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सती प्रथा उन्मूलन और ईस्ट इंडिया कंपनी [1740-1828] 

 

भूमिका 

भारत का पश्चिमी संसार के साथ सम्बन्ध बहुत पुराना है। सभी ऐतिहासिक सभ्यता और संस्कृतियों के साथ उसका व्यापारिक सम्बन्ध था। भारत पश्चिम के देशों से और पश्चिम के देश भारत से परिचित थे। वह भारत को सोने की चिड़िया कहते थे। भारतीय के व्यापारी जल व थल मार्ग से विदेशों से व्यापार कर के सोना, बहुमूल्य पदार्थ, हीरे जवाहरात आदि ले कर आते थे। इसीलिए मध्यकाल में मध्यऐशिया से भारत पर निरंतर हमले हुए। और फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत पर अधिकार कर लिया। 16वीं सदी में यूरोप में नाविकों ने बड़े दुस्साहसिक क़दम उठाते नये नया जलमार्गों की खोज की। उन्होंने कई नये द्वीपों में खोजे। इसी क्रम में उन्होंने भारत के बंदरगाहों पर लंगर डाले। तब उनका भारत के साथ समुद्री मार्गों से आये व्यापारियों से सम्पर्क हुआ। 

इस प्रकार भारत 16वीं शताब्दी से पश्चिमी दुनिया के साथ संपर्क में आया। यूरोपीय देशों ने भारत के साथ व्यापार करना शुरू किया। इस प्रक्रिया में वह भारत के कारीगरों के, जनता के समीप भी गये। भारतीय जनता को पश्चिमी संस्कृति, धर्म और विचारधारा के बारे में पता चला। इस पश्चिमी संपर्क का प्रभाव 18वीं शताब्दी के अंत तक दिखाई देने लगा।1 यह महज़ संयोग है कि 18वीं शताब्दी के अंत तक ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक सर्वोच्चता सुनिश्चित और स्थापित हो गई थी। पहला और सबसे बड़ा प्रभाव तर्कसंगत सोच के उच्च मानक के क्षेत्र में महसूस किया गया था। इस भावना ने भारत में एक सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलन को पुनर्जीवित किया।2 सामाजिक-धार्मिक प्रथाएँ, जिन्होंने यूरोपीय व्यापारियों और स्वदेशी सुधारकों का ध्यान आकर्षित किया, वे थीं: बहुविवाह, कुलीनवाद, विधवा पुनर्विवाह, विधवाओं का बलिदान, पर्दा, उत्तराधिकार का अधिकार, वेश्यावृत्ति, अस्पृश्यता, चरक पूजा, बलि (विभिन्न अवसरों पर बलिदान) आदि। ये प्रथाएँ आम तौर पर समाज की सामाजिक संरचना से सम्बन्धित थीं और इसलिए, परिवार, पारिवारिक परंपराओं और रीति-रिवाज़ों से सम्बन्धित थीं।3 बेशक, पूरा समाज इन प्रथाओं का शिकार था, लेकिन इनसे महिलाएँ ख़ास तौर पर प्रभावित थीं। इनमें सबसे अमानवीय और क्रूर प्रथा सती प्रथा थी। इसलिए विधवाओं को एक साथ जलाने के ख़िलाफ़ सबसे पहले पश्चिमी और पूर्वी सुधारवादियों ने आवाज़ उठाई। 

सती प्रथा

विधवाओं को उनके पति की चिता पर जलाने की प्रथा को सती कहा जाता है। प्राचीन प्रथा और नियमों के तहत, हिंदू विधवाएँ अपने पति की दिवंगत आत्मा के लाभ के लिए आत्मदाह करती थीं।4 सल्तनत काल के दौरान, सती प्रथा कुछ वर्गों में प्रचलित थी। इब्न बतूता ने लिखा था कि विधवा को जलाने से पहले दिल्ली के सुल्तान से एक तरह का परमिट लेना पड़ता था। मुग़ल सम्राट अकबर ने सामाजिक प्रथा को विनियमित करने का प्रयास किया। सती के मामले में स्थानीय अधिकारियों से पूर्व अनुमति लेनी होती थी।5 भारत का दौरा 1615-18 के बीच, करने वाले रेवरेंड टेरी ने लिखा था कि सम्राट जहाँगीर “हिंदुओं को यथासंभव देखने के लिए उत्सुक थे, ख़ासकर जब उन्हें अनुमति दी गई थी।”6 सूरत में विधवा दाह संस्कार या सती प्रथा को छोड़कर सभी धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए। 1641-68 के बीच भारत आए पीटरो डेला वैले ने उल्लेख किया था कि सूरत में सती प्रथा क़ानूनी रूप से निषिद्ध थी। आवश्यकता पड़ने पर विधवा को उसके पति की चिता पर जलाने के लिए सूबेदार से अनुमति लेना आवश्यक था।7 ऐसी अनुमति प्राप्त करना कठिन था। कभी-कभी केवल सम्बन्धित अधिकारी को रिश्वत देकर ही सती प्रथा की अनुमति प्राप्त की जा सकती थी। 

औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान जब ऐसी घटना की सूचना मिली, तो सम्राट ने आगरा में महिलाओं को आग की लपटों से बचाया। उन्होंने सती प्रथा को हमेशा के लिए ख़त्म करने की कोशिश की। (कितना अजीब है सती प्रथा पर तो रोक लगा दी पर इस्लाम क़ुबूल न करने पर लोगों को स्त्री पुरुषों, बच्चों को ज़िन्दा जला दिया, दीवार में चुनवा दिया) उन्होंने ब्राह्मणों की उस याचिका को ख़ारिज कर दिया जिसमें उन्होंने सती प्रथा पर से रोक हटाने की प्रार्थना की थी। औरंगज़ेब ने दिसंबर 1666 में आदेश दिया कि “मुगल शासन के तहत सभी देशों में अधिकारियों को कभी भी किसी महिला को जलाने की अनुमति नहीं देनी चाहिए।”8 सर जॉन मैल्कम ने उल्लेख किया था कि मराठों ने सती प्रथा को एक बुद्धिमान उपेक्षा के रूप में अस्वीकार कर दिया, जिसे न तो अनुमोदन द्वारा प्रोत्साहित किया गया था और न ही निषेध किया। इस नीति का परिणाम यह हुआ कि सती एक दुर्लभ घटना बन गई। इन तथ्यों के आधार पर कह सकते हैं कि सती प्रथा निस्संदेह 18वीं सदी के भारत में कहीं कहीं प्रचलित थी, लेकिन यह क़ानूनी रूप से निषिद्ध थी। 

19वीं सदी के प्रारंभिक वर्ष भारत में सती प्रथा की थोड़ी अलग तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। सती प्रथा की स्थिति जगह-जगह अलग-अलग थी। गाजीपुर और शाहबाद में सती प्रथा बहुत कभी होती थी।9 दक्षिणी कोंकण में सती प्रथा दुर्लभ थी। दक्षिण भारत में गंजम, मुसलीपट्टम और तंजौर में सती प्रथा बड़ी संख्या में होती थी।10 पश्चिमी भारत और कश्मीर में यह प्रथा मुख्य रूप से उच्च जातियों तक ही सीमित थी। दिल्ली, आगरा, अलीगढ़ और आस-पास के ज़िलों में सती की घटना यदा-कदा ही होती थी। 

यूरोपीय व्यापारी और सती प्रथा 

जब यूरोपीय व्यापारियों ने भारत में अपने उपनिवेश स्थापित किए, तो उन्हें यहाँ के मूल निवासियों में प्रचलित सती प्रथा के बारे में पता चला। उन्होंने सती प्रथा को अलग तरह से देखा और उसके अनुसार क़दम उठाए। फ्रांसीसियों ने चिनसुरा, चंद्रनगर आदि में अपनी बस्तियों में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। डेन्स (Danes) ने श्रीरामपुर में और पुर्तगालियों ने गोवा में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी बस्तियों में तटस्थता का अनुसरण किया। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने न केवल भारतीयों के सभी रीति-रिवाज़ों को सहन किया, बल्कि कभी-कभी उनको सम्मानित कर और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया।”11 

सती और ईस्ट इंडिया कंपनी

प्लासी और बक्सर की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के प्रान्त बंगाल में राजनीतिक शक्ति बन गई। इस नई उपलब्धि ने कंपनी पर कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी सौंप दीं। सती प्रथा का उन्मूलन ऐसी ही एक ज़िम्मेदारी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ अधिकारियों ने सती प्रथा के खिलाफ़ कार्रवाई शुरू कर दी थी। 1789 में, जब यह बात कंपनी के निदेशकों के ध्यान में लाई गई, तो उन्होंने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी सरकार को निर्देश दिया कि सती जैसे मामलों में उन्हें मूल निवासियों के धार्मिक विचारों और पूर्वाग्रहों को समझना चाहिए। अतः वॉरेन हेस्टिंग्स से लेकर लॉर्ड वेलीज़ली तक के गवर्नर जनरलों ने कंपनी के क्षेत्र में सती प्रथा के बारे में ढुलमुल नीति अपनाई,12 हालाँकि व्यक्तिगत रूप से अधिकारियों ने सती प्रथा को रोकने के लिए अपने तरीक़े से कुछ काम भी किया। 

कंपनी ने 1789 में प्रकाशित कोलब्रुक के हिंदू क़ानून के डाइजेस्ट से परामर्श किया, जिसमें श्री जगन्नाथ तर्क पंचानन की टिप्पणी थी, जो हिंदू क़ानून की एक आधिकारिक पुस्तिका थी जिसे सरकार ने विद्वान ब्राह्मणों की मदद से तैयार करवाया था।13 इसमें परिकल्पना की गई थी कि ‘अपने स्वामियों की मृत्यु के बाद किसी भी समय स्त्रियों के लिए ख़ुद को आग के सुपुर्द करना एक पुण्य कर्त्तव्य है। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के अध्यक्ष श्री नाथनियल स्मिथ और श्री विल्किंसन और श्री जोनाथन डंकन जैसे कुछ अन्य कंपनी अधिकारियों को बनारस के पंडितों से सती के धार्मिक प्रतिबंधों और सामाजिक अनुष्ठान के बारे में पूछताछ करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया।14 उन्होंने पाया कि प्राचीन प्रथा और उपदेशों की मंज़ूरी के तहत एक हिंदू विधवा अपनी इच्छा से और अपने पति की आत्मा के आनंद और लाभ के लिए और अपने स्वेच्छा से सती हो सकती है। यदि वह अपना यह कर्त्तव्य निभाती है, तो वह अपने पति के मातृ एवं पितृ पूर्वजों के तीन पीढ़ियों तक के पापों का प्रायश्चित कर देती है।15 

