटा भाँय-भाँय कर रहा है। 

खेत ढाढ़स बँधाती निगाह से किसान को देखकर बुदबुदाया, “उठो! कुछ आस-पास का झाड़-बुहार लो।”

किसान एक शब्द नहीं बोला। 

किसान को सदमे ने ढक लिया, वह ट्यूबवैल के आठ बाई आठ कमरे में बोरा बिछाए . . . घुटने मोड़े . . . सिमटा हुआ बैठा रहा। 

धप्प से आवाज़ हुई। कहीं कुछ गिरा। किसान चौकन्ना हुआ। धप्प सुनकर हड़बड़ाया किसान खड़ा हो गया। बाहर निकला। क्या गिरा . . .? कहाँ . . . उसने दाएँ-बाएँ घूमकर देखा। 

नज़र आया ट्यूबवैल के ऊपर बिजली का खम्बा गिरा है। 

उसके बाद काफ़ी दिनों तक किसान नज़र नहीं आया। खेत तरह-तरह के क़यास लगाता रहा और जो आपदा झेलना भाग्य में लिखा था उसे खेत झेलता रहा . . . खेत रहने तक। 

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