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सनातन धर्म शास्त्रों में स्त्री की पहचान का प्रश्न? 

प्रस्तुत लेख श्रीमद्भागवदगीता तथा श्री भागवत पुराण को मुख्य स्रोत बना कर लिखा है। इन ग्रंथों की विषयवस्तु वस्तु परमात्मा के स्वरूप का निरूपण करना है। यह आत्मा का परमात्मा के सम्बन्ध का वर्णन करते हैं । श्री भागवत पुराण परमात्मा के चरित्रों का गुणगान करती है। इसमें सृष्टि की रचना के सभी पहलुओं गुण काल विभाग कर्म, कर्म-फल, जन्म–मृत्यु, चर–अचर जगत, जलचर, नभचर, कीट-पतंग, मानव आदि का विस्तार से वर्णन है जिस से ज्ञात होता है कि इस जगत की सृष्टि अनेक बार हुई जिसे 14 मन्वंतरों में समेटा गया है। इसमें विशेष बात यह है कि परम तत्व का रूप प्रत्येक मन्वंतर के आख्यान में एक-सा ही है। परम तत्व जिसे आजकल गॉड कहते हैं सृष्टि का मूल तत्व है जिसके एक अंश से संपूर्ण ब्रह्मांड की संरचना होती है। श्रीमद भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यह समस्त संसार मेरे एक अंश से उत्पन्न हुआ है। अध्याय 10 से 41 से 42 वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने इसे भी स्पष्ट किया है: 

यत्र यत्र विभूतिमत सत्वम् श्री मतऊर्जितम एवं वा। 
तत् तत् एवं अवगच्छ त्वम् मम तेज: अंश सम्भवम्॥(10, 41) 
 
अथवा बहुनाएतेन किम् ज्ञातेन तवार्जुन। 
विष्टभ्य अहम्इदम कृतस्नम्एक अंशेन स्थितो जगत॥(10, 42) 

श्री भागवत पुराण के अष्टम स्कंध में गज-ग्रह की मुक्ति के प्रसंग में परम तत्व का निरूपण 22—24 वें श्लोक में इस प्रकार किया गया है “स्वयं प्रकाशमय परमात्मा से बुद्धि, मन, इंद्रिय और शरीर, जो गुणों के प्रवाह रूप हैं बार-बार प्रगट होते और लीन हो जाते हैं। यह भगवान न देवता है न असुर। यह मनुष्य और पशु पक्षी भी नहीं है न वह है न कर्म और न कारण ही। सब का निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है वही स्वरूप है तथा यह ही सब कुछ है।” 

इससे स्पष्ट है कि परमतत्व प्रभु—लिंग-भेद के गुणों से परे है। (जैसा कि प्रभु को पुरुष कहा जा रहा है) 

चेतना और कर्म की स्वतंत्रता के कारण यह मनुष्य श्रेणी सबसे श्रेष्ठ है, जिसकी इच्छा देवता भी करते हैं। यह ध्यान देने की बात है कि इस जीव का कोई लिंग तय नहीं है। लिंग का आधार कर्म फल है। भागवत के पंचम अध्याय में मनुष्य देह का महत्त्व वर्णित है उसमें कहा गया है कि स्त्री पुरुष दांपत्य भाव में संस्कारों का अनुशीलन करके भगवत कृपा से योनिगत दुख से निवृत हो सकते हैं। यहाँ व्याख्या आत्मा परमात्मा और जीव की प्रवृत्ति और निवृत्ति की है। 

श्री भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध के 28 वें अध्याय में पुरंजन के स्त्री योनि को प्राप्त करने का उल्लेख है। इसी में राजर्षी मलय ध्वज और उसकी पतिपरायण पत्नी वैदर्भी का भी वर्णन है। मलय ध्वज के वानप्रस्थ होकर मलय पर्वत पर चले जाते हैं, तब उनकी पत्नी भी उनके साथ चली जाती है। पति के शरीर त्यागने पर वह विलाप करती है, और अधीर होकर चिता बनाकर पति का शरीर उस पर रखकर स्वयं भस्म होने (सती) का निश्चय करती है, तभी एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया और उसने वैदर्भी से कहा, “देखो तुम ना तो विदर्भ राज्य की पुत्री हो और ना यह मलय ध्वज तुम्हारा पति है, जिसने तुम्हें नौ द्वारों के पुर में बंद किया था, उस पुरत्र्जनी की पति भी तुम नहीं हो। (60) तुम पहले जन्म में अपने को पुरुष समझते थे, और अब स्त्री मानते हो, यह सब मेरी ही फैलाई हुई माया है। वास्तव में तुम ना पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों हंस हैं। हमारा जो वास्तविक स्वरूप है उसका अनुभव करो। जो मैं ईश्वर हूँ वही तुम जीव हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में ज़रा भी अंतर नहीं देखते। (श्लोक 4, 28, 62) जो प्रभु तत्व रूप में है उसका अंश जीव तत्व है। तत् त्वम्असि।” 

