मेरे साथ कोई नहीं खेलता
बाल साहित्य | बाल साहित्य कहानी डॉ. उषा रानी बंसल15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
दादी पुष्पांजलि अपने पुत्र सुयश के यहाँ कैनेडा के टोरोंटो शहर गईं। सुयश टोरोंटो के उपनगर मिलटन में रहता था। सुयश की पत्नी का नाम शोभा था। उनकी बिटिया का नाम तुलसी था। तुलसी कक्षा 1 में पढ़ती थी। एक दिन तुलसी कार्टून देख रही थी, शोभा ने तुलसी से कहा कि तुम्हें कार्टून देखते-देखते एक घंटे से अधिक हो गया, अब टीवी बंद करो! उसने कहा कि यह मेरा पसंदीदा कार्टून है, इसके बाद तुरंत बंद कर दूँगी।
डोरा नामक कार्टून का एक भाग समाप्त होने पर शोभा ने स्टार प्लस लगा दिया, और अपनी सास को रिमोट देकर कहा कि आप अपना सीरियल देख लीजिए। तुलसी को बहुत बुरा लगा।
वह बोली, “आप सदैव दादी को रिमोट दे देती हैं।”
मम्मी ने आँख दिखाई तो दादी से सट कर बैठ गई। तुलसी को हिन्दी सीरियल समझ में नहीं आ रहा था, उसने दादी से कहा, “चलिये कुछ खेलते हैं।”
दादी ने पूछा, “क्या खेलोगी?”
उसने कहा, ” गेंद।” वह लाल रंग की मध्यम आकार की गेंद ले आई। तो उसने कहा, कि आप फेंको मैं रोकूँगी मैं गोली (गोल कीपर) हूँ। दादी पोती गेंद खेलने लगे। एक बार गेंद उछलकर खिड़की से टकरायी। वह दादी से बोली, “हत् ये क्या किया? सारी खिड़कियाँ काँच की हैं अगर टूट गई तो डाँट पड़ेगी और सारी बर्फ़ अंदर आ जाएगी।” दादी ने कहा कि चलो कुछ और खेलते हैं।
तुलसी ने गेंद एक तरफ़ रख दी और दादी से पूछा, “आप जब छोटी थीं तो क्या-क्या खेल खेलती थीं?”
दादी ने बताया, “हम रस्सी कूदते थे, गेंद से कई प्रकार के खेल खेलते थे। सब बच्चे मिल कर दौड़ लगाते थे, पेड़ पर चढ़ते थे। पेड़ पर रस्सी बाँध कर झूला झूलते थे। गिट्टे, गिल्ली-डंडा, कंचे ताश के पत्ते आदि खेलते थे।”
तुलसी ने पूछा, “आप इलेक्ट्रॉनिक गेम्स आदि नहीं खेलती थी?”
दादी ने कहा, “हमारे बचपन में इलेक्ट्रॉनिक गेम्स नहीं होते थे“
तुलसी ने पूछा, “तब कंप्यूटर गेम्स खेलती होगी?”
“उस समय कम्प्यूटर भी नहीं था।”
उसे सुन कर बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि दो वर्ष की आयु से वह कम्प्यूटर पर खेल खेलती आ रही थी। कुछ देर सोच कर बोली, “डोरा, क़ायु, हथौड़ी तो देखती होगी।”
दादी ने बताया, “उस समय टीवी नहीं था, कार्टून कैसे देखते?”
तुलसी सोच में पड़ गई और बोली, “आप बहुत बोर होते होंगे।”
दादी मुस्कराई, “हम बच्चे कभी बोर नहीं होते थे। हमारी इतनी सारी सहेलियाँ होती थीं कि घर में टिक-टो, लूडो, कैरम आदि खेलते थे। और शाम को दो तीन घंटे घर के बग़ीचे में बाग़वानी करते थे, खेलते थे।”
“झूठ सब झूठ, “तुलसी ने कहा, “बाहर कितनी बर्फ़ पड़ी है, उसमें कैसे खेल सकतीं थीं?”
दादी ने प्यार से उसकी उलझन सुलझाते हुए बताया, “भारत में जहाँ हम रहते थे वहाँ बर्फ़ नहीं पड़ती थी। घर की सभी खिड़कियाँ काँच की नहीं होती थीं। हम घर की छत पर या घर के बाहर खेलते थे।”
उसने रुआँसा हो कर सामने की छत की ओर इशारा कर के कहा कि बर्फ़ से ढँकी उस छत पर कोई कैसे खेल सकता था? जब वह बनारस आयेगी तो वह भी छत पर चढ़ कर देखेगी। वह वहाँ ख़ूब खेलेगी, ” यहाँ घर के काँच न टूट जायें के डर से डर-डर कर खेलना पड़ता है। बाहर तो ३-४ महीने बर्फ़ ही रहती है। गर्मी में ही थोड़ी देर के लिये पार्क जा सकते हैं।”
दादी ने तुलसी की उदासी दूर करने के लिये कहा, “तुम्हारे मम्मी पापा ने इतने खिलौने ला कर दिये हैं, तुम उनसे खेलो।”
वह रोनी सूरत बना कर बोली कि उन्हें मेरे साथ कोई नहीं खेलता। तुलसी को उदास देख कर दादी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने उसे उसका नया गेम माउस ट्रेप और स्क्रैबल लाने को कहा। तुलसी दौड़ कर दोनों खेल ले आई। दादी-पोती कुछ देर तक खेलती रहीं। दादी ने पूछा कि आप उसके साथ रोज़ खेलेंगीं न। दादी की आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक आये। वह बोलीं, “जब तुम कहोगी।” तुलसी ख़ुश हो गई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
- कुछ अनुभव कुछ यादें—स्लीप ओवर
- दरिद्रता वरदान या अभिशाप
- पूरब और पश्चिम में शिक्षक का महत्त्व
- भारतीय नारी की सहभागिता का चित्रांकन!
- मीडिया के जन अदालत की ओर बढ़ते क़दम
- वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र में धर्म
- सनातन धर्म शास्त्रों में स्त्री की पहचान का प्रश्न?
- समान नागरिक संहिता (ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में)
कविता
- आई बासंती बयार सखी
- आज के शहर और कल के गाँव
- आशा का सूरज
- इनके बाद
- उम्मीद का सूरज
- उलझनें ही उलझनें
- उसकी हँसी
- ऊँचा उठना
- कृष्ण जन्मोत्सव
- चित्र बनाना मेरा शौक़ है
- जाने समय कब बदलेगा
- प्रिय के प्रति
- बिम्ब
- बे मौसम बरसात
- भारत के लोगों को क्या चाहिये
- मैं और मेरी चाय
- मैसेज और हिन्दी का महल
- राम ही राम
- लहरें
- लुका छिपी पक्षियों के साथ
- वह
- वक़्त
- संतान / बच्चे
- समय का क्या कहिये
- स्वागत
- हादसे के बाद
- होने न होने का अंतर?
- होरी है……
- ज़िंदगी के पड़ाव ऐसे भी
ऐतिहासिक
- 1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय
- 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग
- औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति
- पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन?
- भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का एक दूसरा पक्ष
- शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .
- सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में
- सोलहवीं सदी: इंग्लैंड में नारी
- स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
- इक्कसवीं सदी में कछुए और ख़रगोश की दौड़
- कलिकाल में सावित्री व सत्यवान
- क्या तुम मेरी माँ हो?
- जब मज़ाक़ बन गया अपराध
- तलवार नहीं ढाल चाहिए
- नये ज़माने में लोमड़ी और कौवा
- भेड़िया आया २१वीं सदी में
- मुल्ला नसीरुद्दीन और बेचारा पर्यटक
- राजा प्रताप भानु की रावण बनने की कथा
- रोटी क्या है?: एक क़िस्सा मुल्ला नसीरुद्दीन का
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं