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ब्रह्मताल: यात्रा संस्मरण

 

ब्रह्मताल ट्रैक के लिए यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ़ इण्डिया ने आधार शिविर लोहाजंग में बनाया है। यहाँ तक पहुँचने के लिए दो मार्ग हैं, एक मार्ग काठगोदाम से गरुड़, ग्वालदम, देवाल होते हुए लोहाजंग पहुँचता है, दूसरा ऋषिकेश से श्रीनगर, कर्णप्रयाग, देवाल होते हुए लोहाजंग पहुँचता है। लोहाजंग उत्तराखंड के चमोली जनपद में समुद्रतल से दो हज़ार चार सौ फ़ीट की ऊँचाई पर स्थित है। 

दो हज़ार बाईस का चौबीस दिसम्बर है, शीत ऋतु का आगमन हो चुका है, पर्यटक आवास गृह, काठगोदाम से हमने प्रातः सात बजे लोहाजंग के लिए प्रस्थान किया, काठगोदाम से लोहाजंग की दूरी लगभग दो सौ पचास किलोमीटर है, हम गोलानदी के सहारे एच.एम.टी. रानी बाग़ होते हुए, भीमताल वाली सड़क पर है, भीमताल नैनीताल जनपद में है, यहाँ से दो रास्ते जाते हैं एक पिथौरागढ़ के लिए, दूसरा अल्मोड़ा के लिए, हमें अल्मोड़ा वाले रास्ते पर चलना है, सागौन (टीक) का जंगल शुरू हो गया है, हेयर पिन बैंड और चढ़ाई-ढलानों वाली सड़क से होते हुए हम भीमताल पहुँच गये हैं। हमने लगभग दस किलोमीटर की दूरी तय कर ली है, भीमताल एक त्रिभुजाकार झील है, नैनीताल झील की तरह इसमें भी दो कोने हैं जिन्हें तल्लीताल और मल्लीताल कहते हैं, यहाँ से चार किलोमीटर की दूरी पर नौकुचियाताल है, हम भवाली पहुँचने वाले हैं यहाँ से लगभग बारह-तेरह किलोमीटर की दूरी पर सात तालों का समूह (नलदमयंती ताल, गरुड़ताल, रामताल, लक्ष्मणताल, सीताताल, पूर्णताल, सूखाताल) है। पूर्णताल और सूखाताल का अस्तित्व मनुष्य की लापरवाहियों के चलते समाप्त हो गया है। नलदमयंती ताल के बारे में एक किवंदन्ती है कि नल-दमयंती अपने जीवन के कठोर दिनों में इसी ताल के समीप निवास करते थे, कहते हैं कि जिन मछलियों को उन्होंने काटकर कढ़ाई में डाला था, वे भी उड़ गई थीं, इस ताल में कभी-कभी वे कटी मछलियाँ नज़र आती हैं। इस ताल का आकार पंचकोणी है, स्कंदपुराण में नलदमयंती का वर्णन मिलता है। हम भवाली पहुँच गये हैं, जगह-जगह बाबा नीम करोली के होर्डिंग लगे हैं, यहाँ से दस किलोमीटर की दूरी पर कैंची धाम मंदिर है, बाबा नीम करौली के दर्शन करने के लिए भी यहाँ पर्यटक आते हैं। सूर्य अब चीड़ के पेड़ों के अन्तराल में दीख रहा है, अशोक भाटी सबसे पीछे बैठा है और भूख को उबासियों के माध्यम से नींद में पलट रहा है, इरशाद को उल्टी लगने लगी तो संजीव वर्मा ने ड्राइवर को गाड़ी रोकने के लिए कहा, ड्राइवर हॉर्न बजाते हुए गाड़ी रोक देता है। डॉ. ईश्वर सिंह झपकियाँ ले रहे थे लेकिन हमारी आवाज़ें उनके ज़ेहन तक पहुँच रही है ख़ासकर अशोक भाटी के गुरुजी की जब बातें होती हैं तो डॉ. ईश्वर सिंह बीच-बीच में पुरानी डायरी खोल लेते हैं। मैं इनका छोटा-सा परिचय भी करा दूँ, डॉ. ईश्वर सिंह हंसराज कॉलेज में वनस्पति शास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं, संजीव वर्मा, अशोक भाटी और इरशाद ऐडवोकेट हैं। इनमें संजीव वर्मा और अशोक भाटी के गुरु डॉ. ईश्वर सिंह के मित्र हैं। मेरी नज़र सामने चाय की दुकान की ओर गई, जहाँ एक पहाड़ी महिला काले कम्बल को पहने चाय बना रही है, इस दुकान का भी संजीव वर्मा ने फोटा शूट किया, चाय के साथ हमने गरम-गरम पकौड़े भी खाए। अचानक डॉ. ईश्वर सिंह वीडियो कॉल द्वारा अशोक के गुरुजी से बात करने लगे हैं, अशोक का मन हस्तक्षेप करना चाहता है परन्तु इस ख़्याल को झटककर वो गुरु पत्नी की लटकों-झटकों वाली चाल के बारे में बताकर ख़ुद असहज हो गया है। 

