अपना घर
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. उषा रानी बंसल15 Nov 2020 (अंक: 169, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
लतिका और मालती एक ही महाविद्यालय में शिक्षिका थीं। दोनों अलग-अलग विषय पढ़ाती थीं। स्टाफ़ रूम में क्लास समाप्त होने पर सब शिक्षिकाएँ आती-जाती रहती थीं। यूँ तो मालती की लतिका से कुछ विशेष मित्रता नहीं थी, पर स्टाफ़ रूम में मिलते-मिलते आपस में कुछ अधिक बातचीत होने लगी। लतिका परित्यक्ता थी। उसके एक बिटिया थी। वह महाविद्यालय से काफ़ी दूरी पर अपने माता-पिता व भाई-भाभी के साथ रहती थी । एक दिन वह जब स्टाफ़ रूम में आई तो बहुत ख़ुश थी। उसने बताया कि महाविद्यालय के परिसर में ही उसे घर आवंटित हो गया है। वह चाबी मिलने पर वहाँ रहने आ जायेगी। १-२ महीने बाद उसने गृहप्रवेश की पूजा कराई और विधिवत वहाँ रहने लगी।
एक दिन वह क्लास समाप्त होने पर स्टाफ़ रूम में आई , अन्य सहपाठी उससे नये घर के सम्बंध में बात करने लगे। एक ने कहा कि माँ का घर छोड़ कर रहने में मन नहीं लग रहा होगा। किसी ने कहा, कि वहाँ इतना बड़ा परिवार था, यहाँ बहुत अकेला लगता होगा। वह सब की बातों का जवाब दे कर मालती से बात करने लगी कि वह नया घर लगाने में बहुत व्यस्त हो गई है। घर का सामान अपनी पसंद का ख़रीदा है। पर्दे आजकल के डिज़ाइन के लगवाये हैं । कहने लगी कभी आओ तो दिखाऊँ।
चालीस साल की उम्र हो गई पर अपना घर पहली बार हुआ है। अपने घर में रहने का अवसर अब आया है। अपना घर तो अपना होता है। यह सब कहते-कहते उसके नेत्र गीले हो गये। बरसों के दुख घनीभूत हो आँखों में समा गये।
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