अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अपना घर

लतिका और मालती एक ही महाविद्यालय में शिक्षिका थीं। दोनों अलग-अलग विषय  पढ़ाती थीं। स्टाफ़ रूम में क्लास समाप्त होने पर सब शिक्षिकाएँ आती-जाती रहती थीं। यूँ तो मालती की लतिका से कुछ विशेष मित्रता नहीं थी, पर स्टाफ़ रूम में मिलते-मिलते आपस में कुछ अधिक बातचीत होने लगी। लतिका परित्यक्ता थी। उसके एक बिटिया थी। वह महाविद्यालय से काफ़ी दूरी पर अपने माता-पिता व भाई-भाभी के साथ रहती थी । एक दिन वह जब स्टाफ़ रूम में आई तो बहुत ख़ुश थी। उसने बताया कि महाविद्यालय के परिसर में ही उसे घर आवंटित हो गया है। वह चाबी मिलने पर वहाँ रहने आ जायेगी। १-२ महीने बाद उसने  गृहप्रवेश की पूजा कराई और विधिवत वहाँ रहने लगी। 

एक दिन वह क्लास समाप्त होने पर स्टाफ़ रूम में आई , अन्य सहपाठी उससे नये घर के सम्बंध में बात करने लगे। एक ने कहा कि  माँ का घर छोड़ कर रहने में मन नहीं लग रहा होगा। किसी ने कहा,  कि वहाँ इतना बड़ा परिवार था,  यहाँ बहुत अकेला लगता होगा। वह सब की बातों का जवाब दे कर मालती से बात करने लगी कि वह नया घर लगाने में बहुत व्यस्त हो गई है। घर का सामान अपनी पसंद का ख़रीदा है। पर्दे आजकल के डिज़ाइन के लगवाये हैं । कहने लगी कभी आओ तो दिखाऊँ। 

चालीस साल की उम्र हो गई पर अपना घर पहली बार हुआ है। अपने घर में रहने का अवसर अब आया है। अपना घर तो अपना होता है। यह सब कहते-कहते  उसके नेत्र गीले हो गये। बरसों के दुख घनीभूत हो आँखों में समा गये। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कविता

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

यात्रा वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं