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गीता में भक्तों का वर्णन 

 

हम सभी किसी न किसी रूप में अपने अपने इष्ट देव का सिमरन, स्मरण करते हैं। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं जो जिस रूप में मुझे भजता है वह मेरा ही भजन करता है। मैं उसे उसी रूप में मिलता हूँ, उसकी पूजा को सफल करता हूँ। मानव दैत्य, देवता, सब कुछ मुझसे ही उत्पन्न है। सब का कार्य क्षेत्र अलग है। वह अध्याय 7 के श्लोक 16 वें कहते हैं:

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥

इस तरह इस श्लोक में पुण्य कर्म करने वालों को चार भाग में बाँटा है। प्रथम वर्ग में आर्त्त में सामान्य जन, दुखित पीड़ित व्यक्ति आते हैं। वह अपने कष्ट के निवारण के लिया प्रभु से प्रार्थना करते हैं। उनकी भक्ति करते हैं। इसी में ऐसे भक्त भी आते हैं जिनके जीवन में सब सुख सुविधा होने पर भी स्वयं को बेचैन पाते हैं। वह आन्तरिक शान्ति व आनंद के लिया प्रभु का भजन करते हैं। इन्हें राजसी वृति का कहा जाता है। 

(श्री कृष्ण जानते, समझते हैं कि कौन किस भाव से उनको भज रहा है) 

दूसरे प्रकार के भक्त जिज्ञासु होते हैं। जिनके मन में कुछ संशय रहता है। वह मुझे तत्त्व से जानने समझने का प्रयास करते हैं। मैं उनको त्तत्त्व ज्ञान को जानने में सहायता करता हूँ। बिना ज्ञान के प्रतीति नहीं होती। तुलसीदास जी ने लिखा है, बिना ज्ञान के विवेक नहीं होता और विवेक के बिना सही प्रतीति नहीं होती। सही प्रतीति होने पर ही श्रद्धा होती है, श्रद्धा होने पर विश्वास, विश्वास होने पर पूर्ण समर्पण-भक्ति होती है। तो दूसरे प्रकार के भक्त भी मुझे तत्त्व से जानने के लिए भजते हैं। 

तीसरे प्रकार के भक्त अर्थार्थी होते हैं। जो किसी न किसी क्षेत्र में काम करते हैं। मेरे अनुग्रह, कृपा प्राप्त करने के लिए मेरा भजन करते हैं। चौथे प्रकार के भक्त इन सबसे भिन्न होते हैं। ऐसे भक्त बिरला ही होते हैं। वह मुझ से कोई अपेक्षा नहीं रखते। न ही किसी कार्य की सिद्धि के लिए मेरा ध्यान करते हैं। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देते हैं। वह मेरे स्वरूप में एकाकार हो जाते हैं। एकत्व को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे समर्पित भक्त सबसे अलग होते हैं। सूफ़ीवाद में ईश्वर से प्रेम, इश्क़ करने वालों के चार सोपान बताये हैं। 

सूफ़ीवाद में, इश्क़ (ईश्वर प्रेम) के सोपान या मार्ग चार माने गए हैं: शरी'अत (कानून), तरीक़त (मार्ग), मा’रिफ़त (ज्ञान), और हक़ीक़त (सत्य)। 

यहाँ इन सोपानों का विस्तार से वर्णन दिया गया है:

शरी'अत (कानून):

यह बाहरी नियमों और विनियमों का पालन करने का चरण है, जो इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित है। 

तरीक़त (मार्ग):

यह आंतरिक मार्ग या साधना का चरण है, जिसमें व्यक्ति ईश्वर के क़रीब जाने के लिए आध्यात्मिक अभ्यास करता है। 

मा’रिफ़त (ज्ञान):

यह ईश्वर के ज्ञान और समझ का चरण है, जो प्रेम और भक्ति के माध्यम से प्राप्त होता है। 

हक़ीक़त (सत्य):

यह ईश्वर के साथ पूर्ण मिलन या एकता का चरण है, जहाँ व्यक्ति ईश्वर के सत्य को अनुभव करता है। 

इन सोपानों को कभी-कभी नासूत, मलकूत, जबरूत, और लाहूत के रूप में भी जाना जाता है। 

सूफ़ीवाद में यह कहा जाता है कि मुझे जान लेने पर भक्त और भगवान का अंतर ही मिट जाता है। तुलसीदास जी ने अयोध्या कांड में वाल्मीकि जी से कहलवाया है:

तेउ न जानहिं मर्म तुम्हारा। औरु तुम्हहि को जाननिहारा॥
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हइ तुम्हइ होइ जाई॥127 दो, 2-3 पंक्ति 

इस तरह प्रभु, किसी भी सम्प्रदाय में अपने इष्ट को जानकर उसमें लीन हो जाना ही अंतिम सोपान प्रेम अथवा इश्क़ है, जैसे रसखान, सूरदास, मीरा बाई, रविदास, हरिदास, कुतबन आदि। 

संगीत के भी यही चार सोपान हैं। गीत सभी लय सुर ताल में गाते हैं परन्तु भूखा पेट से गाता है, अभ्यासी अभ्यास या रियाज़ से गाता है। धन यश की कामना से गाने वाला राजदरबार, महफ़िल, मूवी में गाता है। दिल से गाने वाला ईश्वर के लिये उसमें समाकर गाता है। महान गायक तानसेन और हरिदास में यही अंतर था। इसी तरह भक्तों में उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप अंतर हो जाता है। विशेष बात यह है कि श्रीकृष्ण सब की साधना, भक्ति को फलित करते हैं। निष्काम भाव वाला गायक, भक्त का उनमें एकाकार हो जाता है। 

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