केदार कांठा: यात्रा संस्मरण
संस्मरण | यात्रा-संस्मरण भीकम सिंह15 Feb 2024 (अंक: 247, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
केदार कांठा ट्रैक के लिए यूथ होस्टल एसोसिएशन का आधार शिविर सांकरी था। जो जॉली ग्रांट हवाई अड्डा, देहरादून से लगभग 211 किलोमीटर की दूरी पर है। जॉली ग्रांट हवाई अड्डा देहरादून शहर के बाहर है और हवाई अड्डे से सांकरी जाने के लिए कोई बस नहीं है, यहाँ से टैक्सी से ही सांकरी पहुँचा जा सकता है, दूसरे देहरादून रेलवे स्टेशन से सुबह 5:30 बजे, 6:30 बजे और 8:00 बजे बस निकलती है, तीसरे देहरादून से जाते समय मसूरी से 6 किलोमीटर पहले ही यूथ होस्टल मसूरी है, जहाँ रिपोर्टिंग करने के बाद भी सांकरी आधार शिविर पहुँचा जा सकता है, जो यूथ होस्टल मसूरी से 180 किलोमीटर की दूरी पर है हमने यही रास्ता चुना। 23 दिसम्बर 2020 को ही मैं, संजीव वर्मा, इरशाद, राजीव, अलंकार और अशोक भाटी यूथ होस्टल मसूरी में आकर टिक गये थे। यूथ होस्टल की कोई ख़ास बात याद नहीं है, हाँ, इसकी पृष्ठभूमि में मसूरी झील हैं जिसमें जल मुर्गी और बत्तखों का जमावड़ा है, झील के किनारे पर रज्जू मार्ग का आनन्द कराने के लिए यह झील काफ़ी प्रसिद्ध हो गयी है। यूथ होस्टल में ही अधिक समय तक विश्राम करने की इच्छा हुई।
वाई.एच.ए.आई. ने मसूरी यूथ होस्टल से बस की व्यवस्था की है। बस चौबीस दिसम्बर 2020 की सुबह 7:30 बजे आकर खड़ी हो गयी है, 31 ट्रैकर अपने-अपने ‘रुकसैक’ लेकर बस में चढ़ गये हैं। ऊँची-नीची टेढ़ी-मेढ़ी पहाड़ियों की परिक्रमा सी करती हुई हमारी बस चली जा रही है। मसूरी यूथ होस्टल से सिया गाँव, कैम्पटी गाँव, रूयार्शी, सैनजी गाँव, भटौली, नैनबाग, डामटा, रिखाऊ, सारीगाड़, चामी, नौ गाँव होते हुए चाय के लिए पुरौला में रुकी। बीच-बीच गाँवों में उपजाऊ खेत, जिनमें गेहूँ, मक्का, मटर, मसूर, तुअर दिखे। पाजामा, लंबा सा चोग़ा, टोपी पहने सीधे सादे लोग दिखे, औरतें ऊनी साड़ी पहने दिखीं। मुख्य जीविका मिश्रित खेती ही है। दूर-दूर तक फैले चीड़ के पेड़ हैं जो वन के रूप में ‘डेरी का गढ़’ से शुरू हो गये हैं। बर्फ़बारी यहाँ हुई होगी जिसके चिह्न यहाँ-वहाँ दिखायी दे रहे हैं। संजीव वर्मा पुरौला में ऐसे ही किसी लैण्डस्केप का फोटो शूट करना चाह रहा था। तभी बस ड्राइवर ने हॉर्न बजा दिया। आधा दिन रहा बस फिर चली।