निदेशक मंडल ने कंपनी सरकार को निर्देश दिया कि वह हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों के मौजूदा क़ानूनों को बनाए रखे और उन्हें अपने धार्मिक अनुष्ठानों के स्वतंत्र अभ्यास में सुरक्षा प्रदान करे। बंगाल सरकार ने सती की इस धार्मिक स्वीकृति का सम्मान किया और सती प्रथा के प्रदर्शन में हस्तक्षेप नहीं किया। बॉम्बे और मद्रास की सरकारों ने एक विनियमन पारित किया कि “सती के रूप में ज्ञात आत्मदाह के अधिकार में सहायता करना, हत्या नहीं है,” Assistance at the right of self immolation known as SATI, was not murder.”16 कंपनी सरकार की इस तटस्थता ने सती अनुष्ठान को एक प्रकार से शांतिपूर्ण तरीक़े से मनाने के लिए मंज़ूरी दे दी। इसके बाद सती की संख्या में आनावशयक वृद्धि हो गई। उसके बाद कम्पनी के सरकारी अधिकारियों की मौजूदगी में सती का घिनौना प्रदर्शन हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि कंपनी के प्रभुत्व में अचानक से कमी आ गई। इस अनुमति ने निदेशक मंडल में की घबराहट पैदा कर दी। कंपनी के अधिकारी, डब्ल्यू बर्ड और कैप्टन बेन्सन ने कंपनी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। निम्न चार्ट 1810–1828तक होने वाली सती की संख्या बताता है जो कम्पनी सरकार को भेजा गया था:

1810-1828 के दौरान आधिकारिक तौर पर रिपोर्ट की गई सती की संख्या

उन्होंने लिखा कि सती प्रथा के नियमों ने महिलाओं को बहुत पीड़ा पहुँचाई है, और इसे समाज में अधिक प्रचलित कर दिया। 

उन्होंने लिखा कि “सती नियमों ने विधवा सती होने वाली स्त्रियों की संख्या को अधिक बढ़ा दिया। हमारे नियम ने सती को रोकने के स्थान पर उसे महिमा मंडित कर दिया। सती के समय मजिस्ट्रेट की उपस्थिति ने, (जिसे सुरक्षा के लिए वहाँ होना था) सती होने व कराने वालों को बहुत अधिक उत्साहित कर दिया। अँग्रेज़ों व उनके परिवारों की उपस्थिति से व्यक्ति इसे उच्चतम सम्मान समझने लगे, जो किसी मृत व्यक्ति को दिया जा सकता है।” सती प्रथा ने इस तरह से वीरता, heroism का पद प्राप्त कर लिया।18 The simple reason for it was excitement and interest taken by magistrates in the ceremony (for safety) invariably, creates and obtain by the eclat attendant for perseverance under such circumstances, the highest possible honor with which their heroism can be rewarded.”18 ज़िलाअधिकारीयों व ईसाई मिशनरियों ने कम्पनी डॉयरेक्टर्स को इस सब के बारे में सूचना दी और ध्यान देने को कहा। उन्होंने बताया कि सती का दृश्य भयानक, पीड़ा दायक और वीभत्स तथा डरावना होता है। लार्ड वेलेसली ने इसलिए, फरवरी 1805 में इस मामले को निज़ामत अदालत में भेज दिया। निज़ामत अदालत ने हिंदू पंडितों से परामर्श किया और उसका सार सेक्षेप सरकार को सौंप दिया। पंडितों के अनुसार कुछ श्रेणियों (जैसे गर्भवती, यौवन की आयु से कम, या अबोध बालक का पालन करने वाली को सती नहीं किया जा सकता) की महिलाएँ अपने पति के साथ सती होंगी तो वह उनके और उनके बच्चों को अगले जन्मों में ख़ुशी व सुख देने वाला होगा। पंडितों ने हाथ की हाथ यह भी स्पष्ट कर दिया कि किसी महिला को सती होने के लिए प्रेरित करने हेतु उसे नशीली दवा देना या नशा देना क़ानूनन सती प्रथा के विरुद्ध है।19 

कंपनी सरकार इस निष्कर्ष पर पहुँची कि सती दो प्रकार की थी—जबरन और स्वैच्छिक। सात वर्षों के विचार-विमर्श के बाद सरकार ने 1812-1813 में आदेश जारी किया कि किसी विधवा को उसकी इच्छा के विरुद्ध सती बनने के लिए मजबूर करना ग़ैरक़ानूनी है। इसने विधवा को सती के लिए राज़ी करने के लिए दवा, नशा या किसी अन्य साधन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। 1815 और 1817 में सरकार ने निजामत अदालत के माध्यम से दो तरह के निर्देश प्रसारित किए। उनके अनुसार ज़िला मजिस्ट्रेटों को सती के मामलों का वार्षिक रिटर्न भेजना होगा, और रिश्तेदारों को किसी स्त्री के सती होने की पूर्व सूचना पुलिस को देनी होगी। इसने विधवाओं की कुछ श्रेणियों को सती होने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। वैध सती का शांतिपूर्ण प्रदर्शन पुलिस अधिकारियों की ज़िम्मेदारी बन गई। अधिकारियों की उपस्थिति में सती का पालन करने से सती को क़ानूनी मंज़ूरी मिल गई। सती प्रथा के पक्षधर लोगों ने इसका लाभ उठाया। एक ओर तो उन्होंने यह साबित किया कि सती प्रथा को धार्मिक मान्यता प्राप्त थी, वहीं दूसरी ओर लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की, कि सती प्रथा सरकारी आदेश से वैध हो गई है। हुगली के कलेक्टर एच। ओकले की रिपोर्ट चौंकाने वाली है, जिसमें कहा गया है, “पुलिस अधिकारियों को अब हस्तक्षेप करने का आदेश दिया गया है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यह अनुष्ठान शास्त्रों के नियमों के अनुसार किया जा रहा है और उस स्थिति में इसे पूरा होने दिया जाए। इससे सरकार को विधवाओं को सती कराने में सहयोग का अधिकार मिल गया। इस बात पर आश्चर्य नहीं किया जा सकता कि जब शासकीय शक्ति की स्वीकृति शास्त्रों में जोड़ दी गई है, तो सती की संख्या दोगुनी हो गई।21 (देखें उपर्युक्त चार्ट) 

