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रचनाओं का छपना ऐसे शुरू हुआ

 

हमारे बेटे को तबला सीखने का बहुत मन था। तब उसकी उमर कोई ६-७ साल की होगी। हमने आदरणीय मिश्र जी से, जो संकट मोचन के महंत और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में प्रोफ़ेसर थे, से बात की। उन्होंने श्री रामजनम, जो बीएच यू के बिरला मंदिर में दो बार तबला बजाते थे, को भेज दिया। बेटे ने उनसे कुछ साल तबला सीखा। रेडियो पर प्रसारित होने वाले बाल कार्यक्रम में भी वह उसे ले गये। जहाँ उसने त्रिताल, कहरवा आदि बजाया। 

बेटे ने तबला सीखना तो बंद कर दिया, परन्तु रामजनम जी हमारे परिवार के सदस्य बन गये। मंदिर से लौटते प्रतिदिन ही आ जाते और रोचक ढंग से बनारस व बीएचयू के क़िस्से सुनाते थे। अपनी कहानी, लेख में, बनारसी भाषा की दो-चार पंक्ति लिखने के लिए हम उनसे सलाह लेते थे। वह मुझे माता जी कहते थे। (बनारस में लड़कियों, स्त्रियों को सम्बोधित करने का सम्मान-जनक शब्द) वह एक दिन वह कहने लगे कि सर, मेरे पति, के यहाँ इतने पत्रकार आते हैं आप अपनी कथा-कहानी अख़बार में क्यों नहीं भेजतीं? मैंने कहा कि ‘आज’, ‘गांडीव’ में प्रकाशित होना इतना आसान नहींं है। गांडीव, आज में, आदरणीय श्रीलाल शुक्ल जी, श्री प्रसाद जी आदि की रचनाएँ छपती हैं। बात आई गई हो गई। 

समय बीतता रहा। मेरा लिखना मेरी आवश्यकता थी। किसी भी घटना या बात का इतना प्रभाव मन पर होता था कि मस्तिष्क में भूचाल आ जाता था। बीएचयू व लेक्चर तैयार करने के समय के अतिरिक्त वह भूत सा सिर पर सवार रहता। अपने मन व दिमाग़ को शांत करने का एक ही उपाय था कि उसे कविता, कहानी या लेख में लिख लो। इस तरह स्थानीय, सामाजिक, राजनैतिक विषयों पर लिखने का काम होता रहा। हिंदी साहित्य मेरा विषय नहीं था। अतः हिंदी विभाग से मेरा कोई लेना देना न था। ‘हम और हमारी रचना’ में ही सुखी थे। 

एक दिन रामजनम जी आये। गपशप, चाय होने के बाद उन्होंने एक काग़ज़ का पुर्जा देते हुए कहा कि आप इन्हें अपनी रचना भेज दीजिए, यह उसे प्रकाशित करवाने में सहायता करेंगे। हमने कहा, “मान न मान हम तेरे मेहमान।” उन्होंने कहा कि माता जी इनका नाम राजकुमार (राजकुमार, वाही, खत्री) हैं। ये ‘बनारस’ के नाम से पत्र प्रकाशित करते हैं। बहुत तेज़ तर्रार निर्भीक पत्रकार हैं। बहुत से व्यक्तियों को पत्रकारिता सिखाई है। समाचार पत्र में छपने की आशा बहुत बड़ा लालच था। सो एक रचना उनके ही हाथ पत्र लिख कर उनके पास पहुँचा दी। अगले दिन ही उनका फोन आ गया। उनसे पहली बार बात हुई। उन्होंने कहा कि लेख ठीक है, कुछ कमियाँ थीं, सुधार दी हैं। लेख गांडीव में भेज दिया है छप जायेगा। हमारा मन तो बल्लियों उछल पड़ा। 

राजकुमार जी, यानी हमारे चाचा जी, (कब चाचा जी बन गया पता ही नहींं चला) जो नेपाली खपरा में रहते थे, उनकी प्रेस बुलानाला थी, हम बीएचयू वालों के लिए कहीं भी जाना बड़ा दूभर काम था। मेरे पतिदेव मेरी रचना को उस तरफ़ रहने वालों के हाथ चाचा जी को भिजवाने लगे। इस बीच हिम्मत जुटा कर, एक बार उनसे व उनके परिवार से मिलने हम नेपाली खपरा गये और फिर उन से मिलने एक बार बुलानाला गये। 

इस तरह दैनिक आज व गांडीव में हमारे लेख, कविता, कहानी छपने लगे। 

राजकुमार जी का परिवार चाचा-चाची जी व गांडीव का परिवार राजीव भैया का परिवार हमारा परिवार बन गया। यह सम्बन्ध आज भी हमारे जीवन का अहम हिस्सा हैं। 

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