पूरा रास्ता मनोहर है। कहीं-कहीं खेतों की मेड़ों पर गाय-भैंस चरती दिख रही हैं। दोनों ओर ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ हैं जिन पर खड़े चीड़ों के बड़े-बड़े पेड़ आसमान चूम रहे हैं, बीच-बीच में चरवाहे भी दिख जाते हैं। हल्की बर्फ़ से आच्छादित पहाड़ियाँ भी दिख रही हैं। जरमोला, खरसारी के बाद मोरी गाँव का साईन बोर्ड दिखायी दिया, अब टोंस घाटी में पहुँच गये हैं, अब देवदार शुरू हो गया है, नैटवाड आ गया, एक ट्रैकर ने सू-सू करने के लिए ड्राइवर से बस रोकने को कहा, सभी 31 के 31 ट्रैकरी गाड़ी से उतर गये। सांकरी 12 किलोमीटर का साईन बोर्ड देखते ही सभी ट्रैकर ख़ुशी से उछल पड़े। देवदार के मनोरम जंगलों से होते हुए हम सांकरी पहुँच गये हैं, शाम हो गयी है।
कैम्प लीडर गुलज़ार अहमद प्रवेश द्वार पर ही मिल गये। स्वागत काउंटर पर रजिस्ट्रेशन करवा लेने के बाद गुलज़ार अहमद ने कोविड-19 को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक टैंट में दो-दो ट्रैकर की व्यवस्था की हुई है। टैंट में दो कम्बल एक स्लीपिंग बैग के साथ फोन चार्जिंग की भी व्यवस्था है। टैंट पहाड़ियों की ढलान के साथ तीन स्तरों पर लगाये गये हैं। सांकरी समुद्र तल से 6455 फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है और गढ़वाल हिमालय में बसा है। हर की दून, बाराड़सर झील, बालीपास, देव क्यारा और फुलारा रिज जैसे ट्रैकों के लिए सांकरी को आधार शिविर के रूप में चुना जाता है। यहीं पर एक सोमेश्वर महादेव का मन्दिर भी है जो भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ के 22 गाँवों (जखोल, फिताड़ी, लिवाड़ी, सुनकुंडी, सांवनी, सटुडी, सिरगा, धारा, ओसना, पुआणी, गंगाड़, घाटमीर, सोड़, सांकरी, कोटगाँव, पाँव, तल्लापाँव, कासला, रिक्चा) में सोमेश्वर भगवान आते-जाते रहते हैं।
आज पच्चीस दिसम्बर की सुबह ही पर्यनुकूलन (Acclimation) के लिए निकलना पड़ा, सभी 31 ट्रैकर जिन्हें ‘के.के.-15’ बैच का नाम दिया, आधार शिविर के पश्चिमी छोर पर टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर दौड़ने लगे। पूरी घाटी देवदारों के वृक्षों से ढकी थी और देवदार बर्फ़ से। सुबह की धूप ट्रैकर्स पर पड़ने लगी है, सभी के चेहरे चमक रहे हैं। केदार कांठा ट्रैक पर वाई.एच.ए.आई. के अतिरिक्त बीसयों प्राईवेट संगठन ट्रैक करा रहे हैं इस कारण सांकरी में ट्रैकर्स के झुंड के झुंड उतर पड़े हैं, भीड़-भाड़ भरा सांकरी ट्रैकर्स से दबाव-सा महसूस कर रहा है। हम एक टी-प्वाइंट के सामने आकर रुक गये हैं। लकड़ी का बना टी-स्टॉल बैठने के लिए देवदार के तने के दो-दो पीस काटकर कुर्सी का विकल्प सा बना दिया है, जो कलात्मक भी लग रहा है। हमने चार चाय का ऑर्डर दिया और बहुत देर तक खड़े रहे। टी-स्टॉल वाले ने हमारी तरफ़ ताका तक नहीं। तब संजीव वर्मा से नहीं रहा गया। संजीव वर्मा बोले, “अरे काका! चाय मिलेगी?” फिर भी इस टी-स्टॉल वाले ने नहीं देखा तो अशोक भाटी को टी-स्टॉल वाले की अनसुनी पर भीतर ही भीतर हँसी आयी। कितनी