फिर आरम्भ हुआ रमणीय पहाड़ी मार्ग और आसपास चीड़ वनों के हरियाले क्षेत्र से होते हुए खैरना, क्वारब, चासली, सोमेश्वर और मचौता आये तो संजीव वर्मा ने वीडियो बनानी शुरू की, अब हमारी गाड़ी कौसानी में घुस रही है, वही कौसानी जो सुमित्रानंदन पंत का जन्म स्थान है और उन्नीस सौ उन्तीस में महात्मा गाँधी ने अनाशक्ति योग नामक पुस्तक की रचना यहीं की। सूरज चाय के बाग़ानों पर है, हम एक पहाड़ी ढाबे पर रुक गये हैं जो शुद्ध शाकाहारी था, हमने आलू, पालक, लाही की सब्ज़ी, डूबका दाल, रोटी को मोदी जी के दिए हुए चावलों के साथ खाया। ढाबे के पास भेड़-बकरियाँ जा रही हैं, हमारी गाड़ी भी उनके साथ कुछ दूर चलती है, पहाड़ों की ढलान पर छोटे–बड़े सीढ़ीनुमा खेतों में सरसों, लाही, मटर की फ़सल उगी हुई है तो कहीं चौलाई ओसाई जा रही है, पश्चिम की ओर के पहाड़ों के समान्तर कहीं-कहीं मेघ के टुकड़े हैं। धूप पसरी है। गाड़ी ऊँचे-नीचे चढ़ती जा रही है। ग्वालदम, देवाल, चेपड़ों गाँव आया तो इरशाद ने ध्यान खींचा। मैंने कनखियों से इरशाद को देखा, जिसमें थोड़ी-बहुत उत्सुकता भी छिपी हुई है। अशोक शायद ठीक ही कह रहा था, इसके गुरुजी की पत्नी सच में . . . इरशाद ने बोला भी नहीं कि अशोक ने डपट दिया, बंद भी करो ये टॉपिक, डॉ. साहब आप बैठे-बैठे सोए जा रहे हैं, देखो! लोहाजंग आने वाला है, कहकर अशोक चुप हो गया, लेकिन ग़ुस्सा यथावत है। धीरे-धीरे शहरी इलाक़ा आ रहा था। 

काठगोदाम से लोहाजंग की दो सौ पचास किलोमीटर की दूरी हमने लगभग नौ घंटे में पूरी कर ली है, हम गाड़ी से उतर पड़े। इरशाद ड्राइवर को किराया दे रहा है। यहाँ हमारे जैसे अनेक ट्रैकर डौक्यूमेंटेशन करा रहे हैं। कैम्प लीडर ज़ाहिद बशीर ने हमें कमरा नम्बर सात में जाने का निर्देश दिया और कहा कि सामान कक्ष में रखकर चाय पीजिए उसके बाद डॉक्यूमेंटेशन कराना। हम सामान रखकर चाय पीने पहुँचे तो ट्रैकर्स के लिए पकौड़ियाँ भी उतारी जा रही थीं, जो सफ़र की थकान मिटाने के लिए पर्याप्त है। ठंडी हवा चल रही है। सम्भवतः चौबीस हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर तो हम थे ही, फिर भी अशोक के विमर्श के कारण इतनी ठंड नहीं लग रही है। कुल मिलाकर आज का दिन अच्छा ही रहा। 

दो हज़ार बाईस का पच्चीस दिसम्बर है, सुबह के साढ़े छह बजे हैं, व्यायाम के बाद ट्रैक का अक्लेमाइट वॉक शुरू हुआ, अशोक भाटी को गुरुजी का स्मरण सतत होता रहा। एक फल की दुकान से लोकल कीवी और किन्नू ख़रीदे, बहुत सस्ते, बहुत ताज़ा, जिन्हें आयोजन प्वाइंट पर बैठकर खाया। इस ट्रैक में भाग लेने वाले हमारे ग्रुप में उन्तीस ट्रैकर हैं, ट्रैक कल से शुरू होने वाला है, इसलिए गाइड भुवन बिष्ट ने सभी का परिचय कराया, आयोजन प्वाइंट लोहाजंग से तीनेक किलोमीटर की दूरी पर विस्तृत बुग्याल है, यहाँ से तीन सौ साठ डिग्री का व्यू दिखता है, ढलान पर रोडोड्रैंड्रोन के वृक्षों से ढकी घाटी का क्षेत्र और सामने त्रिशूल, नंदा घुँघुटी नज़र आती है। जनवरी में यहाँ काफ़ी बर्फ़ गिरती है, बारह बजे की धूप लोहाजंग पर पड़ रही है, उस धूप में लोहाजंग के अलग-अलग रंग चमक रहे हैं, लंच के समय तक हमें आधार शिविर पहुँचना है। भुवन बिष्ट ने समय काटने के लिए कुछ संस्मरण, कोई गाना सुनाने के लिए कहा तो फिर बात-बात में अशोक भाटी के गुरुजी की बात आ गई, अशोक के चेहरे पर घृणा की हल्की-सी लहर दौड़ी, डॉ. ईश्वर सिंह ने ग़ौर से मेरी ओर देखा, जैसे निन्दा रस में मेरे सुकून का अनुमान लगा लिया हो, या उन्हें आश्चर्य हुआ हो कि अशोक भाटी के गुरुजी ऐसी घटिया सोच के हैं? संजीव वर्मा ने फिर से अशोक को कहा—अच्छा, ट्यूशन वाली बातें ही बता दें गुरुजी की। अशोक भाटी ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल पलटकर देखा! डॉ. ईश्वर सिंह ने मुझे सम्बोधित किया, “अरे भाई सहाब! आप ही सुना दो कोई हाइकु-वाइकु।” अशोक भाटी का मुँह सपाट बना रहा, हम चारों के चेहरे पर ख़ुशी का भाव था। संजीव वर्मा ने अशोक भाटी से फिर कहा—आख़िर तू गुरुजी की बात पर बिदक क्यों जाता है? सुना दूँगा तो भाई साहब भी नाराज़ हो जाऐंगे—अशोक भाटी ने तैश में कहा और चुप हो गया। मैं जानता था कि बात इतनी सामान्य नहीं है, लेकिन डॉ. ईश्वर सिंह, संजीव वर्मा और इरशाद के अंदर बात को सुनने की गुदगुदी-सी पसर रही है। उधर भुवन बिष्ट ने सीटी बजा दी है, दूर बर्फ़ से आच्छादित नंदा घुँघुटी के शिखर से धुआँ उठ रहा है। दोपहर का एक बजा है। हम सभी आधार शिविर में लंच कर रहे हैं। लंच करने के बाद अशोक भाटी ने कहा, “अच्छा हो कि हम किसी दूसरे विषय पर बात करें। दस-बीस लगाकर जजमेंट खेलें।” इरशाद और डॉ. ईश्वर सिंह की रेफ़रीशिप में हम जजमेंट खेलने बैठे। इस खेल में अशोक भाटी जीते और इस जीत के कारण वह जब तक चुप रहा, तब तक इरशाद ने गुरुजी का ज़िक्र नहीं किया। 

