ज़िंदगी के पड़ाव ऐसे भी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. उषा रानी बंसल1 Jul 2020 (अंक: 159, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
ज़िंदगी के पड़ाव
ज़िंदगी में कैसे कैसे पड़ाव आते हैं
कुछ वर्षों पहले तक
जिन्हें हमारे आने की प्रतिक्षा रहती थी,
आँखें दरवाज़े पर चिपकी रहती,
कान क़दमों की आहट पाने को बैचन रहते,
जाते में घर भर में कोहराम मच जाता,
सब रोकने के नये नये बहाने खोजते थे,
वहाँ अब सन्नाटा है।
न किसी को आने की प्रतीक्षा
न जाने पर अफ़सोस।
कभी वृक्ष पर लटकी सूखी पत्ती भी
शायद -
टूटने तक इस अहसास के साथ
जीती होगी।
यह बात दीगर है कि
उस पत्ती की जगह
नई पत्ती कभी नहीं ले पाती।
प्रभु ने सबको उसका अलग,
वजूद/ अस्तित्व के साथ भेजा है,
जिसे कोई नहीं ले पाता,
वह स्थान सदा ही रिक्त रहता है।
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