सैडलर कोर्ट के दूसरे जज सी। स्मिथ ने 1821 में घोषणा की कि सरकार के आदेशों ने सती प्रथा के बारे में भ्रम पैदा कर दिया है। इससे आम धारणा यह बनी कि सरकार सती प्रथा के पक्ष में थी। यूरोपीय मजिस्ट्रेट और कभी-कभी भयभीत अंग्रेज़ महिलाओं की मौजूदगी ने सती को देखने आई भीड़ को ख़ुशी से भर दिया। ज़िला अधिकारियों की रिपोर्ट और अधिकारियों की मौजूदगी में सती प्रथा के प्रदर्शन ने सती प्रथा को नया जीवन दिया। ज़िला केन्द्र शासित प्रदेशों के अधिकारियों ने सरकार को बताया कि बंगाल, बिहार और उड़ीसा में अभी भी हर साल पाँच से छह सौ मामले हो रहे हैं। इसलिए सती प्रथा की निरंतरता ने प्रजा के प्रति अँग्रेज़ों की जनता के हित व उन्नति और मानवता की नीति को चुनौती दी।

गवर्नर जनरल एर्ल ऑफ़ मोइरा/Moira और लॉर्ड एमहर्स्ट ने तब भी अन्य धर्मों के धार्मिक अनुष्ठानों में हस्तक्षेप न करने की नीति का पालन किया। ईसाई मिशनरियों और राजा राममोहन राय ने सती के ख़िलाफ़ ज़ोरदार विरोध किया, लेकिन ब्रिटिश प्रशासनिक अधिकारियों को धीमी गति की नीति अपनाने की सलाह दी गई। उन्हें डर था कि सती के उन्मूलन के लिए कोई भी क़ानून बंगाल की सेना में असंतोष फैला सकता था, और भारत में उनके राजनीतिक प्रभुत्व को ख़तरा हो सकता था। 3 दिसंबर, 1824 को कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर को लॉर्ड एमहर्स्ट को लिखे पत्र में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया था कि . . . . . .। nothing but the apprehensions of evils should induce us to tolerate it for a day।” 22 अर्थात्‌, इस प्रथा के अस्तित्व से उत्पन्न होने वाली बुराइयों की आशंकाओं के अलावा और कुछ भी हमें इसे एक दिन के लिए बरदाश्त करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता, मजबूरन इसे सहन करना पड़ रहा था। इसलिए, ईस्ट इंडिया कंपनी, अपने निहित राजनीतिक हित के कारण सती के उन्मूलन के बारे में निर्णय नहीं ले सकी। इस अमानवीय संस्कार के उन्मूलन की तुलना में वाणिज्यिक और राजनीतिक हित उसके लिए अधिक महत्त्वपूर्ण थे। 

लॉर्ड विलियम बेंटिक के अधीन सती प्रथा पर विचार-विमर्श

लॉर्ड विलियम बेंटिक जब भारत के गवर्नर जनरल बने तो समाज सुधारकों में यह आशा जगी कि सती प्रथा को समाप्त करने के लिए कुछ किया जाएगा। कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने भी लॉर्ड बेंटिक को सती प्रथा को तत्काल या धीरे-धीरे समाप्त करने के लिए निश्चित उपायों पर विचार करने के निर्देश दिए। लॉर्ड बेंटिक अपने पूर्ववर्तियों की तरह भारतीय सेना के और लोगों के असंतोष से आशंकित थे। इसलिए उन्होंने सिविल और सैन्य अधिकारियों के विचार जानने के लिए एक गोपनीय जाँच शुरू की। 10 नवंबर 1828 को सरकार ने सैन्य अधिकारियों को इस चिंताजनक विषय पर विचार करने, विचार-विमर्श करने और सलाह देने के साथ-साथ सत्तारूढ़ प्राधिकारी की ओर से किसी भी हस्तक्षेप से होने वाले परिणामों के बारे में भी एक परिपत्र जारी किया। इस परिपत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया था, “कि इस अनुष्ठान के बारे में, इसकी भयावहता और घृणा के बारे में एक शब्द भी कहने की आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक विवेकशील और सभ्य व्यक्ति को ऐसी प्रथा के अंत की चिंता करनी चाहिए जो मानवता के लिए इतनी घृणित है, तथा स्वयं हिंदू धर्म के सौम्य सिद्धांतों के भी विपरीत है।”23 लेकिन ईसाई और अँग्रेज़ लोग, जो प्रतिबंधों को सहन कर, तथा अनुमोदन करके ईश्वर के समक्ष इस अमानवीय और अपवित्र कार्य कराने के लिए उत्तरदायित्व निभा रहे थे वह स्वयं अमानवीय और अपवित्र कार्य कर रहे थे बिट्रिश सरकार की सुरक्षा को ख़तरे की सम्भावना ने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करना अधिक लाभकारी होगा (सरकार की सुरक्षा का प्रश्न बहुत न्यून, कमतर है)।24

अंग्रेज़ी सरकार ने निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार करने के लिए प्रपत्र तैयार किया। 

1. सती प्रथा के उन्मूलन को इस रूप में भी लिया जा सकता है कि “ईसाई धर्म में जनता का सामान्य धर्मांतरण ही हमारा अंतिम और एकमात्र उद्देश्य है।”

2. इससे सरकार का जनता में अप्रिय लगने का कितना जोखिम हो सकता था। 

3. सती प्रथा आम तौर पर उच्च जाति के परिवारों तक ही सीमित थी और बंगाल में यह अधिक थी। ये परिवार सरकार के प्रति सबसे अधिक आज्ञाकारी और विश्वसनीय थे, इसलिए, इस क़ानून से प्रभावित परिवारों की ओर से प्रतिरोध की कितनी सम्भावना हो सकती थी।

4. कंपनी ने देश की धार्मिक प्रथाओं के प्रति सम्मान दिखाया है और इसलिए हमारे अंतिम इरादों के बारे में किसी को कोई आशंका हो सकती है। 

5. ऊपरी इलाक़ों में जहाँ लोग ज़्यादा साहसी और स्वतंत्रता-प्रेमी थे, सती प्रथा की घटनाएँ बहुत कम थीं। शायद, कंपनी मजिस्ट्रेटों द्वारा सती प्रथा पर प्रतिबंध के कारण वहाँ कभी कोई अप्रिय घटनाएँ हुईं? 

6. आम तौर पर यह माना जाता था कि शिक्षा के प्रसार से सती प्रथा में कमी आएगी। लेकिन बंगाल में, जहाँ अंग्रेज़ी शिक्षा ने प्रगति की, सती प्रथा कम होने के बजाय बढ़ गई? 

7. परिपत्र में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि “ऐसा प्रतीत होता है कि एक आम राय यह भी है कि इस प्रथा को एक प्रकार की मंज़ूरी देकर सरकार के विनियमन से लाभ के बजाय हानि ही हुई थी”। 

8. परिपत्र में आगे कहा गया कि इन परिस्थितियों में सरकार किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई। लेकिन लॉर्ड डब्ल्यू. बेंटिक बहुत ही आश्वस्त थे कि सरकार को इस मामले में कोई निर्णय लेना चाहिए।

वे सती प्रथा के विरुद्ध कुछ कार्रवाई करने के लिए उत्सुक थे। इसलिए, वे अपने-अपने रेजिमेंटों में सती प्रथा के क्रमिक या तत्काल उन्मूलन के प्रभाव के बारे में उनकी राय जानना चाहते थे।25 

यह परिपत्र 49 सैन्य अधिकारियों और 15 सिविल सेवकों तथा निजामत अदालत राजा राम मोहन राय तथा सभी न्यायाधीशों को भेजा गया था। ईसाई मिशनरियों और हिंदू पंडितों ने सती प्रथा के बारे में सरकार को याचिकाएँ प्रस्तुत कीं। 

सेना के अधिकारियों ने परिपत्र में पूछे गए प्रश्नों पर उचित विचार किया और सरकार को अपनी राय से अवगत कराया। इनमें से कुछ राय बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें समस्या का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया था। ऐसी ही एक रिपोर्ट लेफ्टिनेंट कर्नल पोर्डर, Porderi की है। यह उन्होंने 25 नवंबर 1828 को बनारस के कैप्टन आर. बेन्सन को लिखी थी कि अगर कई लोगों को यह डर है कि सती उन्मूलन के आदेश के बाद ब्राह्मणों और पुजारियों द्वारा हिंदुओं में आम विद्रोह भड़क सकता है? अगर ऐसा होता है तो भारत में हमारी स्थिति वाक़ई बहुत ख़राब हो जाएगी। परन्तु उन्होंने ने स्पष्ट रूप से लिखा कि ये आशंकाएँ निराधार थीं, क्योंकि हिंदू आबादी पर ब्राह्मणों का प्रभाव कई सालों से घटता जा रहा था। उन्होंने लिखा कि क्रूरता और आत्मदाह से जुड़ी रातों और समारोहों में शामिल होने वाले व्यक्तियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। और उदासीनता की भावना बढ़ती जा रही थी। “उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि जब ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा विभिन्न अमानवीय प्रथाओं को प्रतिबंधित किया गया था, तो उनकी आवृत्ति कम हो गई थी। यह इस बात का पर्याप्त प्रमाण था कि हिंदू धर्म अपना विश्वास, आधार खो रहा था।28 उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि तत्काल उन्मूलन के आदेश से कोई ख़तरा नहीं होगा, उनका मानना है कि निम्न वर्ग उन्मूलन के लिए बहुत उत्सुक था। उन्होंने आगे कहा कि मुझे कोई संदेह नहीं कि हमारा कोई भी सिपाही (ब्राह्मण नहीं होने के कारण) कार्रवाई करेंगे, और बहुत से ब्राह्मण और अधिकारी सती प्रथा को रोकने की कार्रवाई में हमारा साथ देंगे, मुझे विश्वास है कि देशी सेना संतुष्टि की भावना के साथ सती प्रथा के उन्मूलन का स्वागत करेगी। मेरा मानना है कि हमारे सिपाही, हिंदू और ब्राह्मण, अपने धर्म को, कंपनी की सेवा की तुलना में कम महत्त्व देते हैं उनमें कम्पनी के प्रति उत्तरदायित्व की भावना अधिक दिखाई देती है।”25 ऐसे उदाहरण हैं कि जब सिपाहियों ने सती के प्रति उपेक्षा बरती अथवा एक महिला को आत्मदाह से बचाने में सहायता की। उन्होंने लखनऊ में सती की चिता से एक महिला को बचाने का एक उदाहरण देते हुए लिखा कि 23वीं सिपाही रेजिमेंट के इस कार्य की रिपोर्ट 7 फरवरी, 1820 के कलकत्ता जर्नल में प्रकाशित भी हुई थी। हालाँकि वहाँ 12 सौ सिपाही मौजूद थे, लेकिन किसी ने भी बचाव अभियान पर आपत्ति नहीं जताई और न ही बाधा डाली। उन्होंने फ़ोर्ट विलियम के 7 फरवरी, 1820 के एक अन्य पत्र संख्या 3509 का हवाला दिया जिसमें सती रोकने की घटना की जाँच-पड़ताल करने के बारे में पता चलता है। जिसमें सती होने से बचाई गई घटना के बारे में जाँच की गई थी। सती होने से पहले महिला को कुछ नशीला पदार्थ दिया गया था।”सती के समय किसी स्त्री को नशीला पदार्थ देना हत्या के बराबर था।”25 उस महिला को चिता से सफलतापूर्वक उतारे जाने का उल्लेख था। 30 जून 1828 को मिर्जापुर में एक महिला को बचाने के अभियान (गजट में रिपोर्ट) ने भ्रम तो पैदा किया, लेकिन हिंसा नहीं हुई और एकत्रित भीड़ के बाद भी समाधान निकाल लिया गया। दुर्घटना होने से बच गई। 49वीं नेटिव इन्फेंट्री के सभी सिपाही मौक़े पर मौजूद थे। बनारस में भी ऐसी ही घटना हुई, जब गोद में बच्चा लिए एक महिला को बिना किसी विरोध के चिता से बचाया गया। चुनार में, मि. बॉली ने एकत्रित लोगों और सिपाहियों के प्रतिरोध या हिंसा के बिना अपने पति की चिता की ओर जा रही एक महिला को मना लिया। एकत्रित व्यक्ति, शायद इस बात से निराश थे कि वे वह “तमाशा” नहीं देख पाए जिसके लिए वे आए थे। उन्होंने सरकार को स्पष्ट रूप से लिखा कि . . . हमारी देशी सेना उन्मूलन के प्रति उदासीन रहेगी, विद्रोह नहीं होगा, न ही भय पैदा होगा और न ही उनके धर्म में कोई परिवर्तन आएगा।26

ब्रिगेडियर डब्ल्यू. रिचर्ड्स ने 26 नवम्बर 1826 को मथुरा से रिपोर्ट दी, “देशी सैनिकों के चरित्र के बारे में अपने ज्ञान के आधार पर, मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि कि सती प्रथा को समाप्त करने से सिपाहियों में थोड़ी सी भी उदासी पैदा होगी, या हमारे उद्देश्यों के प्रति उनमें कोई अविश्वास पैदा होगा, और न ही इससे उनके मन में हमारे अधिकार के प्रति थोड़ी सी भी घृणा उत्पन्न होगी या फैलेगी।” 27 

रॉबर्ट हैमिल्टन ने 1 मार्च 1829 ने, 9 वर्षों में बनारस में होने वाली सती की संख्या के आधार पर यह लिखा कि था कि, “मैं इस विषय पर सावधानीपूर्वक और विचारशील चिंतन के आधार पर अपनी दृढ़ और परिपक्व धारणा को व्यक्त करना चाहता हूँ कि सती प्रथा की समाप्ति से राज्य या देश की शान्ति या अमन-चैन को कोई ख़तरा नहीं होगा, न ही इससे राजनीतिक असुविधा या शर्मिंदगी होने की सम्भावना है।” उनके कथन से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि बनारस में इस अवधि के दौरान सती की संख्या में वृद्धि हुई थी। उनका मानना था कि सरकारी आदेश ने सती को हतोत्साहित करने के बजाय उसे प्रोत्साहित कर दिया था। 

उन्होंने सती प्रथा के अभिलेखों का धार्मिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया। उन्होंने लिखा कि बनारस 500,000 लोगों की आबादी वाला एक पवित्र शहर था। यह बात जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि जब, सभी उम्र के हिंदू बनारस, काशी में मर कर मोक्ष प्राप्त करने के आंकाक्षी थे, तब भी वह सती के प्रति उपेक्षा का भाव रखते थे। जब कोई प्राकृतिक आपदा अथवा भयानक रोग समाज में फैल जाता था, उस समय समय सती की संख्या में वृद्धि हो जाती थी।

जनवरी 1820 से जनवरी 1829 तक बनारस में सती की संख्या

लेकिन जहाँ तक सती का सवाल है, उन्होंने स्पष्ट रूप से समझाया, “जब से मैं बनारस में रह रहा हूँ, सभी श्रेणियों के विद्वानों और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मुझसे मिलने आए। उन लोगों के साथ मेरी लगातार बातचीत हुई। अब तक मुझे इस विषय पर कभी भी कोई संतोषजनक उत्तर या उचित तर्क नहीं मिला है। यह भी ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि 60 से 80 वर्ष की आयु के बीच की वृद्ध महिलाओं की संख्या 40 से 18 वर्ष की आयु की महिलाओं से अधिक थी। अर्थात्‌ वह सती नहीं हुई थीं। नहीं तो इतनी संख्या में बड़ी उम्र थी महिलाएँ जीवित नहीं हो सकती थीं। हैमिल्टन ने कंपनी को सलाह दी कि सती उन्मूलन केवल सख़्त, बिना शर्त, अमिश्रित निषेध द्वारा किया जाना चाहिए, जिसे सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों द्वारा प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए। इस प्रथा को एक विनियमन द्वारा निषिद्ध किया जाना चाहिए, जिसमें प्रावधान किया जाये कि सती की घटना होने या करवाने पर दोषियों पर सख़्त कार्रवाई होगी, जिसमें हर प्रकार की सम्पत्ति का अधिग्रहण property can be escheated, जैसी क़ानूनी कार्रवाई की जायेगी। सती करवाने वाले परिवारों व उसमें सहायता करने वालों को राज्य से मिलने वाली सुविधा बंद कर दी जायेगी। उनके भंडारण प्रतिबंधित हो जायेंगे और उनके सभी रिश्तेदारों को व्यक्तिगत रोज़गार और कार्यालयों से बाहर रखा जायेगा।उन्होंने लिखा कि भारत में मूल निवासियों के लिए कुछ समय के लिए भी किसी अपराध के कारण समाजिक बहिष्कार सबसे अधिक भयानक दंड माना जाता था। क़ानूनी कार्रवाई की घोषणा ही सती को समाप्त करने में पर्याप्त कारगर होगी। 

ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी W Bird ने पश्चिम बंगाल, कलकत्ता के एक पत्र में, 4th April 1829 में अपनी राय व्यक्त करते हुए लिखा, “. . . conviction produced by those sentiments of the duty of suppressing it as soon as possible, has been so decisive and universal that to advance any additional argument on that point might be considered superfluous . . . almost any measure for it's discontinuance, appears to me to furnish the only argument that was still wanting in favour of it's immediate suppression.”29 उसने सलाह दी कि सती को समाप्त करने से ईस्ट इंडिया सरकार व भारतीयों के बीच चल रहे धार्मिक विवाद का भी अंत हो जायेगा। 

कुछ अँग्रेज़ अफ़सर ऐसा मानते थे कि सती प्रथा समाप्त करने से हिंसा तथा सरकार के प्रति अविश्वास पैदा होगा। तो इस सम्बन्ध में रिपोर्ट यह है कि, जिन 49 सैन्य अधिकारियों को परिपत्र भेजा गया था, उन्होंने सरकार को अपनी राय से अवगत कराया। इन 49 रिपोर्टों में से 24 ने अप्रत्यक्ष तरीक़ों से उन्मूलन का समर्थन किया, और 5 ने इस प्रथा में किसी भी तरह के हस्तक्षेप का विरोध किया। पुलिस अधीक्षक और आंतरिक क्षेत्र के 10 में से 9 सार्वजनिक अधिकारी इस प्रथा के उन्मूलन के पक्ष में थे। बेंटिक द्वारा परामर्श किए गए 15 सिविल सेवकों में से 8 तत्काल उन्मूलन के पक्ष में थे। निज़ामत अदालत के सभी न्यायाधीश भी तत्काल उन्मूलन के पक्ष में थे। 

ईसाई मिशनरियों ने मई 1829 में लॉर्ड बेंटिक को लिखा कि “जिस अमानवीय और अन्यायपूर्ण प्रथा का हम उल्लेख कर रहे हैं, उसके अनुसार बंगाल प्रेसीडेंसी में हर साल मानव जाति के सबसे अभागे, सबसे दयनीय लगभग एक हज़ार लोगों को मार दिया जाता है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि आत्मदाह करना आत्म हत्या के बराबर है और जो लोग इसमें सहायता करते हैं, वे हत्या के दोषी हैं। उन्होंने हिंदू क़ानून (मनु स्मृति) का हवाला दिया और कहा कि यह महिला को सती होने का आदेश नहीं देता, बल्कि इसके विपरीत विधवाओं को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए यह बताता है। वह विधवाओं के आचरण के नियम निर्धारित करता है। इस सम्बन्ध में इस पर ध्यान देना आवश्यक है, (भागवत में उल्लेख मिलता है कि एक राजा जो स्वेच्छा से राज त्याग कर संयासी बन कर पत्नी के साथ वन चला गया था, उसकी मृत्यु पर उसकी विधवा जब सती होना चाहतीं थी तब उसे ऐसा करने से रोक लिया गया। उसे समझाया कि सनातन संस्कृति में आत्मा अविनाशी है। मरना व जन्म लेना तो शरीर का कर्म है। तुलसीदास जी ने किष्किन्धाकाण्ड ने इसी बात को इस प्रकार लिखा है। बाली की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी सती होना चाहती थी तब स्वयं श्री रामचन्द्र जी ने बाली की विधवा तारा को समझाते हुए उपदेश देते हैं—यह शरीर पाँच तत्वों से बना है—“छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यही अधम शरीरा॥ प्रगट से तनु आगे सेवा। जीव नित्य केहि लागे तुम्ह रोवा॥” ऐसा प्रतीत होता है कि सती प्रथा शास्त्रों द्वारा अनुमोदित नहीं थी)। 

कुछ पारिवारिक, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक कारणों से कुछ काल में भारत में प्रचलित हो गई। 

हिंदू पंडितों ने सती प्रथा के पक्ष में लंबे समय तक वकालत की।3। राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के ख़िलाफ़ ज़ोरदार अभियान चलाया। उन्होंने प्रतिक्रियावादियों द्वारा दिये गये तर्कों का मुँह तोड़ जवाब दिया॥राजा और उनके अनुयायियों ने जवाबी याचिकाएँ दायर कर यह दर्शाया कि यह प्रथा शास्त्रों द्वारा अनुमोदित नहीं थी। हिंदू पंडित (तथा कथित) इसी कारण सती उन्मूलन नियम का वहुत ज़ोरदार ढंग से विरोध नहीं कर सके। बाद के हिंदू टिप्पणीकारों ने आंशिक रूप से इसका समर्थन कर दिया। 

सितम्बर 8, 1829 को विलि बेंटिक को बहु प्रतीक्षित पत्र मिला। यह पत्र William Astell ने 5 June 1829 को इंडिया हाउस में पेश किया था, जिसमें उसने लिखा था, “I have deprecated discussion and invarialy opposed any legislation upon this country. I should be doing myself injustice, could I suppose that there was slightest necessity to say anything with respect to my desire to see this horrid practice put an end to. I give full credit to the local government for an anxious wish and endeavor to devise some means for it's suppression, and in their judgement I place ever confidence. You may depend oupon my best exertion to induce the proprietors to suspend for the present any discussion of the question; but there are those whose zeal so far outstrips their discretion that I fear it will not an easy matter to keep them quite.” 

विलियम बेंटिक ने लिखा कि “हालाँकि, पिछली रात जब हाउस ऑफ़ कॉमन्स में काग़ज़ात पेश किए गए, इस विषय पर बहुत संयमित व शान्ति से चर्चा हुई; अब मेरी आशा है कि जैसा इन और पिछले काग़ज़ातों में दिखाया गया है, यह दिखाते हुए कि न्यायालय और स्थानीय अधिकारी इस प्रथा को पूरी ईमानदारी से समाप्त करना चाहते हैं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि ऐसी कोई भी कार्यवाही तुरंत टाल दी जायेगी, जो आपकी सरकार को शर्मिंदा करे। मैंने यह पत्र निजी तौर पर कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स के सामने पढ़ा, और इसका जो प्रभाव हुआ वह ठीक वैसा ही था जैसा कि आप चाहते थे।32

इस प्रकार, सती प्रथा के उन्मूलन के लिए तीस वर्षों से लगातार चल रहे आंदोलन का समाधान एक विनियमन द्वारा किया गया, जिसने बंगाल कोड के सती विनियमन अधिनियम XII. A.D. 1829 द्वारा सती प्रथा को अवैध घोषित किया। इसके अनुसार हिंदुओं की विधवाओं को जलाना या ज़िन्दा दफ़नाना अवैध है और आपराधिक न्यायालयों द्वारा दंडनीय है। बाद में जब सरकार के संज्ञान में यह बात आई कि (जुगी) समुदाय द्वारा कुछ विधवाओं को उनके मृत पति के साथ ज़िन्दा दफ़ना दिया जाता है, तो 1829 में एक विनियमन पारित किया गया। यहाँ (यह याद दिलाना आवश्यक है, अतीत में कुछ देशों में मृतक के साथ उसके सामान, पत्नी, नौकर चाकर आदि को भी दफ़नाने का उल्लेख मिलता है) 1829 के इस विनियमन XVII द्वारा विधवाओं के दाह संस्कार के साथ-साथ दफ़नाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। 

संदर्भ ग्रंथ:
1. बिपिन चंद्र, एम. मुखर्जी, के.एन. पणिक्कर, और एस. महाजन, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष 1857-1947, पेंगुइन बुक्स, 1989, पृ.82.
2. आर.सी. मजूमदार, भारत में स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास, खंड 1, पुस्तक कलकत्ता, 1902, पृष्ठ 200
3. S Natrajan,  A Century of social Reform in India , Asia Publishing, 1959 p.24
4. सी.एच. फिलिप्सलेड, लॉर्ड विलियम बेंटिक गवर्नर-जनरल ऑफ़ इंडिया का पत्राचार, 1828-1835, खंड 1, ऑक्सफोर्ड प्रेस, 1977, पृष्ठ xxvii.
5. आर. सी. मजूमदार, ऑप. सीआईटी. पृ. 393.
6. व्हीलर जेम्स टी. और मैकमिलन, माइकल, यूरोपियन ट्रैवलर्स इन इंडिया (रेव. टेरी की यात्राएँ 1615-18), सुशील गुप्ता (इंडिया) लिमिटेड, कलकत्ता, 1956, पृ. 8.
7. व्हीलर जेम्स टी. और मैकमिलन, माइकल, यूरोपियन ट्रैवलर्स इन इंडिया (पेट्रो डेला वैले की यात्राएँ, 1623-25), उद्धृत, पृ. 40.
8. नटराजन, ऑप. पृ 23
9. इडेम
10. प्रकाशन विभाग, भारत का राजपत्र, इतिहास और संस्कृति, खंडII. सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1992, पृष्ठ 638.
11. मजूमदार, ऑप. सिट., पृ. 815.
12. Natrajan, op. cit., p. 28.
13.के.डी. भार्गव [सं.], फोर्ट विलियम हाउस पत्राचार, खंड XIII, भारत सरकार, 1959, पृ. 544.
14. फिलिप्स, ऑप. सीआईटी., पृ. 368.
15. वही, पृ. 367.
16.के.के.दत्ता, कलकत्ता रिव्यू, 1867, पृ. 221-261
17. Natrajan, op. cit., p. 30.
18. फिलिप्स, ऑप. सीआईटी., पृ. 182.
19. मजूमदार, ऑप. ओ.टी., पृ. 270.
20. Natrajan, op. cit., p. 29-30
21. मजूमदार, ऑप. ओ.टी., पृ. 271.
22. वही, पृ. 272.
23. वही, पृ. 273.
24. वही.
25. फिलिप्स, ऑप. सीआईटी., पृ. 90-91.
26. वही, पृ. 101-103.
27. वही, पृ. 106.
28. वही, पृ. 171-175.
29. वही, पृ. 183.
30. वही, पृ. 180-181.
31. वही, पृ. 367-369.
32. वही, पृ.223

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