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अम्माँ के बनाये खाने का स्वाद 

 

महशूर शायर निदा फ़ाज़ली का गोरखपुर में हुआ मुशायरा सुन रही थी। जिसमें माँ पर सुनाया एक शेर दिलो-दिमाग़ पर छा गया। अल्फ़ाज़ थे: 

खट्टा मीठा माँ का प्यार, या हाथों में स्वाद, 
हर सब्ज़ी हर दाल में माँ आती है याद। 

सबकी अपनी-अपनी प्यारी-प्यारी माँ होती है। जिससे कितनी बातें जुड़ी होती हैं। पर बड़े होने पर लगता है कि वह बीता कल था। पर आज भी उतना ही जीवंत है। अपनी माँ की यादें तथा वक़्त चाशनी की तरह दिमाग़ में लिपटा-लिपटा-सा रहता है और वक़्त बेवक़्त दस्तक देता रहता है। यहाँ क्योंकि बात स्वाद की हो रही है तो इस शेर के साथ बनारस हिन्दू विश्वविघालय के मैटलरजी विभाग के प्रोफ़ेसर ए के घोष का चेहरा घूम गया। 

एक दिन की बात है कि वह उनकी पत्नी रेखा जी हमसे मिलने आये। बात धीरे-धीरे खाने के स्वाद पर आ गई। वह कहने लगे जब हमारी शादी हुई और हमारी पत्नी रेखा जी ने खाना बनाया तो हमें लाजवाब लगा। धीरे-धीरे उनके द्वारा बनाये लज़ीज़ व्यंजनों की आदत पड़ गई। लेकिन जब कभी अचानक किसी सब्ज़ी या दाल में माँ के बनाये खाने के स्वाद का अहसास हो जाता तो मस्तिष्क में, अपनी माँ के बनाये खानों का स्वाद जीवित हो जाता। लगता है माँ जैसा बनाती थी कुछ वैसा बना है। माँ जैसा बनाती थी, उसका तो क्या कहना! 

कल ही शायद पिछले चालीस-पैंतालिस साल से अमेरिका में बसी बहिन से बात हो रही थी। मैंने पूछा, “दीवाली पर क्या बनायेंगी?” कहने लगी, “दाल की कचौड़ी और आलू की सादा सब्ज़ी, जैसी माँ बनाती थीं।” फिर कहने लगी, “उस सादा सब्ज़ी का स्वाद ही अलग था।”

उन्होंने बताया कि दो दिन पहले उनका नाती आया था उसे दाल वग़ैरा से एलर्जी है। मैंने पालक का साग बनाया, आटे का सालन लगा कर। बहुत अच्छा बना जैसा हमारी माँ बनाती थीं। उसे बहुत अच्छा लगा। साग में माँ के हाथ का इतना स्वाद था, जितना बचा सब मैंने ही खा लिया। 

दीदी की बात सुन कर मेरे दिमाग़ में कितने ही स्वाद धमा-चौकड़ी मचाने लगे। उनमें ‘पहले मैं, पहले मैं, मैं’ की होड़-सी लग गई थी। लिखने का काम तो सिलसिलेवार ही होता है, मुझे अपनी अम्माँ की बनाई आटे की पंजीरी (हलवा नहींं एक तरह की बर्फ़ी, जो खाँड़ के बूरे से बनती है), बेसन का हलुवा, मीठा व नमकीन, सौंरी के लड्डू, मक्का, बाजरे, चने की हाथ से थपक कर चूल्हे की सौंधी रोटी, पिताजी की सहायता से बनाया गाजर का हलुवा, आम का अचार, हंडे में राई के पानी में मूँग की पकौड़ी की याद ने तो मुँह में पानी ही भर दिया। शायद अम्माँ का प्यार ही इस स्वाद की जान है। 

यह नहीं कि माँ के बनाये खाने के अतिरिक्त भी बहुत से स्वाद जीभ पर कसमसा रहे थे। मेरी सास की बनाई बेसन की कतली, मैदे के पापड़, सूजी के लड्डू, आलू, अरबी की सूखी भुनी सब्ज़ी। आलू का रसा, दाल की थपक कर बनाई कचौड़ी, दही बड़ा आदि. . . 

मेरी ससुराल मथुरा में थी। आज से पचास साल पहले वहाँ हरी तरकारियाँ, फल बहुत कम मिलते थे। घी, दूध, दही, लस्सी, रबड़ी, जलेबी कचौड़ी, बेड्ईं, तरह-तरह की मिठाइयों की इफ़रात थी। मथुरा का पेड़ा और खुरचने तो दूर-दूर तक मशहूर थी। ऐसे शहर में शाम को कोई बिना सूचना के आ जाये तो कोई क्या बनाये क्या खिलाये? 

एक दिन शाम को मथुरा में मेरे ममिया ससुर, मेरी सास के भाई अचानक आ गये। नाश्ते में मिठाई नमकीन की कोई कमी नहीं थी। तभी बेसन घोल कर ताज़ी आलू की पकौड़ी छन गईं। रात के खाने में मेरी सास ने अपने भाई के लिये आलू टमाटर (वही घर में था) की रसेदार सब्ज़ी व पूड़ी बनाई। वह सब्ज़ी लाजवाब बनी थी, शायद बहन के प्यार का उसमें बघार जो लगा था। 

एक बार मेरे श्वसुर के बड़े भाई जेठा श्वसुर ने किसी अवसर पर काशीफल, सीताफल, कोढ़ा की सब्ज़ी बनाई, यूँ तो खाना हलवाई बना रहे थे, वैसी सब्ज़ी मैंने फिर कभी नहीं खाई। 

ऐसे कितने स्वाद, किसी होटल, किसी दावत, किसी के घर खाये खानों का मन-मस्तिष्क सँजोये हैं जिसमें प्यार से बना, खिलाया खाना जीभ से निकल कर दिमाग़ में छाप छोड़ जाता है। अद्भुत महिमा है याद व प्यार की इस जुगलबंदी की। 

मस्तिष्क का क्या कहना, वह तो कमाल का कम्प्यूटर है जिसमें अलग-अलग, एक-एक एहसास, स्वाद, स्पर्श आदि सब सुरक्षित रहता है और मौक़े पर बिना किसी कमाँड के मन पर छा जाता है। याद आ जाता है। 

इस स्वाद की सबसे महत्त्वपूर्ण बात पता है क्या है? यह सबका अपनी माँ से आपका निजी रिश्ता है, प्यार का अहसास है, किसी माँ की, किसी की माँ से कोई तुलना नहीं।

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