वो तस्वीर
कथा साहित्य | लघुकथा डॉ. उषा रानी बंसल16 Jan 2015
निशा आज कुछ फुर्सत में थी। उसने सोचा कि आज पुराना सामान छाँट कर कूड़ा कुछ कम कर दूँ। इस विचार से उसने अल्मारी खोली ही थी कि उसकी निगाह एलबम पर पड़ गई। उसका हाथ अनायास ही एलबम पर पहुँच गया। एलबम निकालते हुए मन ने टोका कि पुरानी यादों में उलझ जाओगी तो कूड़ा कैसे कम कर पाओगी? पर एलबम के आकर्षण चतुरा बुद्धि पर भारी पड़ गया।
बस दस मिनट में फोटो देखकर सामान छाँटने में लग जाऊँगी...सिर्फ दस मिनट। क्या और कितना हर्ज हो जायेगा इन दस मिनट में। एलबम उठाकर वो आराम कुर्सी पर बैठ गई। एलबम के पन्ने पलटने के साथ यादों की परतें भी मस्तिष्क में करवटें बदलने लगीं। निशा की नज़र एक 4-5 वर्ष की तस्वीर पर अटक गई। यूँ तो फोटो साधारण थी बच्ची भी कोई अप्सरा न थी। वो न कोई परी या डाईन थी। वो तस्वीर थी एक बच्ची की, जो बिना मेज़पोश की मेज़ पर बैठी थी। उसने मामूली छींटदार फ्राक पहिन रखा था। उसके पैर नंगे थे। आँख में लगा काजल फूले हुए गालों तक फैला था। आँखों की कोर से लुढ़कने को बेताब दो नमकीन पानी की बूँदे अटकी थीं। श्वेत–श्याम वह तस्वीर निशा के जेहन पर छा गई। उसकी नज़र मानो तस्वीर से चिपक कर रह गई।
वो तस्वीर उसकी अपनी थी। जो मात्र तस्वीर ही नहीं वरन् उसका गुज़रा बचपन व उसका अपना बीता कल था। इतनी छोटी थी वो तब पर भी उससे जुड़ी सभी घटनायें बड़ी बारीकी से उसकी यादों में बसी थीं? क्या इतनी कम उम्र की बातें भी याद रह सकती हैं? ये ऐसी बात है जिसकी कभी घर में किसी प्रसंगवश चर्चा भी नहीं हुई थी। उस समय वह साढ़े चार साल की रही होगी। उसके पिताजी आफिस में काम करते थे। निशा उनकी चौथी कन्या थी। पिताजी को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। लेकिन हाय रे भाग्य, फिर लड़की हो गई। उनकी सभी आशायें निराशा में बदल गईं। जीवन में होने वाला सुप्रभात रात्री की कालिमा से आवृत हो गया। उन्होंने अपनी आशा के निराशा में बदल जाने के अनुरूप उस बच्ची का नाम निशा रख दिया। पिताजी को निशा से नफ़रत सी थी। गलती कोई करे डाँट निशा को पड़ जाती थी। निशा पिताजी से इतना डरने लगी कि उनके ड्योढ़ी में पैर रखते ही वह घर के किसी कोने में छिप जाती थी। निशा के जन्म के ढाई साल बाद उनके घर कुलदीपक पुत्र का जन्म हुआ। निशा की माँ इसे निशा का भाग्य बताकर फूली न समाती थीं।
निशा का भाई जब ढाई साल का हो गया तो उसके पिताजी ने एक दिन फोटोग्राफर को घर बुलाया। घर के आँगन में मेज़ रखी गई, उस पर मेज़पोश बिछाया गया। ढाई साल के रजत को हाफ-पेंट व शर्ट तथा फीते वाले जूते पहना कर मेज़ पर बिठाया गया। रजत बार-बार मेज़ से उतरने लगता। वह मेज़ पर नहीं बैठना चाहता था। फोटोग्राफर काला कपड़ा ओढ़कर जब तक फोटो लेने को तैयार होता रजत उतरने के लिये मचलने लगता। सारा पोज़ बिगड़ जाता। अंत में पोज़ बनाये रखने के लिये पिताजी ने एक संतरा लाकर उसे दे दिया। रजत संतरा खाने के प्रयास में मेज़ पर बैठ गया। फोटोग्राफ़र ने झट चीयर्स कह कर फोटो खींच ली। निशा बड़े ध्यान से सब देख रही थी, वह अपनी भी चीयर्स कराने के लिये ज़िद्द करने लगी। पिताजी ने कई बार डाँटकर मना किया। मेज़ से मेज़पोश भी हटा दिया। निशा गला फाड़ कर रोने लगी। उसकी माँ रसोई से निकल कर आई और बोली इसकी फोटो भी खिंचवा दो इसका भी दिल रह जायेगा।
पिताजी ने उसे उठा कर मेज़ पर पटक सा दिया। उसका झटका निशा ने उस दिन भी अपनी कुर्सी पर महसूस किया। निशा अब रजत कि तरह हाथ में संतरा पकड़ने की ज़िद्द करने लगी। पिताजी निशा से आजिज़ आते हुए बोले तेरी माँ ने तुझे बहुत सिर चढ़या है, फोटो खिंचानी है तो खिंचा नहीं तो चल उठ। ऐसा उन्होंने कहा ही नहीं वरन वह उसे मेज़ से उतारने भी लगे। फोटोग्राफ़र जो कैमरा सैट कर चुका था पोज़ ठीक करने के लिये मेज़ की ओर लपका और बोला मेरी अच्छी गुड़िया ज़रा नमस्ते तो कर। हाथ जोड़ कर कैसे नमस्ते करते हैं। निशा ने बेमन से ऊँगली फैलाकर हाथ जोड़ दिये। निशा की वह श्वेत श्याम तस्वीर ही नहीं थी वरन एक पूरी घटना का दस्तावेज बन एलबम के म्यूज़ियम में कैद हो गई।
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