सुबह के साढ़े छह बजे हैं। कक्ष खोला तो नन्दा घुँघटी के दर्शन हुए। उजास कभी का हो गया है। दूर त्रिशूल ध्यानस्थ दीख रहा है। लोहाजंग में आवाजाही शुरू हो गई है। ब्रेकफ़ास्ट की सीटी सुन रहा हूँ। कक्ष में संजीव वर्मा, डॉ. ईश्वर सिंह, अशोक भाटी और इरशाद अपने-अपने रुकसैक भर रहे हैं। आज ट्रैक शुरू हो रहा है। पहला कैम्प भेकलताल में है। कैम्प लीडर ज़ाहिद बशीर हरा झंडा लेकर गुडबाय एण्ड गुडलक कहने के लिए खड़े हो गये हैं हम सभी उनतीस ट्रैकर वज़नदार रुकसैक पीठ पर लादकर आधार शिविर से निकल पड़े हैं। दोएक किलोमीटर पैदल चलकर हमें मंडौली गाँव दिखाई देता है, हमारे साथ जो गाइड मोहन सिंह है वह इसी गाँव का प्रधान है। इस रास्ते में पानी के पाईप के साथ-साथ चढ़ते वक़्त छोटी-छोटी चाय की दुकानें हैं, खेत हैं, चौलाई ओसाते खलिहान में घर है अथवा घर में खलिहान है, समझना मुश्किल है। इस धूल भरे रास्तों से दिखाई देने वाले दृश्य मनोहर हैं, खेतों में अथवा रास्तों में औरतें ही अधिक से अधिक कार्यों में व्यस्त दिखाई देती हैं, मवेशियों के लिए सूखा चारा वृक्षों पर टँगा हुआ दिखाई देता है। रास्ते में छोटे-छोटे जल के स्रोत आ-जा रहे हैं। थोड़े-बहुत के प्रवाहों को खेतों में मोड़ देने की व्यवस्था है। हम टेड़ी-मेढ़ी पगडण्डियों से बढ़े चले जा रहे हैं और नये-नये दृश्य खुलते जा रहे हैं। थोड़ी-सी चढ़ाई के बाद प्यास लगी। वहाँ एक नलके पर बैठकर एक औरत बरतन माँज रही है। मैंने कहा, ज़रा पानी पी लूँ। उसने कहा, “गर्म दूँ क्या?” मैंने और संजीव वर्मा ने बैठकर पानी पिया, पानी पीने से जितना आनंद मिला, उससे अधिक उस अनजान महिला के स्नेह भरे शब्दों से मिला। पहाड़ी की ढलान पर हमारा कैम्प भेकल ताल दीख रहा है, इसके आगे मानों चारों दिशाएँ खुली रखकर खुले आसमान के तले तालों ने आँखें खोल के रखी हैं। खुरताल के पश्चिम में दो सौ मीटर पर हमारा कैम्प है, जिसके लीडर पारस अरोड़ा हैं। उन्होंने सभी ट्रैकर का गर्मजोशी से स्वागत किया। 

ये खुरताल है इसके पूर्व में लगभग सौ मीटर की दूरी पर भेकल ताल है, यहाँ भेकल नाग देवता का मंदिर काफ़ी पुराना है लेकिन इसका जीर्णेद्वार वर्ष दो हज़ार तेरह-चौदह में कराया गया है, विकास खण्ड-देवाल, तहसील-थराली, जनपद चमोली का शिलापट्ट लगा है, दीवार को चारों तरफ़ से ढलवाँ पत्थरों से ही बनाया गया है। मंदिर का दरवाज़ा सँकरा है, मंदिर के अंदर भेकल नाग देवता की मूर्ति है, मंदिर के चारों ओर बुराँश और खरसू के वृक्ष हैं। हम भेकल ताल का चक्कर काटने के बाद उसके पश्चिम में खुरताल के सामने आकर बैठ गये हैं। सूर्यास्त को देखने का एक रोमांच सभी ट्रैकर में खुल रहा है। धीरे-धीरे सूरज एक पहाड़ के पीछे झुक गया। शाम के पाँच बजकर बीस मिनट हुए हैं। खुरताल जैसे सूरज को विदा कर सुबक रही है। यों तो समय बहुत नहीं हुआ था, मगर अँधेरा जल्दी घिर आने के कारण बहुत देर लग रही है, आसमान में जगमगाते तारों का अद्भुत दृश्य बिछने लगा है। 

दो हज़ार बाईस का सत्ताईस दिसम्बर है। अशोक मेरे पीछे खड़ा है। वह समझ नहीं पा रहा कि वह अपने गुरुजी के बारे में सोच रहा है . . . कह रहा है . . . या कहना चाह रहा है। सुबह के नौ बजे हैं, कैम्प लीडर पारस अरोड़ा हमें ब्रह्मताल कैम्प के लिए विदा कर रहे हैं। डॉ. ईश्वर सिंह जैसे अशोक के मन की बात सुन रहे थे, बोले—अशोक जी! ग़ुस्सा मत करो, हम सब जानते हैं, आपके गुरुजी को, बस समय काटने के लिए आपके मुँह से सुनना चाहते हैं कि कैसे ट्यूशन के दौरान आपके गुरुजी का एलजबरा उलझा। धीरे-धीरे पहाड़ों का सौन्दर्य खुलता जा रहा है, कहीं पहाड़ों के शिखर पर कोहरा उठ रहा है, कहीं धूप फैली है। रोडोडेंड्रोन और खरस के पेड़ों के बीच से प्रकाश के स्तंभ प्रलम्बित हो रहे हैं। रतगाँव हमने पार कर लिया है, यह झंडी टॉप वाला रास्ता है। 

इतने में देखा, झंडी टॉप पर ट्रैकर की भीड़ उतर आयी है, एक-दो नहीं, दस-बारह ग्रुप, एक ग्रुप तिरंगा लेकर फोटो शूट कर रहा है। झंडी टॉप पर आने के बाद सभी ने लंच बॉक्स खोल लिए हैं। चालीस रुपये की बहुत ही घटिया चाय पीकर हम ब्रह्मताल की ओर निकल पड़े। यहाँ से एशिया का सबसे बड़ा बुग्याल-अली बुग्याल हरीतिमा बिखेरते दिखाई दे रहा है। बुग्यालों के बारे में प्रचलन है कि हिम शिखरों पर जहाँ पेड़ समाप्त हो जाते हैं वहाँ हरे मख़मली घासों के मैदान आरम्भ हो जाते हैं जिन्हें गढ़वाल हिमालय में बुग्याल कहा जाता है। बुग्याल एक तरह से हिमरेखा और वृक्षरेखा के बीच का क्षेत्र होता हैं

झंडीटॉप से ब्रह्मताल लगभग तीन किलोमीटर का मार्ग रमणीय है, ठंडी सनसनाती हवा बह रही है, जो खच्चरों द्वारा उड़ाई गई धूल को हमारी नाक तक पहुँचा रही है। मानों इसके अलावा रास्ते में और कुछ है ही नहीं। अधिकांश ट्रैकर ने धूल से बचने के लिए मास्क पहन लिए हैं, कुछ ने मल्टीपर्पज बाँध लिया है। एक रिज के सहारे-सहारे हम ब्रह्मताल कैम्प की ओर बढ़ रहे हैं। ब्रह्मताल को लेकर कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने बेदनी बुग्याल में वेदों की रचना से पूर्व यहाँ स्थित ताल के समीप बैठकर साधना की और कई वर्षों तक ध्यान मग्न रहे। इस ट्रैक का आनन्द लेने का सबसे अच्छा समय अप्रैल से जून और सितम्बर से दिसम्बर है। अभी शाम के चार बजे हैं, हम एक बड़ी शिला पर बैठ गये हैं, अशोक भाटी अपनी स्टिक को शिला से टकरा-टकराकर कुछ कहने का प्रयास कर रहा है, ब्रह्मताल की ओर नज़र करता हूँ, भेड़-बकरियों का झुंड नज़र आता है। ठंडक बढ़ती जा रही है। दूर बर्फ़ से आच्छादित नन्दा घुँघुटी धुँधली होती जा रही है। नीले आसमान में थोड़े-से सफ़ेद बादल तैर रहे हैं, एक बाज़ घाटी में उड़ान भर रहा है। अशोक भाटी सतत स्टिक टकरा रहा है। 

डॉ. ईश्वर सिंह अशोक से बोले, “तोड़ो कुछ तो निकलेगा।”

मज़बूत शिला सही सलामत रही, इरशाद थोड़ा फुसफुसाए। 
अशोक भाटी सबका मुँह देखते बोला, “भाई! अब गुरुजी के बारे में कोई कुछ नहीं कहेगा।” 

सब ठहाका लगाकर हँसे तो मोहन बिष्ट की सीटी सुनाई दी, “जल्दी करो . . . जल्दी।” 

हम सबने एक साथ कहा, “डिगो . . . डिगो!”

पश्चिमी दिशा की ओर के पर्वत शिखरों पर धूप डूब रही है। थोड़ी-सी चढ़ाई के बाद ब्रह्मताल कैम्प आ गया। कैम्प लीडर पंकज त्यागी ने वेलकम ड्रिंक्स के साथ सभी का वेलकम किया। रात में भोजन करने के बाद, स्लीपिंग बैग और दो कम्बल में भी पैर सीधे नहीं हुए। भयंकर ठंड। जंगली जानवरों का भय। सच बताऊँ—नींद आयी ही नहीं, बावजूद इसके सवेरे चार बजे ब्रेकफास्ट किया ओर निकल पड़े ब्रह्मताल सम्मिट के लिए। 

ब्रह्मताल सम्मिट पर होने वाला सूर्योदय देखना है। कैम्प लीडर पंकज त्यागी ने शाम को ही निर्देश दे दिया कि सुबह की चाय तीन बजे, ब्रेकफ़ास्ट तीन बीस और पैक लंच चार बजे। टाइगर हिल्स दार्जिलिंग की भाँति ब्रह्मताल सम्मिट का सूर्याेदय देखने का विशिष्ट अनुभव होता है। आज अट्ठाईस दिसम्बर दो हज़ार बाईस को हम सभी उनतीस ट्रैकर अपना-अपना रुकसैक पीठ पर लादे, टॉर्च को हाथों में, माथे पर, कुछ सेलफोन की ऑन करे, कैम्प से निकलकर ब्रह्मताल सम्मिट पॉइन्ट की ओर बढ़ने लगे। कँपकपाती ठंडी हवा के साथ गाइड के मुँह से होकर आने वाली आवाज़ कि जल्दी करो, कानों में पड़ रही है, गला सूख रहा है, मेरे आगे संजीव वर्मा चल रहे हैं, उनके आगे डॉ. ईश्वर सिंह, अशोक भाटी और इदशाद हैं। ऊपर आसमान में तारे स्पष्ट चमक रहे हैं, पहाड़ अभी अंधकार ओढ़कर सोये हुए हैं। थोड़ी देर बाद सबके मुँह से निकला—

“अहा, ग़ज़ब! ब्युटीफल! अवेसम!” 

ठीक इसी समय पूर्व दिशा में पहाड़ के सिरे पर लालिमा दिखाई देने लगी, हवा की सनसनाहट ज़्यादा तेज़ हो गई। सम्मिट प्वाइंट पर ट्रैकर्स ख़ुशी में चिल्लाने लगे, चारों दिशाओं में फैली घाटियों की सुन्दरता दृष्टि को बाँधने लगी, पूर्व के पहाड़ों पर लाल रंग प्रकट होने लगा, आसमान में कहीं-कहीं काले बादल नमी लिए हुए दिखे तो शमशेर बहादुर की कविता ‘उषा’ का स्मरण हुआ—

“भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है) 
बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो
और . . . 
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।” 

