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ग्लानि

रत्नावली की शादी को क़रीब १८-१९ वर्ष बीत गये थे। उसके पति माणिक अक़्सर मीटिंग, सेमिनार तथा कॉन्फ़्रेंस में देहली आदि शहरों में जाते रहते थे। उनकी बहिन देहली में रहती थी। अत: उन्हें देहली जाना बहुत अच्छा लगता था। एक बार वह ६-७ दिन की मीटिंग के बाद आये। आने पर बहुत व्यस्त हो गये। शनिवार को रत्नावली  ने कहा कि विश्वविद्यालय जाने लायक़ साड़ी लेने बाज़ार चलेंगे। हुआ कुछ इस तरह कि रत्नावली डीसीएम की सूती धुली, कलफ़ की हुई  साड़ी पहन कर कॉलेज गई थी। अवकाश के समय एक सीनियर टीचर ने रत्नावली के साथ चलते चलते कहा कि जब साड़ी ऐसी हो जाती है तो रात को सोने के समय हम पहनते हैं। बात कुछ समझाने के लिये साधारण लहजे में कही गई थी। रत्नावली गांधी जी के सादा जीवन उच्च विचार का अनुसरण करती थी। अत: उसका ध्यान उस ओर गया ही नहीं था। बात साड़ी ख़रीदने की हो रही थी। 

जैसा अक़्सर पति पत्नी के बीच होता है, दोनों में ख़रीददारी, वह भी साड़ी को लेकर बहस छिड़ गई। बातों-बातों में पति ने कहा कि तुम्हारे पास इतनी साड़ियाँ हैं तब ऐसे कह कर दोष लगा रही हो। बात कुछ अधिक बढ़ गई। पति ने ताना दिया कि कम से कम सौ साड़ी तो उसके पास होंगी। रत्नावली की आँखें नम हो गईं, उसने कहा कि आप गिन लें। अगले दिन रविवार था, पति देव ने बिटिया को बुलाया और साड़ी गिनने बैठ गये। रत्नावली ने अलमारी के साथ-साथ संदूक भी लाकर रख दिया। शादी से लेकर उस दिन तक ख़रीदी, माँ से मिली तथा शादी में ससुराल से मिली साड़ी सब उसमें थीं। कुछ साड़ियाँ फटी थीं, कुछ बदरंग हो गईं थीं। कुछ की किनारी तार-तार हो रही थी। रत्नावली  का तो जैसे ख़ज़ाने का सच बेपरदा  रहा  था।

वह अपना अपमान व आँसू छिपाने के लिये रसोई घर में चली गई। सब साड़ियाँ कुल मिला कर पचास भी नहीं निकली, जिसमें पति की दिलाई २-३ साड़ी ही थीं। पति सब गिन-गिना कर बिटिया से बोले कि सब साड़ी ठीक से अलमारी में रख  देना। और चुपचाप उठ कर चले गये। 

उस दिन के बाद जब भी पति देव किसी शहर में मीटिंग आदि के लिये जाते तो वहाँ की ख़ास साड़ी लाने लगे। गाहे-बगाहे किसी किसी बहाने से बाज़ार ले जाकर साड़ी कपड़ा दिलाने लगे। रत्नावली को उनकी लाई प्रत्येक साड़ी में उनकी ग्लानि की ख़ुशबू  आती थी। परन्तु कहा कभी  कुछ नहीं। शायद उन्हें अपने पर बहुत ग्लानि हुई थी। 

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