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लठर-लइया

 

सुदर्शन फाकिर का लिखा और जगजीत सिंह-चित्रा सिंह का गाया गीत . . . ‘उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी . . .’ फिर भीतर कहीं गहरे से उठा है कि किसी सुदूर पहाड़ पर निकल जाऊँ। ना अख़बार पढ़ूँ, ना टीवी देखूँ, फोन भी स्विच ऑफ़ रखूँ और फिर वही से शुरू करूँ। 

ऐसी लहरें मेरे मन में सेवा निवृत्ति से उठ रही हैं . . . और सपनों में गुल्ली-डंडा, गोल चमकदार कंचे, काग़ज़ की नाव आती हैं, पर ये सब आ-आकर लौट जाती हैं क्योंकि मैं अपनी झूठी ज़िम्मेदारियों को छोड़ने का साहस नहीं जुटा पाता . . . ऊपर से मेरी पत्नी का अस्तित्व मेरे अस्तित्व को अतिक्रमित करता रहता है, जैसे यह सम्बन्ध मैं किसी दबाव में जी रहा हूँ . . . और अब आदत की मजबूरी हो गई है। 

घर हमेशा मेरी पहुँच से दूर रहा, आम घरों की तरह ना कभी मेरे आँसू पोंछे, ना मेरी खिलखिलाहट पर न्योछावर हुआ। मैं अकेला हँसता हूँ, अकेला ही रोता हूँ। 

आज जैसे-तैसे ट्रैक के लिए मैं पहाड़ों कीओर चला तो मुझे लगा मेरे पीछे किसी स्त्री-स्वर ने किसी ईर्ष्या में भरकर कहा, “लो चल दिया फिर झोला उठाकर . . . लठर-लइया करने।”

साथी ट्रैकरों के फुसफुसाते रोमांच को भेदकर ‘लठर-लइया’ शब्द तेज़ गति से आया और मेरे कानों को बींध गया। मैंने टैक्सी के रियर व्यू मिरर में देखा, मेरे कानों की नसों में ऐंठन-सी लगी। आँखों में एक सन्नाटा रेंगने लगा जो नींद के घुसने तक रहा। 

आँख खुली तो घना जंगल शुरू हो गया था। 

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