सात बजकर दस मिनट हुए हैं, किरणों में झिलमिलापन और धूप की उमड़न अच्छी तरह से प्रकट हो रही है, कुछ अनजान पाखी लयात्मक उड़ान भरते दिखे, त्रिशूल और नन्दा घुँघुटी पर धूप फैलने लगी हैै। अली बुग्याल पर हल्का-सा कोहरा है। दोपहर का भोजन झंडी टॉप पर होगा, गाइड मदन बिष्ट ने चलने के लिए सीटी बजा दी है। ब्रह्मताल सम्मिट से झंडी टॉप तक लगभग पाँच किलोमीटर की पर्वत श्रेणी है, दोनों ओर घाटियाँ हैं, जिसमें हमारे बाँयी ओर की घाटी में धूप फैल गयी है, दाँयी ओर की घाटी छाया में है। पूरी पर्वत श्रेणी पर सूखी घास का कालीन सा बिछा है, घाटियों में ओक और रोडोडेंड्रोन के पेड़ चुप-चाप खड़े हैं। कहीं दूर खच्चर के गले की घंटी बोल रही है। ट्रैकर्स के अलग-अलग ग्रुप झंडी टॉप पर जमने लगे हैं, अशोक भाटी ओर इदशाद ने स्थानीय दुकान पर बैठने के लिए प्लास्टिक की पाँच कुर्सियाँ घेर ली हैं। तभी अशोक भाटी के गुरुजी का फोन आया, अशोक को समझ नहीं आ रहा है कि वह कैसी प्रतिक्रिया दे, फिर भी चुपचाप सुनता रहा, साफ़ लग रहा है, धर्मसंकट में पड़ा हुआ है। चाय आ जाने पर अशोक भाटी के चेहरे पर हल्की सी सन्तोष की लहर दौड़ी, ठंड उतरने लगी है, धूल भरी पगडंडी पर हम पाँचों बेगम टोक कैम्प के लिए उतरने लगे। धूप तेज थी और ढलान की उतराई कुछ ज़्यादा ही है, फिर भी रोडोडेंड्रोन और ओक के पेड़ों का सहारा लेते, धूल उड़ाते, झूला परजीवी को पैरों से रौंदते चले जा रहे हैं। रास्ते के ढलान पर कहीं घने वृक्ष तो कहीं गंजे क्षेत्र भी आ रहे हैं, अनेक पेड़ कटे हुए थे, कुछ अवशिष्ट तने पेड़ों के शव लग रहे थे, मटमैली पगडंडी सूखी लकड़ी की बू से भरी है। कहीं से अचानक दूसरे ग्रुप का गाइड बड़ी तेज़ी से निकल गया है। उसने अशोक का ध्यान खींचा। वो देखो! वो तो मंडौली पहुँच गया। हम बेगम टोक कैम्प के निकट पहुँचने वाले हैं। झंडी टॉप से बेगम टोक तक सात किलोमीटर की दूरी हमने पाँच घंटे में पूरी की। 

गुरुजी की यादें एक के बाद एक दस्तक दे रही है। अशोक को अब गुरुजी की यादों में डूबना अच्छा नहीं लगता, वो भी एक दिन था जब गुरु-पत्नी के नाम से उसे झुरझुरी सी आ जाती थी। डॉ. ईश्वर सिंह दार्शनिक अंदाज़ में अशोक का चेहरा पढ़ते और पूछते—“अब तो बता दो अशोक! अपने गुरुजी की वो बात, अब तो ट्रैक भी पूरा होने वाला है।” फिर एक अट्टाहस-सा सुनाई देता है (संजीव वर्मा और इरशाद का), अशोक खिसिया गया है, गुरुजी का ज़िक्र होते ही अशोक के चेहरे पर वीभत्स रस जैसा कुछ उभरता है। संजीव वर्मा, अशोक भाटी और इरशाद कॉलेज के दोस्त हैं, और अब वकालत भी साथ करते हैं, अपने गुरुओं के कच्चे-पक्के चिट्ठे रुकसैक में रखते हैं, जब जी चाहता है, खोल लेते हैं और अशोक के गुरुजी के क़िस्से तो इन्होंने सहेज कर रखे हैं। इरशाद बताते हैं कि गुरुजी की वजह से अशोक के गाँव वाले अपना हिसाब-किताब अशोक से करवाते हैं। गुरुजी ने ट्यूशन में अशोक को इतना पक्का कर दिया है कि गाँव वाले शादी-विवाह में होने वाले ख़र्च का हिसाब भी अशोक से ही करवाते हैं और दुनियादारी के ऐसे-ऐसे सवाल भी अशोक को सिखाए जिन्हें कुछ लम्पट चापलूसी कहते हैं। बेगम टोक कैम्प में हमने कुछ ही डग चले होंगे कि कैम्प लीडर ने वेलकम ड्रिंक्स से हमारा स्वागत किया। हमें आज यहाँ नहीं रुकना है। इसलिए रास्ते की धूल झाड़-पोंछकर हम पुनः व्यवस्थित होकर लोहागंज चलने को तैयार हो गये हैं। अशोक भाटी बड़ी नज़ाकत के साथ उठे, कैम्प लीडर को नमस्कार किया और रास्ता पूछने लगे। कैम्प लीडर बड़े ख़ुशमिज़ाज थे, उन्होंने अपना वाटरमैन हमारे साथ भेज दिया, यह कहकर कि मंडौली तक छोड़ आना। सूर्यास्त से पहले हम लोहागंज की भीड़ में आ गये। पहला काम किया आधार शिविर के सामने वाली दुकान में चाय पीने का। फिर कल के लिए टैक्सी बुक की, वाया ऋषिकेश वापस आने के लिए। बहुत देर तक हम पाँचों आधार शिविर में खड़े रहे, मानों पूरे ट्रैक का आकलन कर रहे हों। डिनर लग चुका है और प्यारी सी ठंड भी शुरू हो चुकी है। ज़ाहिद बशीर ने पूछा—“ठीक रहा ट्रैक!” हमने हल्की सी मुस्कुराहट से उनकी बात से सहमति व्यक्त की, उन्होंने हमारे सर्टिफ़िकेट लाने के निर्देश दिए। 