स्पष्ट आवाज़ और यह बेचारा सुन नहीं पाया। टी-स्टॉल वाला सिर नीचे किये चाय बनाता रहा। उसके मुँह से एक भी बोल नहीं फूटा। थके माँदे ही हम आधार शिविर आ गये। ब्रेकफ़ास्ट में आलू का पराँठा था जिसमें जिम्बू (पहाड़ी प्याज) भी पड़ा था। अपूर्व स्वाद था उसका। सांकरी आधार शिविर भी अपने आपमें सुन्दर स्थान है। वास्तव में यह सोड गाँव के किनारे है। हमारे ग्रुप लीडर गुलज़ार अहमद ने पूरे ट्रैक का संक्षिप्त ब्योरा दे दिया है, दोपहर भी ठण्डी है और हमारे सिर पर मंकी कैप है। हम लोगों ने लंच निबटा लिया है। अब डिनर तक फ़ुर्सत है।
“चलो ताश खेलते है,” अशोक भाटी ने कहा।
इरशाद और अलंकार ताश नहीं खेलते, परन्तु ताश में हारते-जीतते देखना उनका प्रिय शग़ल है। वे दोनों रेफ़री की तरह बैठ गये हैं। संजीव वर्मा, राजीव गहलौत, अशोक भाटी और मैंने पत्ते डालना शुरू कर दिया है। अशोक भाटी हारने से बौखला गया है, लेकिन उसने बिना कोई चूँ-चपड़ किये दूसरी बाज़ी के लिए पत्ते बाँट दिये हैं। बाँटने के दौरान वह पत्तों की चाल के बारे में बड़बड़ाता रहा। थोड़ी देर तक ख़ामोशी रही फिर अलंकार ने कहा, “सारे वकील मिलकर भी भाईसाहब को नहीं हरा पाते छिः . . . चलो डिनर तैयार हो गया है।” और हम सब पिछवाड़ा झाड़ते हुए खड़े हो गये।
आज 26 दिसम्बर को हमें दूसरे कैम्प यानी ‘लुहासु’ के लिए प्रस्थान करना है। साढ़े पाँच बजे चाय, सात बजे ब्रेकफ़ास्ट, साढ़े सात पर पैक लंच लेकर सुबह की ताज़गी भरी हवा के साथ ‘के.के.-16’ ने फ़्लैग हॉस्टिंग कर विदाई दी। रास्ते में बहते झरनों की आवाज़ें सुनते, ओक के जंगलों से गुज़रते, उसके सूखे पत्ते और रोडोडैंड्रोन के पेड़ों की गंध लेते हुए हम इकत्तीस ट्रैकर अपने-अपने ग्रुपों में बँट गये। प्रातःकाल का सांकरी अपने वैभव के चरम पर है। पेड़ों को जगाने वाली मन्द-मन्द बहती हवा, सूर्य की किरणों का स्पर्श करती हिमशिखरों की चोटियाँ स्पष्ट दिखाई दे रही हैं। संजीव वर्मा बोले, वो देखो भाई साहब! बंदरपुछ और स्वर्गारोहिणी शिखर।” ओक रोडोडैंड्रोन और चीड़ के पेड़ों के बीच कच्चे रास्तों पर चढ़ते जब हम थक गये तो रास्ते में एक चाय की दुकान पर बैठ गये जहाँ एक कोने में रोडोडैंड्रोन का जूस भी था। सबने अपने-अपने रुकसैक उतारे और पानी की बोतलें निकालीं, ऊँचे-ऊँचे सघन वृक्षों के कारण पर्वत इतने सुहाने लग रहे हैं कि देखते-देखते जी नहीं अघाता। कहीं-कहीं बर्फ़ जमी है। अशोक भाटी उठा और दुकान के अंदर झाँकने लगा। दुकानदार जानने की कोशिश कर रहा है। अशोक भाटी लगातार देखे जा रहा है ताकि वह कुछ खाने के लिए ले सके।
राजीव ने अशोक भाटी को उलाहना सा दिया, “आजकल सिगरेट पीना कम कर दिये हो अशोक बाबू . . .?”
इरशाद ने राजीव को ज़ोर से बोलने का इशारा किया।
अशोक भाटी चुपचाप सुनता रहा।
इरशाद ने फिर चुटकी ली, “राजीव जी! तुम्हें कैसे पता चला कि सिगरेट कम कर दी है? हाँ . . . आधा घंटा तो हो गया है।”
सब हँसने लगे, अशोक भाटी भी शरारत के साथ हँसता है।
पाँचेक मिनट बाद अशोक भाटी ने इरशाद से कहा, “चाय वाले के पैसे दो और चलो भी, पूरा के.के.-15 ग्रुप आगे निकल गया है।”
“कितनी देर लगेगी जुड़ा के तालाब पहुँचने में?” अलंकार ने सौरभ रावत से पूछा, उस समय सूरज थोड़ा चढ़ गया था, सौरभ रावत गम्भीर स्वर में आकाश की ओर देखकर बोला, “दो घंटे!” मगर शर्मीले भाव से मुस्कुरा दिया।
कुल मिलाकर चार किलोमीटर का रास्ता पाँच घंटे में तय करके एक बजे के लगभग हम जुड़ा का तालाब पहुँचे। यह हमारा लंच प्वाइंट भी है। यह झील सर्दियों के मौसम में पूरी तरह से बर्फ़ से ढकी रहती है, इस दौरान इसका दौरा करना शानदार होता है। पौराणिक मान्यता है कि एक बार भगवान शिव ने अपनी जटाएँ खोल दी थीं। उनकी जटाओं से पानी जो गिरा तो यह झील बन गयी। यह ‘तालाब’ सांकरी आधार शिविर से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हम लोगों ने एक चाय की दुकान पर बैठकर पैक लंच की पूड़ियाँ आचार के साथ खाईं, लंच से छुट्टी पाकर जुड़ा के तालाब की परिक्रमा की, अपने-अपने मोबाइल से फोटो शूट किये, सौरभ रावत के मना करने के बावजूद जमी झील के ऊपर हम चल-फिर रहे हैं। यह झील समुद्र तल से 9100 फ़ीट की ऊँचाई पर है। हमने एक-एक गिलास चाय पी, कुछ बिस्किट खाये और लुहासु के लिए तैयार हो गये। मौसम वैसा ही सुहाना था, कुछ ट्रैकर, स्टिक टेकते-टेकते आगे बढ़ रहे हैं, कुछ अपरिचित पथ का आनन्द उठाते चल रहे हैं। अलंकार ने दो लीटर वाली पानी की बोतल हाथ में लटका ली है जो देखने में छोटे गैस के सिलेण्डर जैसी है। लुहासु पहुँचते-पहुँचते संध्या हो गयी। ऊँचे-ऊँचे देवदार अपनी गरदनें आसमान की ओर फैलाये हुए हैं और सिर हिला रहे हैं। उनके सिर हिलाने से लग रहा है, जैसे उनकी स्वीकृति मिल रही है। हमने डिनर किया और ख़ुद को टैंटों में छुपा लिया।
रात को नींद कम आयी, दो बजे चलना था, इसलिए बार-बार आँख खुल जाती थी कि कहीं देर न हो जाए। उधर स्नोफ़ाल का शोर टैंट के ऊपर अनवरत् नींद में ख़लल डाल रहा था। सवेरे एक बजे उठे। आकाश में तारे तो थे परन्तु चारों ओर अँधेरे का राज्य था। हम लोग झटपट तैयार हुए, टॉर्च और पानी की बोतल लेकर टैंट के बाहर आ गये, सभी ट्रैकर चलने की जल्दी में थे। रात्रि की नीरवता को भंग करता