 इस आख्यान से सती प्रथा का निषेध होता है

उशीनर देश के राजा सुयज्ञ की मृत्यु पर रानियों की यम से वार्ता भी इसी तत्व को प्रकट करती है। शरीर और आत्मा का तत्व जानने वाले पुरुष न अनित्य शरीर के लिए शोक करते हैं न नित्य आत्मा के लिए (सप्तम स्कंध अध्याय 2, 2049)। इस प्रकार स्त्री पुरुष के मध्य श्रेष्ठता का कोई विशेषण या गुण इसमें प्रयुक्त नहीं है। ऋग्वेद के दशम अध्याय के 18.8 श्लोक में भी यही कहा गया है—Rise up women thou, art ।ying by one whose ।ife is gone come to the word of Living . . . ” 

प्रभु का तत्व रूप लिंग से इतर निरूपण करने के बाद स्त्री प्रसंग सृष्टि की रचना के क्रम में बहुत बाद में श्री भागवत पुराण के तृतीय स्कंध के 12 में अध्याय के श्लोक संख्या 4, 5, 6, में वर्णित है कि सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा जी ने चार निवृत्ति मानस पुत्रों को पैदा किया (सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार)। उन्हें सृष्टि करने का आदेश दिया। निवृति परायण मानस पुत्र सृष्टि की रचना में प्रवृत्त नहीं हुए। तब ब्रह्मा जिनका नाम वर्णमाला ‘क‘ है ने अपनी काया को दो भागों में विभक्त करके स्त्री पुरुष का जोड़ा उत्पन्न किया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि स्त्री शब्द पहले प्रयुक्त हुआ है और दूसरी बात ध्यान देने की है कि स्त्री पुरुष में ना कोई पहले और ना बाद में कोई हुआ ना ही एक का जन्म दूसरे के लिए या जगती के लिए हुआ जैसा हिंदू इतर धर्म मानते हैं। इसी स्कंध का 54 वां अध्याय और भी महत्त्वपूर्ण है, जिसमें स्त्री पुरुष को “मैथुन धर्म (स्त्री पुरुष संभोग)” से प्रजा वृद्धि का आदेश दिया। इस तरह लिंग योनि और सम्बन्ध प्रारंभ हुआ। यहाँ संभोग sex को त्याज्य निकृष्ट नहीं बताया गया है। काम चार पुरुषार्थ में प्रथम कर्म है, जो पुण्य का फल है, पाप का नहीं। उन्होंने 3 कन्याएँ और 2 पुत्र पैदा किए। जिससे सृष्टि का विस्तार हुआ। चतुर्थ स्कंध में स्वयंम्भुव मनु की कन्या के वंश का वर्णन है। इस तरह श्री भागवत पुराण में कन्या के वंशजों का वर्णन पुरुष वाचक वंशजों के अनुरूप ही मिलता है, शायद उस समय पितृसत्तात्मक समाज का वर्चस्व नहीं रहा होगा। 

स्त्री पुरुष के जन्म जन्मांतर के सम्बन्ध में कई सामाजिक बंधन और प्रथाएँ निहित हैं। श्री भागवत पुराण के चतुर्थ स्कंध के 29 वें अध्याय में स्थूल शरीर की सीमाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है, इसके 60 वें श्लोक में कहा है कि स्थूल शरीर लिंग शरीर के अधीन है। अतः कर्मों का दायित्व भी उसी पर है। जिन कर्मों का ख़ुद को कर्ता मान लेता है उसी के कारण उसे जन्म और पुनर्जन्म लेना पड़ता है। इसी को आगे बढ़ाते हुए 74 वें श्लोक में कहा गया है कि यही चेतना, शक्ति युक्त होकर जीव कहलाता है। इसी के द्वारा मैं और मेरे के कारण जीव भिन्न-भिन्न देह, शरीर ग्रहण करता और त्यागता है, इस तरह 18000 योनियों में भटकता जीव मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। 

श्री भागवत पुराण के सप्तम स्कंध के एकादश अध्याय में स्त्री धर्म का निरूपण करते हुए लिखा है कि स्त्री पवित्रता और प्रेम से रह कर (यदि पति पतित ना हो तो) सहवास करें। (7, 11, 28) द्वादश अध्याय में आश्रमों के नियमों का निरूपण है। 

 निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है, कि इन दो प्रमुख धर्म शास्त्रों में: 

  1. स्त्री पुरुष की पहचान सृष्टि के अन्य जीवों से इतर वर्ग में की गई है। 

  2. स्त्री-पुरुष की उत्पत्ति एक साथ हुई। 

  3. दोनों स्वतंत्र होते हुए सृष्टि रचने के लिए एक दूसरे के पूरक हैं। 

  4. परमात्मा का अंश होने के कारण जीव का अंतिम लक्ष्य परम तत्व में विलीन होना है। काया भेद का उसमें कोई स्थान नहीं है। 

  5. परम तत्व लिंग भेद से इतर है। 

  6. स्त्री पति का अन्तिम संस्कार कर सकती है। 

  7. सती होने का निषेध है। 

नारी की पहचान के प्रश्न का उत्तर धर्म शास्त्रों में स्पष्ट है, परंतु क्रीस्त, इस्लाम आदि धर्मों से तुलना करते समय का ध्यान न रखने से संदर्भ से काट कर श्लोकों को खंडन मंडन के लिए प्रस्तुत करने से ही, स्त्री की पहचान का संकट उत्पन्न हुआ है। 

This Paper was presented in, Nationa। Seminar on Women in Dharmshatras, Center for Women Studies, BHU, 8-9 March 2006

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