दो हज़ार बाईस का उनतीस दिसम्बर है, टैक्सी हम पाँचों को लेकर सुया गाँव, ल्वाणी गाँव के चीड़ वनों से होते हुए भेरु घाटी पार करके मिण्डर नदी के किनारे-किनारे चली, फिर देवाल, थराली के रास्तों पर नरायाण बगड़ होते हुए कर्णप्रयाग, जहाँ अलकनन्दा और पिण्डर नदी का संगम होता है। इस मार्ग से दिखायी देने वाले दृश्य भी मनोहर हैं। अब हम राष्ट्रीय राजमार्ग अट्ठावन पर हैं। चटवापीपल, गौचर की टेढ़ी-मेढ़ी सड़कों पर टैक्सी दौड़ रही है। पानी से छलकती मंदाकिनी और अलकनन्दा का व्यू दिखाई दे रहा है अर्थात् रुद्रप्रयाग आ गया है। हम उस जगह खडे़ हो गये हैं जहाँ से अलकनन्दा और मंदाकिनी का प्रवाह अलग-अलग होकर एक हो रहा है। नदियों के संगम को नीचे उतरकर देखने का अपना रोमांच होता है, कुछ अनिश्चितता का ओर कुछ भय का। अब हम सड़क पर आकर फिर ऋषिकेश की ओर बढ़ने लगे, देवप्रयाग आ गया, पता ही नहीं चला। यहाँ भगीरथी से मिलकर अलकनन्दा गंगा हो जाती है। दिल कर रहा है कि कहीं से उतर कर देखें, मगर जैसे कभी-कभी होता है कि हमने देखा . . . और टैक्सी ऋषिकेश की ओर चल दी। सूर्यास्त के समय हम ऋषिकेश आ गए। टैक्सी से उतरकर सोचा कि चाय पीकर सुस्ता लिया जाय। हम एक रेस्टोरेंट में बैठ गए। अशोक को चाय नहीं भाती, इसलिए वह ख़ाली बैठकर हमारी बाट जोहने लगा। इरशाद पुरानी आदत के अनुसार उसे छेड़ता रहा। अशोक भाटी अपने अक्खड़ अंदाज़ को कमर के पीछे बाँधे बैठा रहा। एक घंटे बाद हम दादरी-ग्रेटर नोएडा के लिए टैक्सी में बैठे। 

ब्रह्मताल: यात्रा संस्मरण

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टिप्पणियाँ

Digvijay Singh Rawat 2024/07/04 03:00 PM

Bahut hi sundar lekh aur yatra vritant

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