ट्रैकर्स का शोर आनन्द को बढ़ा रहा था। सौरभ रावत की भी यही कोशिश है कि सूर्य उगने से पहले जितना चल सकें अच्छा है। ज्यों-ज्यों हम सम्मिट प्वाइंट की ओर बढ़ रहे हैं, मन एक अनिर्वचनीय आनन्द से उल्लसित हो रहा है। बर्फ़ के फोहे लगातार गिर रहे हैं। अनभ्यस्त होने के कारण बहुत-से ट्रैकर फिसल रहे हैं और आनन्द की बात यह है कि गिरने वाले रो नहीं रहे बल्कि खिलखिला रहे हैं और साथी ट्रैकर का मनोरंजन भी कर रहे हैं। चारों ओर बर्फ़ की मोटी चादर बिछ गयी है, बर्फ़बारी से बचने के लिए हम दौड़कर एक चाय की दुकान में घुस गये, जो सम्मिट प्वाइंट से थोड़ा पहले है। प्रकृति का प्रकोप कम नहीं हुआ, सर्दी भी लगने लगी। स्थान की तंगी के कारण चाय की दुकान के बाहर ही ट्रैकर खड़े होने लगे, फिर भी ट्रैकर का आना बराबर बना रहा। गाइड सौरभ रावत ने वापस चलने का मन बनाया क्योंकि सम्मिट प्वाइंट की ओर बढ़ने में रिस्क है।
27 दिसम्बर के छह बजे हैं और हम केदार कांठा शिखर से पहले 12500 फ़ीट की ऊँचाई पर खड़े सोच रहे हैं कि सौरभ रावत की बात मानें या उसे अपनी बात मनवायें। तभी सौरभ रावत बोला, “थोड़ी देर और ऐसे ही बर्फ़बारी होती रही तो रास्तों को मैं भी नहीं पहचान पाऊँगा।” फिर हमने बर्फ़ के विस्तार पर नज़र डाली, और सौरभ रावत के पीछे-पीछे चुपचाप उतरने लगे। रास्तों में भटकते हुए, फीके से प्रकाश में देखा, पहाड़ी के छोटे-मोटे टीले स्कीइंग का मैदान बन चुके हैं। हिमाच्छादित केदार कांठा का सुंदर दृश्य सामने है। हम पर्वत के शिखर पर हैं और हमारे नीचे जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है वहीं तक बर्फ़ फैली हुई है। पहाड़ के जो पत्थर सिर उठाये जाग रहे थे, अब वे कहीं दीख नहीं रहे हैं। वे बर्फ़ के नीचे अदृश्य हो गये हैं। बर्फ़ के फोहे गिर रहे हैं। डाल-पत्ते, टूटे-पेड़, वृक्षों के तने, यहाँ तक कि विशाल वृक्ष भी बर्फ़ से दब गये हैं। बर्फ़बारी का वेग निरन्तर बढ़ता जा रहा है। सौरभ रावत रास्तों के सिरे ढूँढ़ रहा है, एक रास्ता मिला, उसी पर लम्बी डग भरता जा रहा है, संजीव वर्मा अभी भी फोटो शूट कर रहे हैं। अलंकार से पानी की बोतल सम्भल नहीं रही है, उसकी वजह से फिसलते-फिसलते रह जाते हैं। अशोक भाटी ने पूछा, “राजीव जी! फिसलने का शतक हो गया?”
राजीव ने कहा, “नहीं, नहीं, अभी तो फ़िफ़्टी भी नहीं हुई,” फिर हँस कर बोला, “इरशाद भाई अच्छा फिसल रहे हैं।”
अशोक भाटी बोले, “क्यों? इरशाद जी?”
इरशाद ने गम्भीरता पूर्वक कहा, “भाँग का असर हो रहा है?”
सौरभ रावत चिल्लाया, “चलो, आगे बढ़ो, सूरज निकल आया तो रास्ता और स्लीपरी हो जायेगा।” हमारे चेहरों पर भय की छायाएँ हैं, हवा की तेज़ी के आगे हम चलने में असमर्थ हैं। बर्फ़बारी बढ़ती जा रही है, और हम जैसे छुप-छुपकर रास्तों की टोह ले रहे हैं।
हम चलते रहे, बर्फ़बारी होती रही, लुहासू दीख पड़ा, सभी टैंट बर्फ़ में दब चुके हैं, ऊपर का मामूली हिस्सा दिख रहा है। अब टैंट और हमारे सामने सिर्फ़ सौरभ रावत के पद चिह्न हैं, बर्फ़ जमी होने के कारण पद-चिह्न जैसे-के-तैसे दिख रहे हैं। जैसे ही हम लुहासु कैम्प पहुँचे हमारे पूर्व निश्चित कार्यक्रम में परिवर्तन किया गया, अब हमें लंच के बाद सीधे सांकरी निकलना है। हरगाँव का कैम्प रद्द कर दिया है। लंच करने के लिए हमने प्लेटें निकाल ली हैं, बर्फ़ गिर रही है और हम भोजन कर रहे हैं। दाल-चावल के साथ स्वादिष्ट खीर भी खायी, सभी के मुँह से ‘वाह!’ सुनाई दिया, साथ-साथ सौरभ रावत का स्वर “चलो आज ही सांकरी पहुँचना है।” हम चल पड़ते हैं। हमारे अंग-प्रत्यंग सुन्न हो गये हैं, जान पड़ता है, हमें पीछे से कोई धकेलते हुए ले जा रहा है, जैसे ही हरगाँव का बैनर दिखाई दिया हमने अपने रुकसैक और थके शरीर को बर्फ़ पर फेंक दिया। इतनी लम्बी थकान हम कभी नहीं भूल पायेंगे। बर्फ़ गिरनी अब बन्द हो चुकी है। लेकिन बर्फ़ की चादर चारों को नज़र आ रही है, हम में उठने की शक्ति नहीं है लेकिन सूर्यास्त से पहले हमें सांकरी पहुँचना है, हम फिर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे और हरगाँव पीछे रह गया। गिरी बर्फ़ के गलने से रास्ता और स्लीपरी हो गया है राजीव जी हँसे। उन्होंने अशोक भाटी से कहा, “सांकरी तक मेरी फ़िफ़्टी हो जायेगी।”
सुनकर इरशाद को सहारा मिला, उसने कहा, “शुभकामनाएँ, मुबारक!”
अंत में सौरभ रावत भी हँसता हुआ चलता रहा। एक मोड़ से घूमकर हमने बर्फ़ का बड़ा टूटा अंश देखा, ऐसा लगा जैसे किसी ने झपट्टा मारकर बर्फ़ को गिरा दिया हो। निश्चित होकर हम चलने लगे। रास्ते में ट्रैकर का एक ओर ग्रुप मिला जिन्होंने शूज़ के ऊपर क्रैम्पन (बर्फ़ पर चढ़ने के दौरान गतिशीलता में सुधार करने के लिए एक उपकरण) पहन रखा था। संजीव वर्मा ने अच्छी तरह घूम-घामकर फोटो शूट की और आगे बढ़े। अब तो उतार ही उतार था। सुबह के सात बजे से उतार के अभ्यस्त हो गए हैं, किन्तु पैर के अँगूठों पर ज़ोर पड़ रहा है, चलना दूभर हो गया है। ज्यों-ज्यों उतरते जा रहे हैं, हिम से ढके पर्वतों के अलौकिक दृश्य दिखायी दे रहे हैं। जिन्हें हम क़दम-क़दम पर रुककर पीछे की ओर भी देखते जा रहे हैं। स्नोफ़ाल मर गया है, पेड़ों पर बर्फ़ लटकी रह गयी और हमने भी फिसलना छोड़ दिया है। हम साँस लेने के लिए रुकते-रुकाते सांकरी की ओर बढ़े जा रहे हैं, सवा छह बजे सांकरी पहुँचे। बहुत थकान हो रही थी इसलिए सोचा कि थोड़ी देर टैंट में आराम करें इसी बीच ग्रुप लीडर गुलज़ार हाल-चाल पूछने टैंट में ही आ गये, हमारे आग्रह पर उन्होंने टैंट में ही चाय-पकौड़ी की व्यवस्था की, थकान दूर हो गयी। टैंट में ही चाय की व्यवस्था के लिए गुलज़ार जी को धन्यवाद दिया तो वह कहने लगे कि इस शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं है। अगली बार फिर आइये और केदार कांठा सम्मिट प्वाइंट तक जाइये। अच्छा! अब मैं चलता हूँ आठ बजे डिनर पर मिलते हैं। हम सभी मंज़िल पूरी ना हो पाने के कारण थोड़ा दुःखी हैं, पैर थक रहे हैं, परन्तु मन से उल्लास के क्षण, मुखरित हो उठते हैं, “जय केदार कांठा!”
केदार कांठा
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श्वेता वर्मा 2024/02/04 09:02 AM
बहुत अच्छा आयख्यान ऐसे लगा जैसा हम भी साथ हें