अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मैं और मेरी चाय

मैं और मेरी चाय –
चलो चाय बनायें 
ख़ुद से बतियायें, 
भय से काँपता कौन आयेगा, 
उम्र ७६ के पार हो गई –
सब हम उमर के डर से घर में छिपे बैठे हैं! 
तभी काँच के दर पर, 
खट खट ने चौंका दिया! 
बरसों से अलमारी में बंद चाय के सैट ने दस्तक दी,
शायद वह क़ैद से उकता गई थी, 
किसी से आप-बीती कहने को बेताब / आतुर थी, 
नज़र मिली तो बात बन गई। 
 
चाय की केतली चढ़ी,
दूधदानी में दूध और, चीनीदानी में चीनी, 
कपों को गर्म पानी से खंगाला गया, 
केतली में चायपत्ती पानी डाल,
फूलदार टिकोज़ी से ढक दिया, 
ट्रे में सबको सजा कर रख ही रहे थे, 
कि, पारले जी भी कूद कर बैठ गया। 
 
अब चाय का कप और मैं, बतियाने लगे, 
चाय की चुस्की के साथ पुरानी यादें रस घोलने लगीं। 
चाय के उठते धुँए में क़िस्सों के छल्ले बनने लगे, 
हिलते हाथों में लिया कप – गुनगुनाने लगा, 
मैं और चाय यूँ बतियाने लगे, जैसे 
बरसों के बिछड़े आज मिले हों! 
तभी पारले जी ने टपक कर, 
यादों की चाशनी घोल दी, 
हँसते-हँसते टिकोज़ी को आँसू आ गये, 
चाय और मैं पुरानी यादों के समंदर में खो गये। 
मैं और मेरी चाय!

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कविता

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

यात्रा वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं